दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यों
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त[1] दर्द से भर न आये क्यों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों
दैर[2] नहीं, हरम[3] नहीं, दर नहीं, आस्तां[4] नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों
जब वो जमाल-ए-दिलफ़रोज़[5], सूरते-मेह्रे-नीमरोज़ [6]
आप ही हो नज़ारा-सोज़, पर्दे में मुँह छिपाये क्यों
दश्ना-ए-ग़म्ज़ा[7] जांसितां[8], नावक-ए-नाज़[9] बे-पनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख़[10] सही, सामने तेरे आये क्यों
क़ैदे-हयातो[11]-बन्दे-ग़म[12] अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों
हुस्न और उसपे हुस्न-ज़न[13] रह गई बुल्हवस[14] की शर्म
अपने पे एतमाद है ग़ैर को आज़माये क्यों
वां वो ग़ुरूर-ए-इज़्ज़-ओ-नाज़[15] यां ये हिजाब-ए-पास-वज़अ़[16]
राह में हम मिलें कहाँ, बज़्म में वो बुलायें क्यों
हाँ वो नहीं ख़ुदापरस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही
जिसको हो दीन-ओं-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये क्यों
"ग़ालिब"-ए-ख़स्ता[17] के बग़ैर कौन-से काम बन्द हैं
रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों