मेहरबां होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ ज़ोफ़[1] में ताना-ए-अग़यार[2] का शिकवा क्या है बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना क्या क़सम है तेरे मिलने की कि खा भी न सकूँ