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लक्षमण झूला

जब मै पहाड़ से दीखने वाले महात्मा मुंशीराम जी के दर्शन करने और उनका गुरुकुल देखने गया , तो मुझे वहाँ बड़ी शांति मिली। हरिद्वार के कोलाहल और गुरुकुल की शांति के बीच का भेद स्पष्ट दिखायी देता था। महात्मा ने मुझे अपने प्रेम से नहला दिया। ब्रह्मचारी मेरे पास से हटते ही न थे। रामदेवजी से भी उसी समय मुलाकात हुई और उनकी शक्ति का परिचय मै तुरन्त पा गया। यद्यपि हमे अपने बीच कुछ मतभेद का अनुभव हुआ , फिर भी हम परस्पर स्नेह की गाँठ से बँध गये। गुरुकुल मे औद्योगिक शिक्षा शुरु करने की आवश्यकता के बारे मै रामदेव और दूसरे शिक्षकों के साथ मैने काफी चर्चा की। मुझे गुरुकुल छोड़ते हुए दुःख हुआ।

मैने लछमन झूले की तारीफ बहुत सुनी थी। बहुतो ने मुझे सलाह दी कि ऋषिकेश गये बिना मै हरिद्वार न छोडूँ। मुझे वहाँ पैदल जाना था। इसलिए एक मंजिल ऋषिकेश की ओर दूसरी लछमन झूले की थी।

ऋषिकेश में अनेक संन्यासी मुझ से मिलने आये थे। उनमे से एक को मेरे जीवन में बड़ी दिलचस्पी पैदा हुई। फीनिक्स मंडल मेरे साथ था। उन सबको देखकर उन्होंने अनेक प्रश्न पूछे। हमारे बीच धर्म की चर्चा हुई। उन्होंने देखा कि मुझमे धर्म की तीव्र भावना है। मैं गंगा स्नान करके आया था , इसलिए शरीर खुला था। मेरे सिर पर न शिखा और जनेऊ न देखकर उन्हें दुःख हुआ और उन्होंने मुझ से कहा , 'आप आस्तिक होते हुए भी जनेऊ और शिखा नही रखते है , इससे हमारे समान लोगो को दुःख होता है। ये दो हिन्दू धर्म की बाह्य संज्ञाये है और प्रत्येक हिन्दू को इन्हें धारण करना चाहिये।'

लगभग दस साल की उमर मे पोरबन्दर मे ब्राह्मणो के जनेऊ मे बँधी हुई चाबियो की झंकार सुनकर मुझे उनसे ईर्ष्या होती थी। मै सोचा करता था कि झंकार करने वाली कुंजियाँ करने वाली कुंजियाँ जनेऊ मे बाँधकर मै भी धूमूँ तो कितना अच्छा हो ! उन दिनो काठियावाड के वैश्य परिवारो मे जनेऊ पहनने का रिवाज नही था। पर पहले तीन वर्णो को जनेऊ पहनना चाहिये, इस आशय का नया प्रचार चल रहा था। उसके फलस्वरूप गाँधी कुटुम्ब के कुछ क्यक्ति जनेऊ पहनने लगे थे। जो ब्राह्मण हम दो तीन भाइयो को रामरक्षा का पाठ सिखाते थे, उन्होंने हमें जनेऊ पहनाया और अपने पास कुंजी रखने का कोई कारण न होते हुए भी मैने दो तीन कुंजियाँ उसमे लटका लीं। जनेऊ के टूट जाने पर उसका मोह उतर गया था या नही, सो तो याद नही है। पर मैने नया जनेऊ नहीं पहना।

बड़ी उमर होने पर हिन्दुस्तान और दक्षिण अफ्रीका मे भी दूसरो ने मुझे जनेऊ पहनाने का प्रयत्न किया था, पर मेरे ऊपर दलीलो का कोई असर न हुआ था। यदि शुद्र जनेऊ न पहन सकें तो दूसरे वर्ण क्यो पहने ? जिस बाह्य वस्तु की प्रथा हमारे कुटुम्ब मे नही थी, उसे आरंभ करने का मुझे एक भी सबल कारण नही मिला था। मेरा जनेऊ पहनने से कोई विरोध नही था, परन्तु उसे पहनने का कोई कारण नही दिखाई देता था। वैष्णव होने के कारण मै कंठी पहनता था। शिखा तो गुरूजन हम भाइयो के सिर पर रखवाते ही थे। पर विलायत जाने के समय मैने इस शरम के मारे शिखा कटा दी थी कि वहाँ सिर खुला रखना होगा , गोरे शिखा को देखकर हँसेगे और मुझे जंगली समझेगे। मेरे साथ रहनेवाले मेरे भतीजे छगनलाल गाँधी दक्षिण अफ्रीका मे बड़ी श्रद्धा से शिखा रखते थे। यह शिखा उनके सार्वजनिक काम मे बाधक होगी, इस भ्रम के कारण मैने उसका मन दुखाकर भी उसे कटवा दिया था। यों शिखा रखने मे मुझे शरम लगती थी।

मैने स्वामीजी को उपर्युक्त बाते कह सुनायी और कहा , 'मै जनेऊ तो धारण नही करुँगा। जिसे न पहनते हुए भी असंख्य हिन्दू हिन्दू माने जाते है , उसे पहनने की मै अपने लिए कोई जरूरत नही देखता। फिर, जनेऊ धारण करने का अर्थ है दुसरा जन्म लेगा , अर्थात् स्वयं संकल्प-पूर्वक शुद्ध बनना , ऊर्ध्वगामी बनना। आजकल हिन्दू समाज और हिन्दुस्तान दोनो गिरी हालत मे है। उसमे जनेऊ धारण करने का हमे अधिकार ही कहाँ है ? हिन्दू समाज को जनेऊ का अधिकार तभी हो सकता है , जब वह अस्पृश्यता का मैल धो डाले, ऊँच-नीच की बात भूल जाये, जड़ जमाये हुए दूसरे दोषो को दूर करे और चारो ओर फैले हुए अधर्म तथा पाखंड का अन्त कर दे। इसलिए जनेऊ धारण करने की आपकी बात मेरे गले नही उतरती। किन्तु शिखा के संबंध मे आपकी बात मुझे अवश्य सोचनी होगी। शिखा तो मै रखता था। लेकिन उसे मैने शरम और डर के मारे ही कटा डाला है। मुझे लगता है कि शिखा धारण करनी चाहिये। मै इस सम्बन्ध मे अपने साथियो से चर्चा करूँगा। '

स्वामीजी को जनेऊ के बारे मे मेरी दलील अच्छी नही लगी। जो कारण मैने न पहनने के लिए दिये, वे उन्हें पहनने के पक्ष मे दिखायी पड़े। जनेऊ के विषय मे ऋषिकेश मे मैने जा विचार प्रकट किये थे, वे आज भी लगभग उसी रूप मे कायम है। जब तक अलग-अलग धर्म मौजूद है, तब तक प्रत्येक धर्म को किसी विशेष बाह्य चिह्न की आवश्यकता हो सकती है। लेकिन जब बाह्य संज्ञा केवल आडम्बर बन जाती है अथवा अपने धर्म को दूसरे धर्म से अलग बताने के काम आती है , तब वह त्याज्य हो जाती है। मै नही मानता कि आजकल जनेऊ हिन्दू धर्म को ऊपर उठाने का साधन है। इसलिए उसके विषय मे मै तटस्थ हूँ।

शिखा का त्याग स्वयं मेरे लिए लज्जा का कारण था। इसलिए साथियो से चर्चा करके मैने उसे धारण करने का निश्चय किया। पर अब हमे लछमन झूले की ओर चलना चाहिये।

ऋषिकेश और लछमन झूले के प्राकृतिक दृश्य मुझे बहुत भले लगे। प्राकृतिक कला को पहचानने की पूर्वजो की शक्ति के विषय मे और कला को धार्मिक स्वरूप देने की उनकी दीर्धदृष्टि के विषय मे मैने मन-ही-मन अत्यन्त आदर का अनुभव किया।

किन्तु मनुष्य की कृति से चित को शांति नही मिली। हरिद्वार की तरह ऋषिकेश मे भी लोग रास्तो को और गंगा के सुन्दर किनारो को गन्दा कर देते थे। गंगा के पवित्र जल को दूषित करने मे भी उन्हे किसी प्रकार का संकोच न होता था। पाखाने जानेवाले दूर जाने के बदले जहाँ लोगो की आमद-रफ्त होती , वही हाजत रफा करने बैठ जाते थे। यह देखकर हृदय को बहुत आधात पहुँचा।

लछमन झूला जाने हुए लोहे का झूलता पुल देखा। लोगो से सुना कि यह पुल पहले रस्सियो का था और बहुत मजबूत था। उसे तोड़कर एक उदार-हृदय मारवाड़ी सज्जन मे बडा दान देकर लोहे का पुल बनवा दिया और उसकी चाबी सरकार को सौप दी।

रस्सियो को पुल की मुझे कोई कल्पना नही है , पर लोहे का पुल प्राकृतिक वातावरण को कलुषित कर रहा था और अप्रिय मालूम होता था। यात्रियो ने इस रास्ते की चाबी सरकार को सौप दी , यह चीज मेरी उस समय की वफादारी को भी असह्य लगी।

वहाँ से भी अधिक दुःखद दृश्य स्वर्गाश्रम का था। टीन की चादरो की तबेले जैसी कोठरियो को स्वार्गश्रम का नाम दिया था। मुझे बतलाया गया कि ये साधको के लिए बनवायी गयी थी। उस समय उनमे शायद ही कोई साधक रहता था। उनके पास बने हुए मुख्य भवन मे रहनेवालो ने भी मुझ पर अच्छा असर न डाला।

पर हरिद्वार के अनुभव मेरे लिए अमूल्य सिद्ध हुए। मुझे कहाँ बसना और क्या करना चाहिये , इसका निश्चय करने मे हरिद्वार के अनुभवो ने मेरी बड़ी मदद की।

सत्य के प्रयोग

महात्मा गांधी
Chapters
बाल-विवाह बचपन जन्म प्रस्तावना पतित्व हाईस्कूल में दुखद प्रसंग-1 दुखद प्रसंग-2 चोरी और प्रायश्चित पिता की मृत्यु और मेरी दोहरी शरम धर्म की झांकी विलायत की तैयारी जाति से बाहर आखिर विलायत पहुँचा मेरी पसंद 'सभ्य' पोशाक में फेरफार खुराक के प्रयोग लज्जाशीलता मेरी ढाल असत्यरुपी विष धर्मों का परिचय निर्बल के बल राम नारायण हेमचंद्र महाप्रदर्शनी बैरिस्टर तो बने लेकिन आगे क्या? मेरी परेशानी रायचंदभाई संसार-प्रवेश पहला मुकदमा पहला आघात दक्षिण अफ्रीका की तैयारी नेटाल पहुँचा अनुभवों की बानगी प्रिटोरिया जाते हुए अधिक परेशानी प्रिटोरिया में पहला दिन ईसाइयों से संपर्क हिन्दुस्तानियों से परिचय कुलीनपन का अनुभव मुकदमे की तैयारी धार्मिक मन्थन को जाने कल की नेटाल में बस गया रंग-भेद नेटाल इंडियन कांग्रेस बालासुंदरम् तीन पाउंड का कर धर्म-निरीक्षण घर की व्यवस्था देश की ओर हिन्दुस्तान में राजनिष्ठा और शुश्रूषा बम्बई में सभा पूना में जल्दी लौटिए तूफ़ान की आगाही तूफ़ान कसौटी शान्ति बच्चों की सेवा सेवावृत्ति ब्रह्मचर्य-1 ब्रह्मचर्य-2 सादगी बोअर-युद्ध सफाई आन्दोलन और अकाल-कोष देश-गमन देश में क्लर्क और बैरा कांग्रेस में लार्ड कर्जन का दरबार गोखले के साथ एक महीना-1 गोखले के साथ एक महीना-2 गोखले के साथ एक महीना-3 काशी में बम्बई में स्थिर हुआ? धर्म-संकट फिर दक्षिण अफ्रीका में किया-कराया चौपट? एशियाई विभाग की नवाबशाही कड़वा घूंट पिया बढ़ती हुई त्यागवृति निरीक्षण का परिणाम निरामिषाहार के लिए बलिदान मिट्टी और पानी के प्रयोग एक सावधानी बलवान से भिड़ंत एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित अंग्रेजों का गाढ़ परिचय अंग्रेजों से परिचय इंडियन ओपीनियन कुली-लोकेशन अर्थात् भंगी-बस्ती? महामारी-1 महामारी-2 लोकेशन की होली एक पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव फीनिक्स की स्थापना पहली रात पोलाक कूद पड़े जाको राखे साइयां घर में परिवर्तन और बालशिक्षा जुलू-विद्रोह हृदय-मंथन सत्याग्रह की उत्पत्ति आहार के अधिक प्रयोग पत्नी की दृढ़ता घर में सत्याग्रह संयम की ओर उपवास शिक्षक के रुप में अक्षर-ज्ञान आत्मिक शिक्षा भले-बुरे का मिश्रण प्रायश्चित-रुप उपवास गोखले से मिलन लड़ाई में हिस्सा धर्म की समस्या छोटा-सा सत्याग्रह गोखले की उदारता दर्द के लिए क्या किया ? रवानगी वकालत के कुछ स्मरण चालाकी? मुवक्किल साथी बन गये मुवक्किल जेल से कैसे बचा ? पहला अनुभव गोखले के साथ पूना में क्या वह धमकी थी? शान्तिनिकेतन तीसरे दर्जे की विडम्बना मेरा प्रयत्न कुंभमेला लक्षमण झूला आश्रम की स्थापना कसौटी पर चढ़े गिरमिट की प्रथा नील का दाग बिहारी की सरलता अंहिसा देवी का साक्षात्कार ? मुकदमा वापस लिया गया कार्य-पद्धति साथी ग्राम-प्रवेश उजला पहलू मजदूरों के सम्पर्क में आश्रम की झांकी उपवास (भाग-५ का अध्याय) खेड़ा-सत्याग्रह 'प्याज़चोर' खेड़ा की लड़ाई का अंत एकता की रट रंगरूटों की भरती मृत्यु-शय्या पर रौलट एक्ट और मेरा धर्म-संकट वह अद्भूत दृश्य! वह सप्ताह!-1 वह सप्ताह!-2 'पहाड़-जैसी भूल' 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' पंजाब में खिलाफ़त के बदले गोरक्षा? अमृतसर की कांग्रेस कांग्रेस में प्रवेश खादी का जन्म चरखा मिला! एक संवाद असहयोग का प्रवाह नागपुर में पूर्णाहुति