देश-गमन
लड़ाई के काम मुक्त होने के बाद मैने अनुभव किया कि अब मेरा काम दक्षिण अफ्रीका मे नही , बल्कि हिन्दुस्तानी मे हैं। मैने देखा कि दक्षिण अफ्रीका मे बैठा-बैठा मै कुछ सेवा तो अवश्य कर सकूँगा , पर वहाँ मेरा मुख्य धन्धा धन कमाना ही हो जायगा।
देश का मित्रवर्ग भी देश लौट आने के लिए बराबर आग्रह करता रहता था। मुझे भी लगा कि देश जाने से मेरा उपयोग अधिक हो सकेगा। नेटाल मे मि. खान और मनसुखलाल नाजर थे ही।
मैने साथियो के सामने मुक्त होने की इच्छा प्रकट की। बड़ी कठिनाई से एक शर्त के साथ वह स्वीकृत हुई। शर्त यह कि यदि एक वर्ष के अन्दर कौम को मेरी आवश्यकता मालूम हुई, तो मुझे वापस दक्षिण अफ्रीका पहुँचना होगा। मुझे यह शर्त कड़ी लगी , पर मै प्रेमपाश मे बँधा हुआ था :
काचे रे तांतणे मने हरजीए बाँधी , जेम ताणे तेम तेमनी रे, मने लागी कटारी प्रेमनी।
(हरिजी ने मुझे कच्चे -- प्रेम के -- घागे से बाँध रखा हैं। वे ज्यो-ज्यो उसे खीचते हैं त्यो-त्यो मै उनकी होती जाती हूँ। मुझे प्रेम की कटारी लगी हैं।)
मीराबाई की यह उपमा थोड़े-बहुत अंशो में मुझ पर घटित हो रही हैं। पंच भी परमेश्वर ही हैं। मित्रों की बात को मैं ठुकरा नहीं सकता था। मैने वचन दिया और उनकी अनुमति प्राप्त की।
कहना होगा कि इस समय मेरा निकट सम्बन्ध नेटाल के साथ ही था। नेटाल के हिन्दुस्तानियो ने मुझे प्रेमामृत से नहला दिया। जगह-जगह मानपत्र समर्पण की सभाये हुई और हर जगह से कीमती भेटे मिली।
सन् 1896 मे जब मै देश आया था, तब भी भेट मिली थी। पर इस बार की भेटो से और सभाओ के दृश्य से मै अकुला उठा। भेंटों मे सोने-चाँदी की चीजे तो थी ही , पर हीरे की चीजें भी थी।
इन सब चीजों को स्वीकार करने का मुझे क्या अधिकार था ? यदि मैं उन्हें स्वीकार करता तो अपने मन को यह कैसे समझता कि कौम की सेवा मैं पैसे लेकर नही करता ? इन भेटों मे से मुवक्किलो की दी हुई थोड़ी चीजो को छोड़ दे, तो बाकी सब मेरी सार्वजनिक सेवा के निमित्त से ही मिली थी। फिर , मेरे मन में तो मुवक्किलो और दूसरे साथियो के बीच कोई भेद नही था। खास-खास सभी मुवक्किल सार्वजनिक कामो मे भी मदद देनेवाले थे।
साथ ही , इन भेटों मे से पचास गिन्नियो का एक हार कस्तूरबाई के लिए था। पर वह वस्तु भी मेरी सेवा के कारण ही मिली थी। इसलिए वह दूसरी भेटों से अलग नही की जा सकती थी।
जिस शाम को इनमें से मुख्य भेटे मिली थी, वह रात मैने पागल की तरह जागकर बितायी। मै अपने कमरे मे चक्कर काटता रहा, पर उलझन किसी तरह सुलझती न थी। सैकड़ो की कीमत के उपहारो को छोडना कठिन मालूम होता था , रखना उससे भी अधिक कठिन लगता था।
मन प्रश्न करता, मै शायद भेटों को पचा पाऊँ, पर मेरे बच्चो का क्या होगा ? स्त्री का क्या होगा ? उन्हे शिक्षा तो सेवा की मिलती थी। उन्हें हमेशा समझाया जाता था कि सेवा के दाम नहीं लिये जा सकते। मै घर मे कीमती गहने वगैरा रखता नही था। सादगी बढती जा रही थी। ऐसी स्थिति मे सोने की जंजीर और हीरे की अंगूठियाँ कौन पहनता ? मै उस समय भी गहनो-गाँठो का मोह छोड़ने का उपदेश औरो को दिया करता था। अब इन गहनो और जवाहरात का मै क्या करता ?
मै इस निर्णय पर पहुँचा कि मुझे ये चीजे रखनी ही नही चाहिये। पारसी रुस्तमजी आदि को इन गहनो का ट्रस्टी नियुक्त करके उनके नाम लिखे जाने वाले पत्र का मसविदा मैने तैयार किया , और सबेरे स्त्री-पुत्रादि से सलाह करके अपना बोझ हलका करने का निश्चय किया।
मै जानता था कि धर्मपत्नी को समझाना कठिन होगा। बच्चो को समझाने मे जरा भी कठिनाई नही होगी, इसका मुझे विश्वास था। अतः उन्हे इस मामले मे वकील बनाने का मैने निश्चय किया।
लड़के तो तुरन्त समझ गये। उन्होने कहा, 'हमें इन गहनो की आवश्यकता नही हैं। हमे ये सब लौटा ही देने चाहिये। और जीवन मे कभी हमे इन वस्तुओ की आवश्यकता हुई तो क्या हम स्वयं न खरीद सकेगे ?'
मै खुश हुआ। मैने पूछा, 'तो तुम अपनी माँ को समझाओगे न ?'
'जरुर, जरुर। यह काम हमारा समझिये। उसे कौन ये गहने पहनने है ? वह तो हमारे लिए ही रखना चाहती हैं। हमें उनकी जरुरत नहीं हैं, फिर वह हठ क्यो करेगी?'
पर काम जितना सोचा था उससे अधिक कठिन सिद्ध हुआ।
'भले आपको जरुरत न हो और आपके लड़को को भी न हो। बच्चो को तो जिस रास्ते लगा दो, उसी रास्ते वे लग जाते हैं। भले मुझे न पहनने दे, पर मेरी बहुओ का क्या होगा ? उनके तो ये चीजे काम आयेगी न ? और कौन जानता है कल क्या होगा ? इतने प्रेम से दी गयी चीजे वापस नही दी जा सकती।' पत्नी की वाग्धारा चली और उसके साथ अश्रुधारा मिल गयी। बच्चे ढृढ़ रहे। मुझे तो डिगना था ही नही।
मैने धीरे से कहा, 'लड़को का ब्याह तो होने दो। हमे कौन उन्हें बचपन मे ब्याहना है ? बड़े होने पर तो ये स्वयं ही जो करना चाहेगे, करेगे। और हमे कहाँ गहनो की शौकिन बहुएँ खोजनी हैं ? इतने पर भी कुछ कराना ही पड़ा , तो मैं कहाँ चला जाऊँगा ?'
'जानती हूँ आपको। मेरे गहने भी तो आपने ही ले लिये न ? जिन्होने मुझे सुख से न पहनने दिये , वह मेरी बहुओ के लिए क्या लाऐये? लड़को को आप अभी से बैरागी बना रहे हैं ! ये गहने वापस नही दियें जा सकते। और, मेरे हार पर आपको क्या अधिकार हैं ?'
मैने पूछा, 'पर यह हार तो तुम्हारी सेवा के बदले मिला हैं या मेरी सेवा के?'
'कुछ भी हो। आपकी सेवा मेरी ही सेवा हुई। मुझे से आपने रात-दिन जो मजदूरी करवायी वह क्या सेवा मे शुमार न होगी ? मुझे रुलाकर भी आपने हर किसी को घर मे ठहराया और उसकी चाकरी करवायी, उसे क्या कहेंगे ? '
ये सारे बाण नुकीले थे। इनमे से कुछ चुभते थे , पर गहने तो मुझे वापस करने ही थे। बहुत-सी बातो मे मैं जैसे-तैसे कस्तूरबा की सहमति प्राप्त कर सका। 1896 मे और 1901 मे मिली हुई भेटे मैने लौटा दी। उनका ट्रस्ट बना और सार्वजनिक काम के लिए उनका उपयोग मेरी अथवा ट्रस्टियों की इच्छा के अनुसार किया जाय, इस शर्त के साथ वे बैंक मे रख दी गयी। इन गहनों को बेचने के निमित्त से मै कई बार पैसे इक्टठा कर सका हूँ। आज भी आपत्ति-कोष के रुप मे यह धन मौजूद हैं और उसमे वृद्धि होती रहती है। अपने इस कार्य पर मुझे कभी पश्चाताप नहीं हुआ। दिन बितने पर कस्तूरबा को भी इसके औचित्य प्रतीति हो गयी। इससे हम बहुत से लालचो से बच गये हैं।
मेरा यह मत बना है कि सार्वजनिक सेवक के लिए निजी भेंटे नही हो सकती।