मृत्यु-शय्या पर
रंगरूटो की भरती के काम मे मेरा शरीर काफी क्षीण हो गया। उन दिनो मेरे आहार मे मुख्यतः सिकी हुई और कुटी मूंगफली , उसके साथ थोड़ा गुड़, केले वगैरा फल और दो-तीन नीबू का पानी , इतनी चीजे रहा करती थी। मै जानता था कि अधिक मात्रा मे खाने से मूंगफली नुकसान करती है। फिर भी वह अधिक खा ली गयी। उसके कारण पेट मे कुछ पेचिश रहने लगी। मै समय-समय पर आश्रम तो आता ही था। मुझे यह पेचिश बहुत ध्यान देने योग्य प्रतीत न हुई। रात-आश्रम पहुँचा। उन दिनो मै दवा क्वचित ही लेता था। विश्वास यह था कि एक बार खाना छोड देने से दर्द मिट जायेगा। दूसरे दिन सवेरे कुछ भी न खाया था। इससे दर्द लगभग बन्द हो चुका था। पर मै जानता था कि मुझे उपवास चालू ही रखना चाहिये अथवा खाना ही हो तो फल के रस जैसी कोई चीज लेनी चाहिये।
उस दिन कोई त्यौहार था। मुझे याद पड़ता है कि मैने कस्तूरबाई से कह दिया था कि मै दोपहर को भी नही खाऊँगा। लेकिन उसने मुझे ललचाया और मै लालच मे फँस गया। उन दिनो मै किसी पशु का दूध नही लेता था। इससे धी-छाछ का भी मैने त्याग कर दिया था। इसलिए उसने मुझ से कहा कि आपके लिए दले हुए गेहूँ को तेल मे भूनकर लपसी बनायी गयी है और खास तौर पर आपके लिए ही पूरे मूंग भी बनाये गये है। मै स्वाद के वश होकर पिघला। पिघलते हुए भी इच्छा तो यह रखी थी कि कस्तूरबाई को खुश रखने के लिए थोड़ा खा लूँगा , स्वाद भी ले लूँगा और शरीर की रक्षा भी कर लूँगा। पर शैतान अपना निशाना ताक कर ही बैठा था। खाने बैठा तो थोड़ा खाने के बदले पेट भर कर खा गया। इस प्रकार स्वाद तो मैने पूरा लिया, पर साथ ही यमराज को न्योता भी भेज दिया। खाने के बाद एक घंटा भी न बीता था कि जोर की पेचिश शुरू हो गयी।
रात नड़ियाद तो वापिस जाना ही था। साबरमती स्टेशन तक पैदल गया। पर सवा मील का वह रास्ता तय करना मुश्किल हो गया। अहमदाबाद स्टेशन पर वल्लभभाई पटेल मिलने वाले थे। वे मिले और मेरी पीड़ा ताड़ ली। फिर भी मैने उन्हें अथवा दूसरे साथियो को यह मालूम न होने दिया कि पीड़ा असह्य थी।
नड़ियाद पहुँचे। वहाँ से अनाथाश्रम जाना था , जो आधे मील से कुछ कम ही दूर था। लेकिन उस दिन यह दूरी मील के बराबर मालूम हुई। बड़ी मुश्किल से घर पहुँचा। लेकिन पेट का दर्द बढ़ता ही जाता था। 15-15 मिनट से पाखाने की हाजत मालूम होती थी। आखिर मै हारा। मैने अपनी असह्य वेदना प्रकट की और बिछौना पकड़ा। आश्रम के आम पाखाने मे जाता था , उसके बदले दो मंजिले पर कमोड मँगवाया। शरम तो बहुत आयी , पर मै लाचार हो गया था। फूलचन्द बापू जी बिजली की गति से कमोड ले आये। चिन्तातुर होकर साथियो ने मुझे चारो ओर से घेर दिया। उन्होने मुझे अपने प्रेम से नहला दिया। पर वे बेचारे मेरे दुःख मे किस प्रकार हाथ बँटा सकते थे ? मेरे हठ का पार न था। मैने डॉक्टर को बुलाने से इनकार कर दिया। दवा तो लेनी ही न थी , सोचा किये हुए पाप की सजा भोगूँगा। साथियो ने यह सब मुँह लटका कर सहन किया। चौबीस बार पाखाने की हाजत हुई होगी। खाना मै बन्द कर ही चुका था , और शुरू के दिनो मे तो मैने फल का रस भी नही लिया था। लेने की बिल्कुल रुचि न थी।
आज तक जिस शरीर को मै पत्थर के समान मानता था, वह अब गीली मिट्टी जैसा बन गया। शक्ति क्षीण हो गयी। साथियो ने दवा लेने के लिए समझाया। मैने इनकार किया। उन्होने पिचकारी लगवाने की सलाह दी। उस समय की पिचकारी विषयक मेरा अज्ञान हास्यास्पद था। मै यह मानता था कि पिचकारी मे किसी-न-किसी प्रकार की लसी होगी। बाद मे मुझे मालूम हुआ कि वह तो निर्दोष वनस्पति से बनी औषधि की पिचकारी थी। पर जब समझ आयी तब अवसर बीत चुका था। हाजते तो जारी ही थी। अतिशय परिश्रम के कारण बुखार आ गया और बेहोशी भी आ गयी। मित्र अधिक घबराये। दूसरे डॉक्टर भी आये। पर जो रोगी उनकी बात माने नही , उसके लिए वे क्या कर सकते थे।
सेठ अम्बालाल और उनकी धर्मपत्नी दोनो नड़ियाद आये। साथियो से चर्चा करने के बाद वे अत्यन्त सावधानी के साथ मुझे मिर्जापुर वाले अपने बंगले पर ले गये। इतनी बात तो मै अवश्य कह सकता हूँ कि अपनी बीमारी मे मुझे तो निर्मल और निष्काम सेवा प्राप्त हुई, उससे अधिक सेवा कोई पा नही सकता। मुझे हलका बुखार रहने लगा। मेरा शरीर क्षीण होता गया। बीमारी लम्बे समय तक चलेगी , शायद मै बिछौने से उठ नही सकूँगा , ऐसा भी एक विचार मन मे पैदा हुआ। अम्बालाल सेठ के बंगले मे प्रेम से धिरा होने के पर भी मै अशान्त हो उठा और वे मुझे आश्रम ले गये। मेरा अतिशय आग्रह देखकर वे मुझे आश्रम ले गये।
मै अभी आश्रम मे पीड़ा भोग ही रहा था कि इतने मे वल्लभभाई समाचार लाये कि जर्मनी पूरी तरह हार चुका है और कमिश्नर मे कहलवाया है कि और रंगरूटो भरती करने की कोई आवश्यकता नही है। यह सुनकर भरती की चिन्ता से मै मुक्त हुआ और मुझे शान्ति मिली।
उन दिनो मै जल का उपचार करता था और उससे शरीर टिका हुआ था। पीड़ शान्त हो गयी थी, किन्तु किसी भी उपाय से पुष्ट नही हो रहा था। वैद्य मित्र और डॉक्टर मित्र अनेक प्रकार की सलाह देते थे , पर मै किसी तरह दवा पीने को तैयार नही हुआ। दो-तीन मित्रो ने सलाह दी कि दूध लेने मे आपत्ति हो , तो माँस का शोरवा लेना चाहिये और औषधि के रूप मे माँसादि चाहे जो वस्तु ली जा सकती है। इसके समर्थन मे उन्होने आयुर्वेद के प्रमाण दिये। एक ने अंड़े लेने की सिफारिस की। लेकिन मै इनमे से किसी भी सलाह को स्वीकार न कर सका। मेरा उत्तर एक ही था। नहीं।
खाद्याखाद्य का निर्णय मेरे लिए केवल शास्त्रो के श्लोको पर अवलंबित नही था , बल्कि मेरे जीवन के साथ वह स्वतन्त्र रीति से जूड़ा हुआ था। चाहे जो चीज खाकर और चाहे जैसा उपचार करके जीने का मुझे तनिक लोभ न था। जिस धर्म का आचरण मैने अपने पुत्रो के लिए किया, स्त्री के लिए किया, स्नेहियो के लिए किया, उस धर्म का त्याग मै अपने लिए कैसे करता ?
इस प्रकार मुझे अपनी इस लम्बी और जीवन की सबसे पहले इतनी बड़ी बीमारी मे धर्म का निरीक्षण करने और उसे कसौटी पर चढाने का अलभ्य लाभ मिला। एक रात तो मैने बिल्कुल ही आशा छोड़ दी थी। मुझे ऐसा भास हुआ कि अब मृत्यु समीप ही है। श्री अनसूयाबहन को खबर भिजवायी। वे आयी। वल्लभभाई आये। डॉक्टर कानूगा आये। डॉ. कानूगा ने मेरी नाड़ी देखी और कहा, 'मै खुद तो मरने के कोई चिह्न देख नही रहा हूँ। नाड़ी साफ है। केवल कमजोरी के कारण आपके मन मे घबराहट है।' लेकिन मेरा मन न माना। रात तो बीती। किन्तु उस रात मै शायद ही सो सका होउँगा।
सवेरा हुआ। मौत न आयी। फिर भी उस समय जीने की आशा न बाँध सका और यह समझकर कि मृत्यु समीप है, जितनी देर बन सके उतनी देर तक साथियो से गीतापाठ सुनने में लगा रहा। कामकाज करने की कोई शक्ति रही ही नही थी। पढ़ने जितनी शक्ति भी नही रह गयी थी। किसी के साथ बात करने की भी इच्छा न होती थी। थोड़ी बात करके दिमाग थक जाता था। इस कारण जीने मे कोई रस न रह गया था। जीने के लिए जीना मुझे कभी पसंद पड़ा ही नही। बिना कुछ कामकाज किये साथियो की सेवा लेकर क्षीण हो रहे शरीर को टिकाये रखने मे मुझे भारी उकताहट मालूम होती थी।
यों मै मौत की राह देखता बैठा था। इतने मे डॉ. तलवरकर एक विचित्र प्राणी तो लेकर आये। वे महाराष्ट्री है। हिन्दुस्तान उन्हें पहचानता नही। मै उन्हें देखकर समझ सका था कि वे मेरी ही तरह 'चक्रम' है। वे अपने उपचार का प्रयोग मुझ पर करने के लिए आये थे। उन्हें डॉ. तलवरकर अपनी सिफारिश के साथ मेरे पास लाये थे। उन्होने ग्रांट मेडिकल कॉलेज मे डॉकटरी का अध्ययन किया था , पर वे डिग्री नही पा सके थे। बाद मे मालूम हुआ कि वे ब्रह्मसमाजी है। नाम उनका केलकर है। बड़े स्वतंत्र स्वभाव के है। वे बरफ के उपचार के बड़े हिमायती है। मेरी बीमारी की बात सुनकर जिस दिन वे मुझ पर बरफ का अपना उपचार आजमाने के लिए आये, उसी दिन से हम उन्हें 'आइस डॉक्टर' के उपनाम से पहचानते है। उपने विचारो के विषय मे वे अत्यन्त आग्रही है। उनका विश्वास है कि उन्होने डिग्रीधारी डॉक्टरो से भी कुछ अधिक खोजे की है। अपना यह विश्वास वे मुझ मे पैदा नही कर सके, यह उनक और मेरे दोनो के लिए दुःख की बात रही है। मै एक हद तक उनके उपचारो मे विश्वास करता हूँ। पर मेरा ख्याल है कि कुछ अनुमानो तक पहुँचने मे उन्होने जल्दी की है।
पर उनकी खोजे योग्य हो अथवा अयोग्य , मैने उन्हें अपने शरीर पर प्रयोग करने दिये। मुझे बाह्य उपचारो से स्वस्थ होना अच्छा लगता था, सो भी बरफ अर्थात् पानी के। अतएव उन्होने मेरे सारे शरीर पर बरफ घिसनी शुरू की। इस इलाज से जितने परिणाम की आशा वे लगाये हुए थे , उतना परिणाम तो मेरे सम्बन्ध मे नही निकला। फिर भी मै , जो रोज मौत की राह देखा करता था , अब मरने के बदले कुछ जीने की आशा रखने लगा। मुझे कुछ उत्साह पैदा हुआ। मन के उत्साह के साथ मैने शरीर मे भी कुछ उत्साह का अनुभव किया। मै कुछ अधिक खाने लगा। रोज पाँच-दस मिनट धूमने लगा। अब उन्होने सुझाया , 'अगर आप अंड़े का रस पीये , तो आप मे जितनी शक्ति आयी है उससे अधिक शक्ति आने की गारंटी मै दे सकता हूँ। अंड़े दूध के समान ही निर्दोष है। वे माँस तो हरगिज नही है। हरएक अंड़े मे से बच्चा पैदा होता ही है , ऐसा कोई नियम नही है। जिनसे बच्चे पैदा होते ही नही ऐसे निर्जीव अंड़े भी काम मे लाये जाते है , इसे मै आपके सामने सिद्ध कर सकता हूँ।' पर मै ऐसे निर्जीव अंड़े लेने को भी तैयार न हुआ। फिर भी मेरी गाड़ी कुछ आगे बढ़ी और मै आसपास के कामो मे थोड़ा-थोड़ा रस लेने लगा।