बाग़ पाकर ख़फ़कानी ये डराता है मुझे
बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी[1], ये डराता है मुझे
साया-ए-शाख़-ए-गुल अफ़ई[2] नज़र आता है मुझे
जौहर-ए-तेग़[3] ब-सर-चश्मा-ए-दीगर[4] मालूम
हूं मैं वह सब्ज़ा[5] कि ज़हराब[6] उगाता है मुझे
मुद्दआ महव-ए-तमाशा-ए-शिकसत-ए-दिल[7] है
आईनाख़ाने में कोई लिये जाता है मुझे
नाला[8] सरमाया-ए-यक-आ़लम-ओ-आ़लम[9] कफ़-ए-ख़ाक[10]
आसमां बेज़ा-ए-क़ुमरी[11] नज़र आता है मुझे
ज़िन्दगी में तो वह महफ़िल से उठा देते थे
देखूं, अब मर गए पर, कौन उठाता है मुझे
शब्दार्थ: