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महामारी-2

इस प्रकार मकान और बीमारो को अपने कब्जे मे लेने के लिए टाइनक्लर्क ने मेरा उपकार माना और प्रामाणिकता से स्वीकार किया , 'हमारे पास ऐसी परिस्थिति मे अपने आप अचानक कुछ कर सकने के लिए कुछ साधन नही है। आपको जो मदद चाहिये, आप माँगिये। टाउन-कौंसिल से जिनती मदद बन सकेगी उतनी वह करेगी।' पर उपयुक्त उपचार के प्रति सजग बनी हुई इस म्युनिसिपैलिटी ने स्थिति का सामना करने मे देर न की।

दूसरे दिन मुझे एक खाली पड़े हुए गोदाम को कब्जा दिया और बीमारों को वहाँ ले जाने की सूचना दी। पर उसे साफ करने का भार म्युनिसिपैलिटी ने नही उठाया। मकान मैला और गन्दा था। मैने खुद ही उसे साफ किया। खटिया वगैरा सामान उदार हृदय के हिन्दुस्तानियो की मदद से इकट्ठा किया और तत्काल एक कामचलाऊ अस्पताल खड़ा कर लिया। म्युनिसिपैलिटी ने एक नर्स भेज दी और उसके साथ ब्रांडी की बोतल और बीमारो के लिए अन्य आवश्यक वस्तुए भेजी। डॉ. गॉडफ्रे का चार्ज कायम रहा।

हम नर्स को क्वचित् ही बीमारो को छूने दे थे। नर्स स्वयं छूने को तैयार थी। वह भले स्वभाव की स्त्री थी। पर हमारा प्रयत्न यह था कि उसे संकट मे न पड़ने दिया जा।

बीमारो को समय समय पर ब्रांडी देने की सूचना थी। रोग की छूत से बचने के लिए नर्स हमे भी थोड़ी ब्रांडी लेने को कहती और खुद भी लेती थी।

हममे कोई ब्रांडी लेनेवाला न था। मुझे तो बीमारो को भी ब्रांडी देने में श्रद्धा न थी। डॉ. गॉडफ्रे की इजाजत से तीन बीमारो पर, जो ब्रांडी के बिना रहने को तैयार थे और मिट्टी के प्रयोग करने को राजी थे, मैने मिट्टी का प्रयोग शुरू किया और उनके माथे और छाती में जहाँ दर्द होता था वहाँ वहाँ मिट्टी की पट्टी रखी। इन तीन बीमारों मे से दो बचे। बाकी सब बीमारो का देहान्त हो गया। बीस बीमार तो गोदाम में ही चल बसे।

म्युनिसिपैलिटी की दूसरी तैयारियाँ चल रही थी। जोहानिस्बर्ग से सात मील दूर एक 'लेज़रेटो' अर्थात् संक्रामक रोगो के लिए बीमारो का अस्पताल था। वहाँ तम्बू खड़े करके इन तीन बीमारो को उनमे पहुँचाया गया। भविष्य में महामारी के शिकार होनेवालों को भी वहीं ले जाने की व्यवस्था की गयी। हमें इस काम से मुक्ति मिली। कुछ ही दिनों बाद हमे मालूम हुआ कि उक्त भली नर्स को महामारी हो गयी थी औऱ उसी से उसका देहान्त हुआ। वे बीमार कैसे बचे और हम महामारी से किस कारण मुक्त रहे, सो कोई कह नहीं सकता। पर मिट्टी के उपचार के प्रति मेरी श्रद्धा और दवा के रुप मे शराब के उपयोग के प्रति मेरी अश्रद्धा बढ़ गयी। मै जानता हूँ कि यह श्रद्धा और अश्रद्धा दोनो निराधार मानी जायेगी। पर उस समय मुझ पर जो छाप पडी थी और जो अभी तक बनी हुई है उसे मै मिटा नही सकता। अतएव इस अवसर पर उसके उल्लेख करना आवश्यक समझता हूँ।

इस महामारी के शुरू होते ही मैने तत्काल समाचार पत्रों के लिए एक कड़ा लेख लिखा था और उसमे लोकेशन को अपने हाथ मे लेने के बाद से बढ़ी हुई म्युनिसिपैलिटी की लापरवाही और महामारी के लिए उसकी जवाबदारी की चर्चा की थी। इस पत्र ने मुझे मि. हेनरी पोलाक से मिला दिया था और यही पत्र स्व. जोसेफ डोक के परिचय का एक कारण बन गया था।

पिछले प्रकरण मे मै लिख चुका हूँ कि मै एक निरामिष भोजनालय मे भोजन करने जाता था। वहाँ मि. आल्बर्ट वेस्ट से मेरी जान पहचान हुई थी। इम प्रतिदिन शाम को इस भोजनायल मे मिलते और भोजन के बाद साथ मे घूमने जाया करते थे। वेस्ट एक छोटे से छापाखाने के साझेदार थे। उन्होंने समाचार पत्रों मे महामारी विषयक मेरा पत्र पढ़ा और भोजन के समय मुझे भोजनालय मे न देखकर वे धबरा गये।

मैने और मेरे साथी सेवक महामारी के दिनो मे अपना आहार घटा लिया था। एक लम्बे समय से मेरा अपना यह नियम था कि जब आसपास महामाही की हवा हो तब पेट जितना हलका रहे उतना अच्छा। इसलिए मैने शाम का खाना बन्द कर दिया था और दोपहर को भोजन करनेवालो को सब प्रकार के भय से दूर रखने के लिए मैं ऐसे समय पहुँचकर खा आता था जब दूसरे कोई पहुँचे न होते थे। भोजनालय के मालिक से मेरी गहरी जान पहचान हो गयी थी। मैने उससे कह रखा था चूंकि मै महामारी के बीमारो की सेवा मे लगा हूँ इसलिए दूसरो के सम्पर्क मे कम से कम आना चाहता हूँ।

यों मुझे भोजनालय में न देखने के कारण दूसरे या तीसरे ही दिन सबेरे सबेरे जब मै बाहर निकलने की तैयारी मे लगा था , वेस्ट ने मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खोलते ही वेस्ट बोले, 'आपको भोजनालय मे न देखकर मै घबरा उठा था कि कहीँ आपको कुछ नही हो गया। इसलिए यह सोचकर कि इस समय आप मिल ही जायेंगे , मै यहाँ आया हूँ। मेरे कर सकने योग्य कोई मदद हो तो मुझ से कहिये। मै बीमारो की सेवा शुश्रूषा के लिए भी तैयार हूँ। आप जानते है कि मुझ पर अपना पेट भरने के सिवा कोई जवाबदारी नही हैं।'

मैने वेस्ट का आभार माना। मुझे याद नही पड़ता कि मैने विचार के लिए एक मिनिट भी लगाया हो। तुरन्त कहा , 'आपको नर्स के रुप मे तो मै कभी न लूँगा। अगर नये बीमार न निकले तो हमारा काम एक दो दिन मे ही पूरा गो जायेगा। लेकिन एक काम अवश्य हैं।'

'कौन-सा?'

'क्या डरबन पहुँचकर आप 'इंडियन ओपिनियन' प्रेस का प्रबन्ध अपने हाथ मे लेंगे ? मदनजीत तो अभी यहाँ के काम मे व्यस्त है। परन्तु वहाँ किसी का जाना जरुरी हैं। आप चले जाये तो उस तरफ की मेरी चिन्ता बिल्कुल कम हो जाय।'

वेस्ट ने जवाब दिया, 'यह तो आप जानते है कि मेरा अपना छापा-खाना हैं। बहुत संभव है कि मै जाने को तैयार हो जाऊँ। आखिरी जवाब आज शाम तक दूँ तो चलेगा न ? घूमने निकल सके तो उस समय हम बात कर लेंगे।'

मैं प्रसन्न हुआ। उसी दिन शाम को थोडी बातचीत की। वेस्ट को हर महीने दस पौंड और छापेखाने मे कुठ मुनाफा हो तो उसका अमुक भाग देने का निश्चय किया। वेस्ट वेतन के लिए तो आ नही रहे थे। इसलिए वेतन का सवाल उनके सामने नही था। दूसरे ही दिन रात की मेल से वे डरबन के लिए रवाना हुए और अपनी उगाही का काम मुझे सौपते गये। उस दिन से लेकर मेरे दक्षिण अफ्रीका छोड़ने के दिन तक वे मेरे सुख-दुःख के साथी रहे। वेस्ट का जन्म विलायत के एक परगने के लाउथ नामक के एक किसान परिवार मे हुआ था। उन्हें साधारण स्कूली शिक्षा प्राप्त हुई थी। वे अपने परिश्रम से अनुभव की पाठशाला मे शिक्षा पाकर तैयार हुए शुद्ध, संयमी , ईश्वर से डरने वाले , साहसी और परोपकारी अंग्रेज थे। मैने उन्हें हमेशा इसी रुप मे जाना हैं। उनका और उनके कुटुम्ब का परिचय इन प्रकरणों मे हमे आगे अधिक होने वाला हैं।

सत्य के प्रयोग

महात्मा गांधी
Chapters
बाल-विवाह बचपन जन्म प्रस्तावना पतित्व हाईस्कूल में दुखद प्रसंग-1 दुखद प्रसंग-2 चोरी और प्रायश्चित पिता की मृत्यु और मेरी दोहरी शरम धर्म की झांकी विलायत की तैयारी जाति से बाहर आखिर विलायत पहुँचा मेरी पसंद 'सभ्य' पोशाक में फेरफार खुराक के प्रयोग लज्जाशीलता मेरी ढाल असत्यरुपी विष धर्मों का परिचय निर्बल के बल राम नारायण हेमचंद्र महाप्रदर्शनी बैरिस्टर तो बने लेकिन आगे क्या? मेरी परेशानी रायचंदभाई संसार-प्रवेश पहला मुकदमा पहला आघात दक्षिण अफ्रीका की तैयारी नेटाल पहुँचा अनुभवों की बानगी प्रिटोरिया जाते हुए अधिक परेशानी प्रिटोरिया में पहला दिन ईसाइयों से संपर्क हिन्दुस्तानियों से परिचय कुलीनपन का अनुभव मुकदमे की तैयारी धार्मिक मन्थन को जाने कल की नेटाल में बस गया रंग-भेद नेटाल इंडियन कांग्रेस बालासुंदरम् तीन पाउंड का कर धर्म-निरीक्षण घर की व्यवस्था देश की ओर हिन्दुस्तान में राजनिष्ठा और शुश्रूषा बम्बई में सभा पूना में जल्दी लौटिए तूफ़ान की आगाही तूफ़ान कसौटी शान्ति बच्चों की सेवा सेवावृत्ति ब्रह्मचर्य-1 ब्रह्मचर्य-2 सादगी बोअर-युद्ध सफाई आन्दोलन और अकाल-कोष देश-गमन देश में क्लर्क और बैरा कांग्रेस में लार्ड कर्जन का दरबार गोखले के साथ एक महीना-1 गोखले के साथ एक महीना-2 गोखले के साथ एक महीना-3 काशी में बम्बई में स्थिर हुआ? धर्म-संकट फिर दक्षिण अफ्रीका में किया-कराया चौपट? एशियाई विभाग की नवाबशाही कड़वा घूंट पिया बढ़ती हुई त्यागवृति निरीक्षण का परिणाम निरामिषाहार के लिए बलिदान मिट्टी और पानी के प्रयोग एक सावधानी बलवान से भिड़ंत एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित अंग्रेजों का गाढ़ परिचय अंग्रेजों से परिचय इंडियन ओपीनियन कुली-लोकेशन अर्थात् भंगी-बस्ती? महामारी-1 महामारी-2 लोकेशन की होली एक पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव फीनिक्स की स्थापना पहली रात पोलाक कूद पड़े जाको राखे साइयां घर में परिवर्तन और बालशिक्षा जुलू-विद्रोह हृदय-मंथन सत्याग्रह की उत्पत्ति आहार के अधिक प्रयोग पत्नी की दृढ़ता घर में सत्याग्रह संयम की ओर उपवास शिक्षक के रुप में अक्षर-ज्ञान आत्मिक शिक्षा भले-बुरे का मिश्रण प्रायश्चित-रुप उपवास गोखले से मिलन लड़ाई में हिस्सा धर्म की समस्या छोटा-सा सत्याग्रह गोखले की उदारता दर्द के लिए क्या किया ? रवानगी वकालत के कुछ स्मरण चालाकी? मुवक्किल साथी बन गये मुवक्किल जेल से कैसे बचा ? पहला अनुभव गोखले के साथ पूना में क्या वह धमकी थी? शान्तिनिकेतन तीसरे दर्जे की विडम्बना मेरा प्रयत्न कुंभमेला लक्षमण झूला आश्रम की स्थापना कसौटी पर चढ़े गिरमिट की प्रथा नील का दाग बिहारी की सरलता अंहिसा देवी का साक्षात्कार ? मुकदमा वापस लिया गया कार्य-पद्धति साथी ग्राम-प्रवेश उजला पहलू मजदूरों के सम्पर्क में आश्रम की झांकी उपवास (भाग-५ का अध्याय) खेड़ा-सत्याग्रह 'प्याज़चोर' खेड़ा की लड़ाई का अंत एकता की रट रंगरूटों की भरती मृत्यु-शय्या पर रौलट एक्ट और मेरा धर्म-संकट वह अद्भूत दृश्य! वह सप्ताह!-1 वह सप्ताह!-2 'पहाड़-जैसी भूल' 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' पंजाब में खिलाफ़त के बदले गोरक्षा? अमृतसर की कांग्रेस कांग्रेस में प्रवेश खादी का जन्म चरखा मिला! एक संवाद असहयोग का प्रवाह नागपुर में पूर्णाहुति