देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाये है
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाये है
मैं उसे देखूँ, भला कब मुझसे देखा जाये है
हाथ धो दिल से यही गर्मी गर अंदेशे में है
आबगीना[1] तुंदी-ए-सहबा[2] से पिघला जाये है
ग़ैर को या रब ! वो क्यों कर मना-ए-गुस्ताख़ी करे
गर हया भी उसको आती है, तो शर्मा जाये है
शौक़ को ये लत, कि हरदम नाला ख़ींचे जाइए[3]
दिल कि वो हालत, कि दम लेने से घबरा जाये है
दूर चश्म-ए-बद[4] ! तेरी बज़्म-ए-तरब[5] से वाह, वाह
नग़्मा हो जाता है वां गर नाला मेरा जाये है
गर्चे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल[6], पर्दादार-ए-राज़-ए-इश्क़[7]
पर हम ऐसे खोये जाते हैं कि वो पा जाये है
उसकी बज़्म-आराइयां[8] सुनकर दिल-ए-रंजूर[9] यां
मिस्ल-ए-नक़्श-ए-मुद्दआ-ए-ग़ैर[10] बैठा जाये है
होके आशिक़, वो परीरुख़ और नाज़ुक बन गया
रंग खुलता जाये है, जितना कि उड़ता जाये है
नक़्श[11] को उसके मुसव्विर[12] पर भी क्या-क्या नाज़ है
खींचता है जिस क़दर, उतना ही खिंचता जाये है
साया मेरा मुझसे मिस्ल-ए-दूद[13] भागे है 'असद'
पास मुझ आतिश-बज़ां[14] के किस से ठहरा जाये है