मंज़ूर थी ये शक्ल तजल्ली को नूर की
मंज़ूर थी यह शक़्ल तजल्ली[1] को नूर की
क़िस्मत खुली तेरे क़द-ओ-रुख़ से ज़हूर[2] की
इक ख़ूं-चकां कफ़न में करोड़ों बनाव हैं
पड़ती है आँख तेरे शहीदों पे हूर की
वा`इज़[3] न तुम पियो न किसी को पिला सको
क्या बात है तुम्हारी शराब-ए-तहूर[4] की
लड़ता है मुझ से हश्र में क़ातिल कि क्यूं उठा
गोया अभी सुनी नहीं आवाज़ सूर[5] की
आमद बहार की है जो बुलबुल है नग़मा-संज[6]
उड़ती-सी इक ख़बर है, ज़बानी तयूर[7] की
गो वां नहीं पे[8] वां के निकाले हुए तो हैं
काबे से उन बुतों को भी निस्बत[9] है दूर की
क्या फ़र्ज़[10] है कि सब को मिले एक-सा जवाब
आओ न, हम भी सैर करें कोह-ए-तूर[11] की
गरमी सही कलाम में, लेकिन न इस क़दर
की जिस से बात उसने शिकायत ज़रूर की
'ग़ालिब' गर उस सफ़र में मुझे साथ ले चलें
हज का सवाब[12] नज़्र[13] करूंगा हुज़ूर की
शब्दार्थ: