अ़जब निशात से, जल्लाद के, चले हैं हम आगे
अ़जब निशात[1] से, जल्लाद के, चले हैं हम आगे
कि, अपने साए से, सर पाँव से है दो क़दम आगे
क़ज़ा[2] ने था मुझे चाहा ख़राब-ए-बादा-ए-उलफ़त[3]
फ़क़त[4], 'ख़राब', लिखा बस, न चल सका क़लम आगे
ग़म-ए-ज़माना ने झाड़ी, निशात-ए-इश्क़[5] की मस्ती
वगरना हम भी उठाते थे लज़्ज़त-ए-अलम[6] आगे
ख़ुदा के वास्ते, दाद उस जुनून-ए-शौक़[7] की देना
कि उस के दर पे पहुंचते हैं नामा-बर[8] से हम आगे
यह उ़मर भर जो परेशानियां उठाई हैं हम ने
तुम्हारे आइयो[9], ऐ तुर्रा हाए-ख़म-ब-ख़म[10] आगे
दिल-ओ-जिगर में पर-अफ़शां[11] जो एक मौज-ए-ख़ूं[12] है
हम अपने ज़ोअम[13] में समझे हुए थे उस को दम[14] आगे
क़सम जनाज़े पे आने की मेरे खाते हैं 'ग़ालिब'
हमेशा खाते थे जो मेरी जान की क़सम आगे
शब्दार्थ: