गुलशन को तेरी सोहबत अज़ बसकि ख़ुश[1] आई है हर ग़ुंचे का गुल होना आग़ोश-कुशाई[2] है वां कुनगुर-ए-इसतिग़ना[3] हर दम है बुलंदी पर यां नाले को और उलटा दावा-ए-रसाई[4] है अज़ बसकि सिखाता है ग़म, ज़ब्त के अन्दाज़े जो दाग़ नज़र आया इक चश्म-नुमाई[5] है