धर्म-संकट
मैने जैसे दफ्तर किराये पर लिया, वैसे ही गिरगाँव मे घर भी लिया। पर ईश्वर ने मुझे स्थिर न होने दिया। घर लिये अधिक दिन नही हुए थे कि इतने मे मेरा दूसरा लड़का बहुत बीमार हो गया। उसे कालज्वर मे जकड़ लिया। ज्वर उतरता न था। बेचैनी भी थी। फिर रात मे सन्निपात के लक्षण भी दिखायी पड़े। इस बीमारी के पहले बचपन मे उसे चेचक भी बहुत जोर की निकल चुकी थी।
मैने डॉक्टर की सलाह ली। उन्होंने कहा, 'इसके लिए दवा बहुत कम उपयोगी होगी। इसे तो अंडे और मुर्गी का शोरवा देने की जरुरत हैं।'
मणिलाल की उमर दस साल की थी। उससे मै क्या पूछता ? अभिभावक होने के नाते निर्णय तो मुझी को करना था। डॉक्टर एक बहुत भले पारसी थे। मैने कहा, 'डॉक्टर, हम सब अन्नाहारी है। मेरी इच्छा अपने लड़के को इन दो मे से एक भी चीज देने की कोई उपाय नही बताइयेगा ?'
डॉक्टर बोले, 'आपके लड़के के प्राण संकट मे हैं। दूध और पानी मिलाकर दिया जा सकता हैं , पर इससे उसे पूरा पोषण नही मिल सकेगा। जैसा कि आप जानते हैं, मै बहुतेरे हिन्दू कुटुम्बो मे जाता हूँ। पर दवा के नाम पर तो हम उन्हे जो चीज दें, वे ले लेते हैं। मैं सोचता हूँ कि आप अपने लड़के पर ऐसी सख्ती न करे तो अच्छा हो।'
'आप कहते है, सो ठीक हैं। आपको यही कहना भी चाहिये। मेरी जिम्मेदारी बहुत बड़ी हैं। लड़का बड़ा होता तो मै अवश्य ही उसकी इच्छा जानने का प्रयत्न करता और वह जो चाहता उसे करने देता। यहाँ तो मुझे ही इस बालक के बारे मे निर्णय करना हैं। मेरा ख्याल हैं कि मनुष्य के धर्म की परीक्षा ऐसे ही समय होती हैं। सही हो या गलत, पर मैने यह धर्म माना है कि मनुष्यो के माँसादि न खाना चाहिये। जीवन के साधनों की भी सीमा होती हैं। कुछ बाते ऐसी है , जो जीने के लिए भी हगे नहीं करनी चाहिये। मेरे धर्म की मर्यादा मुझे अपने लिए और अपने परिवार वालो के लिए ऐसे समय भी माँस इत्यादि का उपयोग करने से रोकती हैं। इसलिए मुझे वह जोखिम उठानी ही होगी, जिसकी आप कल्पना करते है। पर आपसे में एक चीज माँग लेता हूँ। आपका उपचार तो मैं नहीं करूँगा, किन्तु मुझे इस बच्चे की छाती , नाडी इत्यादि देखना नही आता। मुझे पानी के उपचारो का थोड़ा ज्ञान हैं। मैं उन उपचारो को आजमाना चाहता हूँ। पर यदि आप बीच-बीच मे मणिलाल की तबीयत देखने आते रहेंगे और उसके शरीर मे होने वाले फेरफारो की जानकारी मुझे देते रहेंगे तो मैं आपका उपकार मानूँगा।'
सज्जन डॉक्टर ने मेरी कठिनाई समझ ली और मेरी प्रार्थना के अनुसार मणिलाल को देखने आना कबूल कर लिया।
यद्यपि मणिलाल स्वयं निर्णय करने की स्थिति में नही था, फिर भी मैने उसे डॉक्टर के साथ हुई चर्चा सुना दी और उससे कहा कि वह अपनी राय बताये।
'आप खुशी से पानी के उपचार कीजिये। मुझे न शोरवा पीना है , और न अंडे खाने हैं।'
इस कथन से मैं खुश हुआ, यद्यपि मै समझता था कि मैने उसे ये दोनो चीजे खिलायी होती तो वह खा भी लेता।
मै लुई कूने के उपचार जानता था। उसके प्रयोग भी मैने किये थे। मै यह भी जानता था कि बीमारी मे उपवास का बड़ा स्थान हैं। मैने मणिलाल को कूने की रीति से कटिस्नान कराना शुरु किया। मै उसे तीन मिनट से ज्यादा टब मे नहीं रखता था। तीन दिन तक उसे केवल पानी मिलाये हुए संतरे के रस पर रखा।
बुखार उतरता न था। रात भर अंट संट बकता था। तापमान 104 डिग्री तक जाता था। मै घबराया। यदि बालक को खो बैठा तो दुनिया मुझे क्या कहेगी ? बड़े भाई क्या कहेंगे ? दूसरे डॉक्टर को क्यो न बुलाया जाय ? बैद्य को क्यो न बुलाया जाय? अपनी ज्ञानहीन बुद्धि लड़ाने का माता-पिता को क्या अधिकार हैं ?
एक ओर ऐसे विचार आते थे , तो दूसरी ओर इस तरह के विचार भी आते थे , 'हे जीव ! तू जो अपने लिए करता , वहीं लड़के के लिए भी करे , तो परमेश्वर को संतोष होगा। तुझे पानी के उपचार पर श्रद्धा है, दवा पर नही। डॉक्टर रोगी को प्राणदान नही देता। वह भी तो प्रयोग ही करता है। जीवन की डोर तो एक ईश्वर के हाथ मे हैं। ईश्वर का नाम लेकर , उस पर श्रद्धा रख तक, तू अपना मार्ग मत छोड़।'
मन मे इस तरह का मन्थन चल रहा था। रात पड़ी। मैं मणिलाल को बगल मे लेकर सोया था। मैंने उसे भिगोकर निचोयी हुई चादर मे लपेटने का निश्चय किया। उसे ठंड़े पानी मे भिगोया। निचोया। उसमे उसे सिर से पैर तक लपेट दिया। ऊपर से दो कम्बल औढा दिये। सर पर गीला तौलिया रखा। बुखार से शरीर तवे की तरह तप रहा था और बिल्कुल सूखा था। पसीना आता न था।
मैं बहुत थक गया था। मणिलाल को उसकी माँ के जिम्मे करके मैं आधे घंटे के लिए चौपाटी पर चला गया। थोड़ी हवा खाकर ताजा होने और शान्ति प्राप्ति करने के लिए रात के करीब दस बजे होगे। लोगो का आना जाना कम हो गया था। मुझे बहुत कम होश था। मै विचार सागर मे गोते लगा रहा था। हे ईश्वर ! इस धर्म-संकट मे तू मेरी लाज रखना। 'राम राम ' की रटन तो मुँह मे थी ही। थोड़े चक्कर लगाकर धड़कती छाती से वापस आया। घर मे पैर रखते ही मणिलाल ने मुझे पुकारा , 'बाबू, आप आ गये ?'
'हाँ, भाई।'
'मुझे अब इसमे से निकालिये न ? मै जला जा रहा हूँ।'
'क्यो , क्या पसीना छूट रहा है ?'
'मै तो भीग गया हूँ। अब मुझे निकालिये न, बापूजी !'
मैने मणिलाल का माथा देखा। माथे पर पसीने की बूंदें दिखाई दी। बुखार कम हो रहा था। मैने ईश्वर का आभार माना।
'मणिलाल, अब तुम्हारा बुखार चला जायगा। अभी थोड़ा और पसीना नही आने दोगे ?'
'नहीं बापू ! अब तो मुझे निकाल लीजिये। फिर दुबारा और लपेटना हो तो लपेट दीजियेगा।'
मुझे धीरज आ गया था , इसलिए उसे बातो मे उलझा कर कुछ मिनट और निकाल दिये। उसके माथे से पसीने की धाराये बह चली। मैंने चादर खोली , शरीर पोंछा और बाप-बेटे साथ सो गये। दोनो ने गहरी नींद ली।
सवेरे मणिलाल का बुखार हलका हो गया था। दूध और पानी तथा फलो के रस पर वह चालीस दिन रहा। मैं निर्भय हो चुका था। ज्वर हठीला था , पर वश में आ गया था। आज मेरे सब लड़को मे मणिलाल का शरीर सबसे अधिक सशक्त हैं।
मणिलाल का नीरोग होना राम की देन हैं, अथवा पानी के उपचार की , अल्पाहार की और सार-संभाल की, इसका निर्णय कौन कर सकता है ? सब अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार जैसा चाहे, करें। मैने तो यह जाना कि ईश्वर ने मेरी लाज रखी, और आज भी मैं यही मानता हूँ।