काशी में
यह यात्रा कलकत्ते से राजकोट तक की थी। इसमें काशी, आगरा , जयपुर , पालनपुर और राजकोट जाना था। इतना देखने के बाद अधिक समय कहीँ देना संभव न था। हर जगह मै एक-एक दिन रहा था। पालनपुर के सिवा सब जगह मैं धर्मशाला मे अथवा यात्रियों की तरह पण्डो के घर ठहरा। जैसा कि मुझे याद हैं , इतनी यात्रा में गाड़ी-भाड़े के सहित मेरे कुल इकतीस रुपये खर्च हुए थे। तीसरे दर्जे की यात्रा में भी मैं अकसर डाकगाड़ी छोड़ देता था, क्योंकि मै जानता था कि उसमे अधिक भीड़ होती हैं। उसका किराया भी सवारी (पैसेन्जर) गाड़ी के तीसरे दर्जे के किराये से अधिक होता था। यह एक अड़चन तो थी ही।
तीसरे दर्जें के डिब्बो में गंदगी और पाखानो की बुरी हालत तो जैसी आज है, वैसी ही उस समय भी थी। आज शायद थोड़ा सुधार हो तो बात अलग हैं। पर पहले औऱ तीसरे दर्जे के बीच सुभीतो का फर्क मुझे किराये के फर्क से कहीं ज्यादा जान पड़ा। तीसरे दर्जे के यात्री भेड़-बकरी समझे जाते हैं और सुभीते के नाम पर उनको भेड-बकरियों के से डिब्बे मिलते हैं। यूरोप में तो मैने तीसरे ही दर्जे में यात्रा की थी। अनुभव की दृष्टि से एक बार पहले दर्जे में भी यात्रा की थी। वहाँ मैने पहले और तीसरे दर्जे के बीच यहाँ के जैसा फर्क नहीं देखा। दक्षिण अफ्रीका में तीसरे दर्जे के यात्री अधिकतर हब्शी ही होते है। लेकिन वहाँ के तीसरे दर्जे में भी यहाँ के तीसरे दर्जे से अधिक सुविधायें हैं। कुछ प्रदेशों में तो वहाँ तीसरे दर्जें में सोने की सुविधा भी रहती हैं और बैठके गद्दीदार होती हैं। हर खंड में बैठने वाले यात्रियों की संख्या की मर्यादा का ध्यान रखा जाती हैं। यहाँ तो तीसरे दर्जे मे संख्या की मर्यादा पाले जाने का मुझे कोई अनुभव ही नहीं हैं।
रेलवे-विभाग की ओर से होनेवाली इन असुविधाओं के अलावा यात्रियों की गन्दी आदतें सुधड़ यात्री के लिए तीसरे दर्जे की यात्रा को दंड-स्वरूप बना देती हैं। चाहे जहाँ थूकना, चाहे जहाँ कचरा डालना , चाहे जैसे और चाहे जब बीड़ी पीना, पान-तम्बाकू चबाना और जहाँ बैठे वहीं उसकी पिचकारियाँ छोड़ना , फर्श पर जूठन गिराना, चिल्ला-चिल्ला कर बाते करना, पास में बैठे हुए आदमी की सुख-सुविधा का विचार न करना और गन्दी बोली बोलना - यह तो सार्वत्रिक अनुभव हैं।
तीसरे दर्जे की यात्रा के अपने 1902 के अनुभव में और 1915 और 1919 तक के मेरे अनुभव दूसरी बार के ऐसे ही अखंड अनुभव में मैने बहुत अन्तर नहीं पाया। इस महाव्याधि का एक ही उपाय मेरी समझ में आया हैं, और वह यह कि शिक्षित समाज को तीसरे दर्जे मे ही यात्रा करनी चाहिये औऱ लोगो की आदतें सुधारने का प्रयत्न करना चाहियें। इसके अलावा, रेलवे विभाग के अधिकारियो को शिकायत कर करके परेशान कर डालना चाहिये, अपने लिए कोई सुविधा प्राप्त करने या प्राप्त सुविधा की रक्षा करने के लिए घूस-रिश्वत नहीं देनी चाहियें और उनके एक भी गैरकानूनी व्यवहार को बरदाश्त नहीं करना चाहिये।
मेरा यह अनुभव है कि ऐसा करने से बहुत कुछ सुधार हो सकता हैं। अपनी बीमारी के कारण मुझे सन् 1920 से तीसरे दर्जे की यात्रा लगभग बन्द कर देनी पड़ी हैं , इसका दुःख और लज्जा मुझे सदा बनी रहती हैं। और वह भी ऐसे अवसर पर बन्द करनी पड़ी, जब तीसरे दर्जे के यात्रियो की तकलीफो को दूर करने का काम कुछ ठिकाने लग रहा था। रेलो और जहाजों मे गरीब यात्रियों को भोगने पड़ते कष्टो मे होनेवाली वृद्धि , व्यापार के निमित्त से विदेशी व्यापार को सरकार की ओर से दी जाने वाली अनुचित सुविधाये आदि बाते इस समय हमारे लोक-जीवन की बिल्कुल अलग और महत्त्व की समस्या बन गयी हैं। अगर इसे हल करने में एक-दो चतुर और लगनवाले सज्जन अपना पूरा समय लगा दे , तो अधिक नहीं कहा जायेगा।
पर तीसरे दर्जे की यात्रा की इस चर्चा को अब यहीँ छोडकर मैं काशी के अनुभव पर आता हूँ। काशी स्टेशन पर मैं सबेरे उतरा। मुझे किसी पंडे के ही यहाँ उतरना था। कई ब्राह्मणों ने मुझे घेर लिया। उनमें से जो मुझे थोड़ा सुघड़ और सज्जन लगा, उसका घर मैने पसन्द किया। मेरा चुनाव अच्छा सिद्ध हुआ। ब्राह्मण के आँगन मे गाय बँधी थी। ऊपर एक कमरा था। उसमें मुझे ठहराया गया। मै विधि-पूर्वक गंगा-स्नान करना चाहता था। पंडे ने सब तैयारी की। मैने उससे कह रखा था कि मैं सवा रुपये से अधिक दक्षिणा नही दे सकूँगा , अतएव उसी के लायक तैयारी वह करे। पंडे ने बिना झगडे के मेरी बिनती स्वीकार कर ली। वह बोला, 'हम लोग अमीर-गरीब सब लोगो को पूजा तो एक सी ही कराते हैं। दक्षिणा यजमान की इच्छा और शक्ति पर निर्भर करती हैं।' मेरे ख्याल से पंड़ा जी मे पूजा-विधि मे कोई गड़बडी नही थी। लगभग बारह बजे इससे फुरसत पाकर मैं काशीविश्वनाथ के दर्शन करने गया। वहाँ जो कुछ देखा उससे मुझे दुःख ही हुआ।
सन् 1991 में जब मैं बम्बई मे वकालत करता था, तब एक बार प्रार्थना-समाज के मन्दिर मे 'काशी की यात्रा' विषय पर व्याख्यान सुना था। अतएव थोड़ी निराशा के लिए तो मैं पहले से तैयार ही था। पर वास्तव मे जो निराशा हुई, वह अपेक्षा से अधिक थी।
सकरी , फिसलनवाली गली मे से होकर जाना था। शान्ति का नाम भी नही था। मक्खियो की भिनभिनाहट और यात्रियों और दुकानदारों को कोलाहल मुझे असह्य प्रतीत हुआ।
जहाँ मनुष्य ध्यान और भगवत् चिन्तन की आशा रखता हैं , वहाँ उसे इनमे से कुछ भी नहीं मिलता ! यदि ध्यान की जरुरत हो तो वह अपने अन्तर में से पाना होगा। अवश्य ही मैने ऐसी श्रद्धालु बहनों को भी देखा , जिन्हें इस बात का बिल्कुल पता न था कि उनके आसपास क्या हो रहा है। वे केवल अपने ध्यान मे ही निमग्न थी। पर इस प्रबन्धकों का पुरुषार्थ नही माना जा सकता। काशी-विश्वनाथ के आसपास शान्त, निर्मल, सुगन्धित और स्वच्छ वातावरण - बाह्य एवं आन्तरिक - उत्पन्न करना और उसे बनाये रखना प्रबन्धको का कर्तव्य होना चाहिये। इसके बदले वहाँ मैने ठग दुकानदारो का बाजार देखा, जिसमे नये से नये ढंग की मिठाइयाँ और खिलोने बिकते थे।
मन्दिर मे पहुँचने पर दरवाजे के सामने बदबूदार सड़े हुए फुल मिले। अन्दर बढिया संगमरमर का फर्श था। पर किसी अन्ध श्रद्धालु ने उसे रुपयो से जडवाकर खराब कर डाला था और रुपयों मे मैल भर गया था।
मैं ज्ञानवापी के समीप गया। वहाँ मैने ईश्वर को खोजा, पर वह न मिला। इससे मै मन ही मन क्षुब्ध हो रहा था। ज्ञानवापी के आसपास भी गंदगी देखी। दक्षिणा के रुप मे कुछ चढाने की श्रद्धा नही थी। इसलिए मैने सचमुच ही एक पाई चढायी, जिससे पुजारी पंड़ाजी तमतमा उठे। उन्होंने पाई फैक दी। दो-चार गालियाँ देकर बोले, 'तू यो अपमान करेगा तो नरक मे पडेगा।'
मै शान्त रहा। मैने कहा , 'महाराज, मेरा तो जो होना होगा सो होगा, पर आपके मुँह मे गाली शोभ नहीं देती। यह पाई लेनी हो तो लीजिये, नहीं तो यह भी हाथ से जायेगी।'
'जा, तेरी पाई मुझे नही चाहिये, ' कह कर उन्होंने मुझे दो-चार और सुना दीं। मैं पाई लेकर चल दिया। मैने माना कि महाराज ने पाई खोयी और मैने बचायी। पर महाराज पाई खोनेवाले नहीं थे। उन्होने मुझे वापस बुलाया और कहा , 'अच्छा, धर दे। मै तेरे जैसा नहीं होना चाहता। मै न लूँ तो तेरा बुरा हो।'
मैने चुपचाप पाई दे दी और लम्बी साँस लेकर चल दिया। इसके बाद मैं दो बार औऱ काशी-विश्वनाथ के दर्शन कर चुका हूँ , पर वह तो 'महात्मा' बनने के बाद। अतएव 1902 के अनुभव तो फिर कहाँ से पाता ! मेरा 'दर्शन' करनेवाले लोग मुझे दर्शन क्यो करने देते ? 'महात्मा' के दुःख तो मेरे जैस 'महात्मा' ही जानते हैं। अलबत्ता, गन्दगी औऱ कोलाहल तो मैने पहले के जैसा ही पाया।
किसी को भगवान की दया के विषय मे शंका हो , तो उसे ऐसे तीर्थक्षेत्र देखने चाहिये। वह महायोगी अपने नाम पर कितना ढोग, अधर्म , पाखंड इत्यादि सहन करता हैं ? उसने तो कह रखा हैं :
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
अर्थात् 'जैसी करनी वैसी भरनी। ' कर्म को मिथ्या कौन कर सकता हैं ? फिर भगवान को बीच मे पड़ने की जरुरत ही क्या है? वह तो अपने कानून बनाकर निवृत्त-सा हो गया हैं।
यह अनुभव लेकर मैं मिसेज बेसेंट के दर्शन करने गया। मै जानता था कि वे हाल ही बीमारी से उठी हैं। मैने अपना नाम भेजा। वे तुरन्त आयी। मुझे तो दर्शन ही करने थे, अतएव मैने कहा, 'मुझे आपके दुर्बल स्वास्थ्य का पता हैं। मै तो सिर्फ आपके दर्शन करने आया हूँ। दुर्बल स्वास्थ्य के रहते भी आपने मुझे मिलने की अनुमति दी, इसी से मुझे संतोष हैं। मै आपका अधिक समय नहीं लेना चाहता। '
यह कहकर मैने बिदा ली।