रंगरूटों की भरती
मै सभा मे हाजिर हुआ। वाइसरॉय की तीव्र इच्छा थी कि मै सिपाहियो की मददवासे प्रस्ताव का समर्थन करूँ। मैने हिन्दी हिन्दुस्तानी मे बोलने की इजाजत चाही। वाइसरॉय ने इजाजत तो दी, किन्तु साथ ही अंग्रेजी मे भी बोलने को कहा। मुझे भाषण तो करना ही नही था। मैने वहाँ जो कहा सो इतना ही था , 'मुझे अपनी जिम्मेदारी का पूरा ख्याल है और उस जिम्मेदारी को समझते हुए मै इस प्रस्ताव का समर्थन करता हूँ।'
हिन्दुस्तानी मे बोलने के लिए मुझे बहुतो ने धन्यबाद दिया। वे कहते थे कि इधर के जमाने मे वाइसरॉय की सभा मे हिन्दुस्तानी बोलने का यह पहला उदाहरण था। धन्यबाद की और पहले उदाहरण की बात सुनकर मुझे दुःख हुआ। मै शरमाया , अपने ही देश मे, देश से सम्बन्ध रखनेवाले काम की सभा मे , देश की भाषा का बहिस्कार अथवा अवगणना कितने दुःख की बात थी ! और, मेरे जैसा कोई हिन्दुस्तानी मे एक या दो वाक्य बोले तो उसमे धन्यबाद किस बात का ? ऐसे प्रसंग हमारी गिरी हुई दशा का ख्याल करानेवाले है। सभा मे कहे गये मेरे वाक्य मे मेरे लिए तो बहुत वजन था। मै उस सभा को अथवा उस समर्थन को भूल नही सकता था। अपनी एक जिम्मेदारी तो मुझे दिल्ली मे ही पूरी कर लेनी थी। वाइसरॉय को पत्र लिखने का काम मुझे सरल न जान पड़ा। सभा मे जाने की अपनी अनिच्छा , उसके कारण, भविष्य की आशाये आदि की सफाई देना मुझे अपने लिए सरकार के लिए और जनता के लिए आवश्यक मालूम हुआ।
मैने वाइसरॉय को जो पत्र लिखा, उसमे लोकमान्य तिलक , अली भाई आदि नेताओ की अनुपस्थिति के विषय मे अपना खेद प्रकट किया तथा लोगो की राजनीतिक माँग का और लड़ाई के कारण उत्पन्न हुई मुसलमानो की माँग का उल्लेख किया। मैने इस पत्र को छपाने की अनुमति चाही और वाइसरॉय ने वह खुशी से दे दी।
यह पत्र शिमला भेजना था, क्योकि सभा के समाप्त होते ही वाइसरॉय शिमला पहुँच गये थे। वहाँ डाक द्वारा पत्र भेजने मे देर होती थी। मेरी दृष्टि से पत्र महत्त्व का था। समय बचाने की आवश्यकता थी। हर किसी के साथ पत्र भेजने की इच्छा न थी। मुझे लगा कि पत्र किसी पवित्र मनुष्य के द्वारा जाये तो अच्छा हो। दीनबन्धु और सुशील रुद्र ने रेवरंड आयरलेंड नामक एक सज्जन का नाम सुझाया। उन्होने पत्र ले जाना स्वीकार किया , बशर्ते कि पढने पर वह उन्हें शुद्ध प्रतीत हो। पत्र व्यक्तिगत नही था। उन्होने पढ़ा और वे ले जाने को राजी हुए। मैने दूसरे दरजे का रेल-किराया देने की व्यवस्था की, किन्तु उन्होने उसे लेने से इनकार किया और रात की यात्रा होते हुए भी डयोढे दर्जे का ही टिकट लिया। उनकी सादगी , सरलता और स्पष्टता पर मै मुग्ध हो गया। इस प्रकार पवित्र हाथो द्वारा दिये गये पत्र का परिणाम मेरी दृष्टि से अच्छा ही हुआ। उससे मेरा मार्ग साफ हो गया।
मेरी दूसरी जिम्मेदारी रंगरूट भरती कराने की थी। इसकी याचना मै खेड़ा मे न करता तो और कहाँ करता ? पहले अपने साथियो को न न्योतता तो किसे न्योतता ? खेड़ा पहुँचने ही वल्लभभाई इत्यादि के साथ मैने सलाह की। उनमे से कुछ के गले बात तुरन्त नही उतरी नही। जिनके गले उतरी उन्होने कार्य की सफलता के विषय मे शंका प्रकच की। जिन लोगो मे रंगरूटो की भरती करनी थी, उन लोगो मे सरकार के प्रति किसी प्रकार का अनुराग न था। सरकारी अफसरो का उन्हे जो कड़वा अनुभव हुआ था, वह भी ताजा ही था।
फिर भी सब इस पक्ष मे हो गये कि काम शुरू करते ही मेरी आँख खुली। मेरा आशावाद भी कुछ शिथिल पड़ा। खेड़ा की लड़ाई मे लोग अपनी बैलगाड़ी मुफ्त मे देते थे। जहाँ एक स्वयंसेवक का हाजिरी की जरूरत थी , वहाँ तीन-चार मिल जाते थे। अब पैसे देने पर भी गाड़ी दुर्लभ हो गयी। लेकिन हम यों निराश होने वाले नही थे। गाड़ी के बदले हमने पैदल यात्रा करने का निश्चय किया। रोज बीस मील की मंजिल तय करनी थी। जहाँ गाड़ी न मिलती , वहाँ खाना तो मिलता ही कैसे ? माँगना उचित नही जान पड़ा अतएव यह निश्चय किया कि प्रत्येक स्वयंसेवक अपने खाने के लिए पर्याप्त साम्रगी अपनी थैली मे लेकर निकले। गर्मी के दिन थे , इसलिए साथ मे ओढने के लिए तो कुछ रखने की आवश्यकता न थी।
हम जिस गाँव मे जाते, उस गाँव मे सभा करते। लोग आते , लेकिन भरती के लिए नाम तो मुश्किल से एक या दो ही मिलते। 'आप अहिंसावादी होकर हमे हथियार उठाने के लिए क्यो कहते है ? ' 'सरकार ने हिन्दुस्तान का क्या भला किया है कि आप हमे उसकी मदद करने को कहते है ?' ऐसे अनेक प्रकार के प्रश्न मेरे सामने रखे जाते थे।
यह सब होते हए भी धीरे-धीरे सतत कार्य का प्रभाव लोगो पर पड़ने लगा था। नाम भी काफी संख्या ने दर्ज होने लगे थे औऱ हम यह मानने लगे थे कि अगर पहली टुकड़ी निकल पड़े तो दूसरो के लिए रास्ता खुल जायगा। यदि रंगरूट निकले तो उन्हे कहाँ रखा जाये इत्यादि प्रश्नो की चर्चा मै कमिश्नर से करने लगा था। कमिश्नर दिल्ली के ढंग पर जगह-जगह सभाये करने लगे थे। गुजरात मे भी वैसी सभा हुई। उसमे मुझे और साथियो को निमंत्रित किया गया था। मै उसमे भी सम्मिलित हुआ था। पर यदि दिल्ली की सभा मे मेरे लिए कम स्थान था , तो यहाँ की सभा मे उससे भी कम स्थान मुझे अपने लिए मालूम हुआ। 'जी-हुजूरी' के वातावरण मे मुझे चैन न पड़ता था। यहाँ मै कुछ अधिक बोला था। मेरी बात मे खुशामद जैसी तो कोई चीज थी ही नही , बल्कि दो कड़वे शब्द भी थे। रंगरूटो की भरती के सिलसिले मे मैने जो पत्रिका प्रकाशित की थी, उसमे भरती के लिए लोगो को निमंत्रित करते हुए जो एक दलील दी गयी थी वह कमिश्नर को बुरी लगी थी। उसका आशय यह था , 'ब्रिटिश राज्य के अनेकानेक दुष्कृत्यो मे समूची प्रजा को निःशस्त्र बनाने वाले कानून को इतिहास उसका काले से काला काम मानेगा। इस कानून को रद्द कराना हो और शस्त्रो का उपयोग सीखना हो , तो उसके लिए यह एक सुवर्ण अवसर है। संकट के समय मध्यम श्रेणी के लोग स्वेच्छा से शासन की सहायता करेगे तो अविषश्वास दूर होगा और जो व्यक्ति शस्त्र धारण करना चाहेगा वह आसानी से वैसा कर सकेगा। ' इसको लक्ष्य मे रखकर कमिश्नर को कहना पड़ा था कि उनके और मेरे मतभेद के रहते हुए भी सभा मे मेरी उपस्थिति उन्हें प्रिय थी। मुझे भी अपने मत का समर्थन यथासंभव मीठे शब्दो ने करना पड़ा था।
ऊपर वाइसरॉय को लिखे जिस पत्र का उल्लेख किया गया है , उसका सार नीचे दिया गया है :
'युद्ध-परिषद मे उपस्थिति रहने के विषय मे मेरी अनिच्छा थी पर आपसे मिलने के बाद वह दूर हो गयी और उसका एक कारण यह अवश्य था कि आपके प्रति मुझे बड़ा आदर है। न आने के कारणो मे मजबूत कारण यह था कि उसमे लोकमान्य तिलक , मिसेज बेसेंट और अली भाई निमंत्रित नही किये गये थे। इन्हें मै जनता के शक्तिशाली नेता मानता हूँ। मुझे तो लगता है कि सरकार ने इन्हें निमंत्रित न करने मे सरकार ने गंभीर भूल की है और मै अभी भी सुझाता हू कि प्रान्तीय परिषदे की जाये तो उनमे इन्हें निमंत्रित किया जाये। मेरा यह नम्र मत है कि कोई सरकार ऐसे प्रौढ़ नेताओ की उपेक्षा नही कर सकती , फिर भले उनके साथ उसका कैसा भी मतभेद क्यो न हो। इस स्तिथि मे मै सभा की समितियों मे उपस्थित नही रह सका और सभा मे प्रस्ताव का समर्थन करके संतुष्ट रहा। सरकार के सम्मुख मैने जो सुझाव रखे है, उनके स्वीकृत होते ही मै अपने समर्थन को अमली रूप देने की आशा रखता हूँ।
'जिस साम्राज्य मे आगे चलकर हम सम्पूर्ण रूप से साझेदार बनने की आशा रखते है , संकट के समय मे उसकी पूरी मदद करना हमारा धर्म है। किन्तु मुझे यह तो कहना ही चाहिये कि इसके साथ यह आशा बंधी हुई है कि मदद के कारण हम उपने ध्येय तक शीध्र पहुँच सकेगे। अतएव लोगो को यह मानने का अधिकार है कि आपके भाषण मे जिन सुधारो के तुरन्त अमल मे आने की आशा प्रकट की गयी है, उन सुधारो मे कांग्रेस और मुस्लिम लीग की मुख्य माँगो का समावेश किया जायेगा। यदि मेरे लिए यह सम्भव होता तो मै ऐसे समय होमरूल आदि का उच्चारण तक न करता। बल्कि मै समस्त शक्तिशाली भारतीयो को प्रेरित करता कि साम्राज्य के संकट के समय वे उसकी रक्षा के लिए चुपचाप खप जाये। इतना करने से ही हम साम्राज्य के बड़े-से-बड़े और आदरणीय साझेदार बन जाते और रंगभेद तथा देशभेद का नाम-निशान भी न रहता।
'पर शिक्षित समाज ने इससे कम प्रभावकारी मार्ग अपनाया है। आम लोगो पर उसका बड़ा प्रभाव है। मै जब से हिन्दुस्तान आया हूँ तभी से आम लोगो के गाढ़ सम्पर्क मे आता रहा हूँ और मै आपको बतलाना चाहता हूँ कि होमरूल की लगन उनमे पैठ गयी है। होमरूल के बिना लोगो को कभी संतोष न होगा। वे समझते है कि होमरूल प्राप्त करने के लिए जितना बलिदान दिया जाये उतना कम है। अतएव यद्यपि साम्राज्य के लिए जितने स्वयंसेवक दिये जा सके उतने देने चाहिये, तथापि आर्थिक सहायता के विषय मे मै ऐसा नही कर सकता। लोगो की हालत को जानने के बाद मै यह कह सकता हूँ कि हिन्दुस्तान जो सहायता दे चुका है वह उसके सामर्थ्य से अधिक है। लेकिन मै यह समझता हूँ कि सभा मे जिन्होने समर्थन किया है , उन्होने मरते दम तक सहायता करने का निश्चय किया है। फिर भी हमारी स्थिति विषम है। हम एक पेढी के हिस्सेदार नही है। हमारी मदद की नींव भविष्य की आशा पर रखी गयी है और यह आशा क्या है सो जरा खोल कर कहने का जरूरत है। मै सौदा करना नही चाहता पर मुझे इतना तो कहना ही चाहिये कि उसके बारे मे हमारे मन मे निराशा पैदा हो जाये, तो साम्राज्य के विषय मे आज तक की हमारी धारणा भ्रम मानी जायेगी।
'आपने घर के झगडे भूल जाने की सलाह दी है। यदि उसका अर्थ यह हो कि अत्याचार और अधिकारियो के अपकृत्य सहन कर लिये जाये तो यह असंभव है। संगठित अत्याचार का सामना अपनी समूची शक्ति लगाकर करना मै अपना धर्म मानता हूँ। अतएव आपको अधिकारियो को यह सुझाना चाहिये कि वे एक भी मनुष्य की अवगणना न करे और लोकमत का उतना आदर करे जितना पहले कभी नही किया है। चम्पारन मे सौ साल पुराने अत्याचार का विरोध करके मैने ब्रिटिश न्याय की सर्वश्रेष्ठता सिद्ध कर दिखायी है। खेड़ा की जनता ने देख लिया है कि जब उसमे सत्य के लिए दुःख सहने की शक्ति होती है , तब वास्तविक सत्ता राजसत्ता नही , बल्कि लोकसत्ता होती है , और फलतः जनता जिस शासन को शाप देती है , उसके प्रति उसकी कटुता कम हुई है और जिस हुकूमत ने सविनय कानून-भंग को सहन कर लिया वह लोकमत की पूरी उपेक्षा करनेवाली नही हो सकती , इसका उसे विश्वास हो गया है। अतएव मै यह मानता हूँ कि चम्पारन और खेड़ा मे मैने जो काम किया है , वह इस लडाई मे मेरी सेवा है। यदि आप मुझे इस प्रकार का अपना काम बन्द कर देने को कहेंगे तो मै यह मानूँगा कि आपने मुझे मेरी साँस बन्द करने के लिए कहा है। यदि आत्मबल को अर्थात प्रेमबल को शस्त्र-बल के बदले लोकप्रिय बनाने मै सफल हो जाऊँ , तो मै मानता हूँ कि हिन्दुस्तान सारे संसार की टेढी नजर का भी सामना कर सकता है। अतएव हर बार मै दुःख सहन करने की इस सनातन नीति को अपने जीवन मे बुन लेने के लिए अपनी आत्मा को कसता रहूँगा और इस नीति को स्वीकार करने के लिए दूसरो को निमंत्रण देता रहूँगा , और यदि मै किसी अन्य कार्य मे योग देता हूँ तो उसका हेतु भी केवल इसी नीति की अद्वितीय उत्तमता सिद्ध करना है।
'अन्त मे मै आपसे बिनती करता हूँ कि आप मुसलमानी राज्यो के बारे मे स्पष्ट आश्वासन देने के लिए ब्रिटिश मंत्री-मंडल को लिखिये। आप जानते है कि इसके बारे मे हरएक मुसलमान को चिन्ता बनी रहती है। स्वयं हिन्दू होने के कारण उनकी भावना के प्रति मै उपेक्षा का भाव नहीं रख सकता। उनका दुःख हमारी ही दुःख है। इन मुसलमानी राज्यो के अधिकारो की रक्षा मे उनके धर्मस्थानो के बारे मे उनकी भावना का आदर करने मे और हिन्दुस्तान क होमरूल-विषयक माँग को स्वीकार करने मे साम्राज्य की सुरक्षा समायी हुई है। चूंकि मै अग्रेजो से प्रेम करता हूँ , इसलिए मैने यह पत्र लिखा है और मै चाहता हूँ कि जो वफादारी एक अंग्रेज मे है वही वफादारी हरएक हिन्दुस्तानी मे जागे।'