रवानगी
मि. केलनबैक हिन्दुस्तान जाने के निश्चय से हमारे साथ निकले थे। विलायत मे हम साथ ही रहते थे। पर लड़ाई के कारण जर्मनो पर कड़ी नजर रखी जाती थी, इससे केलनबैक के साथ आ सकने के विषय मे हम सब को सन्देह था। उनके लिए पासपोर्ट प्राप्त करने का मैने बहुत किया। मि. रॉबर्टसे स्वयं उनके लिए पासपोर्ट प्राप्त करा देने के लिए तैयार थे। उन्होने सारी हकीकत का तार वाइसरॉय के नाम भेजा , पर लार्ड हार्डिग का सीधा औऱ दो टूक उत्तर मिला , 'हमे खेद है। लेकिन इस समय ऐसा कोई खतरा उठाने के लिए हम तैयार नही है।' हम सब इस उत्तर के औचित्य को समझ गये। केलनबैक के वियोग का दुःख मुझे तो हुआ ही, पर मैने देखा कि मुझसे अधिक दुःख उन्हे हुआ। वे हिन्दुस्तान आ सके होते , तो आज एक सुन्दर किसान और बुनकर का सादा जीवन बिताते होते। अब वे दक्षिण अफ्रीका मे अपना पहले का जीवन बिता रहे है और गृह निर्माण कला को अपना धंधा धडल्ले से चला रहे है।
हमने तीसरे दर्जे के टिकट लेने का प्रयत्न किया , पर पी. एंड ओ. जहाज मे तीसरे दर्जे के टिकट नही मिलते। अतएव दूसरे दर्जे के लेने पड़े। दक्षिण अफ्रीका से साथ बाँध कर लाया हुआ कुछ फलाहार , जो जहाजो मे मिल ही नही सकता था, साथ ले लिया। दूसरी चीजे तो जहाज मे मिल सकती थी।
डॉ. मेहता ने मेरे शरीर को मीड्ज प्लास्टर की पट्टी से बाँध दिया था और सलाह दी थी कि मै यह पट्टी बँधी रहने दूँ। दो दिन तक तो मैने उसे सहन किया , लेकिन बाद मे सहन न कर सका। अतएव थोड़ी मेहनत से पट्टी उतार डाली और नहाने-धोने की आजादी हासिल की। खाने मे मुख्यतः सूखे और गीले मेवे को ही स्थान दिया। मेरी तबीयत दिन-प्रतिदिन सुधरती गयी और स्वेज की खाड़ी मे पहुँचते पहुँचते तो बहुत अच्छी हो गयी। शरीर दुर्बल था, फिर भी मेरा डर चला गया और मै धीरे धीरे रोज थोडी कसरत बढ़ाता गया। मैने माना कि यह शुभ परिवर्तन केवल शुद्ध समशीतोष्ण हवा के कारण ही हुआ था।
पुराने अनुभवो के कारण हो या अन्य किसी कारण से हो, पर बात यह थी कि अंग्रेज यात्रियो और हम लोगो के बीच मैने मैने जो अन्तर यहाँ देखा, वह दक्षिण अफ्रीका से आते हुए भी नही देखा था। अन्तर तो वहाँ भी था , पर यहाँ उससे कुछ भिन्न प्रकार का मालूम हुआ। किसी किसी अंग्रेज के साथ मेरी बाच होती थी, किन्तु वे 'साहब सलाम' तक ही सीमित रहती थी। हृदय की भेट किसी से नही हुई। दक्षिण अफ्रीका के जहाजो मे और दक्षिण अफ्रीका मे हृदय की भेटे हो सकी थी। इस भेद का कारण मैने तो यही समझा कि इन जहाजो पर अंग्रेज के मन मे जाने अनजाने यह ज्ञान काम कर रहा था कि 'मै शासक हूँ' और हिन्दुस्तानी के मन मे यह ज्ञान काम कर रहा था कि 'मै विदेशी शासन के अधीन हूँ।'
मै ऐसे वातावरण से जल्दी छूटने और स्वदेश पहुँचने के लिए आतुर हो रहा था। अदन पहुँचने पर कुछ हद तक घर पहुँच जाने जैसा लगा। अदनवालो के साथ हमारा खास सम्बन्ध दक्षिण अफ्रीका मे ही हो गया था , क्योकि भाई कैकोबाद काबसजी दीनशा डरबन आ चुके थे और उनसे तथा उनकी पत्नी से मेरा अच्छा परिचय हो चुका था।
कुछ ही दिनो मे हम बम्बई पहुँचे। जिस देश मे मै सन् 1905 मे वापस आने की आशा रखता था, उसमे दस बरस बाद तो वापस आ सका , यह सोचकर मुझे बहुत आनन्द हुआ। बम्बई मे गोखले ने स्वागत-सम्मेलन आदि की व्यवस्था कर ही रखी थी। उनका स्वास्थ्य नाजुक था, फिर भी वे बम्बई आ पहुँचे थे। मै इस उमंग के साथ बम्बई पहँचा था कि उनसे मिलकर और अपने को उनके जीवन मे समाकर मै अपना भार उतार डालूँगा। किन्तु विधाता ने कुछ दूसरी ही रचना कर रखी थी।