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तूफ़ान

अठारह दिसम्बर के आसपास दोनों स्टीमरों ने लंगर डाले। दक्षिण अफ्रीका के बन्दरगाहों में यात्रियों के स्वास्थ्य की पूरी जाँच की जाती हैं। यदि किसी को छूत वाली बीमारी हुई हो तो स्टीमर को सूतक -- क्वारनटीन -- में रखा जाता हैं। हमारे बम्बई छोड़ते समय वहाँ प्लेग की शिकायत की थी, इसलिए हमें इस बात का डर जरूर था कि सूतक की कुछ बाधा होगी। बन्दर में लंगर डालने के बाद स्टीमर को सबसे पहले पीला झण्डा फहराना होता हैं। डाक्टरी जाँच के बाद डाक्टर के मुक्ति देने पर पीला झण्डा उतरता हैं और फिर यात्रियों के रिश्तेदारो आदि को स्टीमर पर आने की इजाजत मिलती हैं।

तदनुसार हमारं स्टीमर पर भी पीला झण्डा फरहा रहा था। डाक्टर आये। जाँच करके उन्होंने पाँच दिन का सूतक घोषित किया , क्योंकि उनकी धारण थी कि प्लेग के कीटाँणु तेईस दिन तक जिन्दा रह सकते हैं। इसलिए उन्होंने ऐसा आदेश दिया कि बम्बई छोड़ने को बाद तेईस दिन की अवधि पूरी होने तक स्टीमरों को सतूक में रखा जाये।

पर इस सूतक की आज्ञा हेतु केवल स्वास्थ्य रक्षा न था। डरबन के गोरे नागरिक हमें उलटे पैरों लौटा देने का जो आन्दोलन कर रहे थे, वह भी इस आज्ञा के मूल में एक कारण था।

दादा अब्दुल्ला की तरफ सा हमें शहर में चल रहे इस आन्दोलन की खबरे मिलती रहती थी। गोरे लोग एक के बाद दूसरी विराट सभाये कर रहे थे। दादा अब्दुल्ला के नाम धमकियाँ भेजते थे, उन्हें लालच भी देते थे। अगर दादा अब्दुल्ला दोनों स्टीमरों को वापय ले जाये तो गोरे नुकसान की भरपाई करने को तैयार थे।

इस प्रकार डरबन में द्वन्द्व युद्ध छिड़ गया। एक ओर मुट्ठीभर गरीब हिन्दुस्तानी और उनके इने-गिने अंग्रेज मित्र थे ; दूसरी ओर धनबल , बाहुबल , विद्यालय और संख्याबल में भरेपूरे अंग्रेज थे। इन बलवान प्रतिपक्षियों को राज्य का बल भी प्राप्त हो गया था , क्योंकि नेटाल की सरकार ने खुल्लम-खुल्ला उनकी मदद की थी। मि. गेरी एस्कम्बने जो मंत्रिमंडल में थे और उसके कर्ताधर्ता थे। इन गोरों की सभा में प्रकट रुप से हिस्सा लिया।

मतलब यह कि हमारी सूतक केवल स्वास्थ्य रक्षा के नियमों के ही कारण न था। उसका हेतु किसी भी तरह एजेंड को या यात्रियों को दबा कर हमें वापस भेजना था। एजेंड को तो धमकी मिल ही रही थी। अब हमारे नाम भी आने लगीं : 'अगर तुम वापस न गये तो तुम्हें समुन्द्र में डुबो दिया जायगा। लौट जाओ तो लौटने का भाड़ा भी शायद मिल जाये। ' मैं यात्रियों के बीच खूब घदादा अब्दुल्ला दोनों स्टीमरों को वापस ले जाये तो गोरे नुकसान की भरपाई करने को तैयार थे। दादा अब्दुल्ला किसी की धमकी से डरने वाले न थे। इस समय वहाँ सेठ अब्दुल करीम हाजी आदम दुकान पर थे। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि कितना ही नुकसान क्यों न उठाना पड़े , वे स्टीमरो को बन्दर पर लायेंगे और यात्रियों को उतारेंगे। मेरे नाम उनके विस्तृत पत्र बारबर आते रहते थे। सौभाग्य से इस समय स्व. मनसुखलाल हीरालाल नाजर मुझे से मिलने के लिए डरबन आ पहुँचे। वे होशियार औप बहादुर आदमी थे। उन्होंने हिन्दुस्तानी कौम को नेक सलाह दी। मि. लाटन वकील थे। उन्होंने गोरों की करतूतों की निन्दा की और इस अवसर पर कौम को जो सलाह दी, वह सिर्फ वकील होने के नाते पैसे लेकर नही, बल्कि एक सच्चे मित्र के नाते दी। घुमा-फिरा। उन्हें धीरज बँधाया। नादरी के यात्रियों को भी धीरज से काम लेने के संदेश भेजे। यात्री शान्त रहे ओर उन्होंने हिम्मत का परिचय दिया।

यात्रियों के मनोरंजन के लिए स्टीमरों पर खेलों का प्रबंध किया गया था। बड़े दिन का त्यौहार आया। कप्तान ने उस दिन पहले दर्जे के यात्रियों को पश्चिमी सभ्यता पर भाषण किया। मैं जानता था कि यह अवसर गम्भीर भाषण का नहीं होता, पर मैं दूसरा कोई भाषण दे ही नहीं सकता था। मैं आनन्द में सम्मिलित हुआ , पर मेरा दिल तो डरबन मे चल रही लड़ाई में ही लगा हुआ था , क्योंकि इस हमले मे मध्य बिन्दु मैं था। मुझ पर दो आरोप थे :

1. मैने हिन्दुस्तान में नेटालवासी गोरों की अनुचित निन्दा की थी।

2. मैं नेटाल को हिन्दुस्तानियों से भर देना चाहता था और इसलिए खासकर नेटाल मे बसाने के लिए हिन्दुस्तानियों को 'कुरलैण्ड' और 'नादरी' में भर कर लाया था।

मुझे अपनी जिम्मेदारी का ख्याल था। मेरे कारण दादा अबदुल्ला भारी नुकसान मे पड़ गये थे। यात्रियों के प्राण संकट में था। और अपने परिवार को साथ लाकर मैने उसे भी दुःख में डाल दिया था।

पर मैं स्वयं बिल्कुल निर्दोष था। मैने किसी को नेटाल आने के लिए ललचाया नहीं था। 'नादरी' के यात्रियों को मैं पहचानता भी न था। 'कुरलैण्ड' में अपने दो-तीन रिश्तेदारो को छोड़कर बाकी के सैकड़ों यात्रियों के नाम-धाम तक मैं जानता न था। मैने हिन्दुस्तान में नेटाल के अंग्रेजो के विषय में ऐसा एक भी शब्द नहीं कहा, जो नेटाल में कह चुका था। और जो कुछ मैने कहा था, उसके लिए मेरे पास काफी प्रमाण थे।

अतएव नेटाल के अंग्रेज जिस सभ्यता की उपज थे, जिसके प्रतिनिधि और हिमायती थे, उस सभ्यता के प्रति मेरे मन में खेद उत्पन्न हुआ। मैं उसी का विचार करता रहता था, इसलिए इस छोटी-सभा के सामने मैने अपने वे ही विचार रखे और श्रोता वर्ग ने उन्हें सहन कर लिया। जिस भाव से मैंने उन्हे रखा, कप्तान आदि ने उसी भाव में उन्हें ग्रहण किया। उन विचारों से उनके जीवन में कोई फेरफार हुआ या नहीं सो मैं नहीं जानता। पर कप्तान और दूसरे अधिकारियो के साथ पश्चिमी सभ्यता के विषय में मेरी खूब बाते हुई। मैने पश्चिमी सभ्यता को प्रधानतया हिंसक बतलाया और पूर्व की सभ्यता को अहिंसक। प्रश्नकर्ताओं ने मेरे सिद्धान्त मुझी पर लागू किये। बहुत करके कप्तान ने ही पूछा : 'गोरे जैसी धमकी दे रहे हैं उसी के अनुसार वे आपको चोट पहुँचाये तो आप अहिंसा के अपने सिद्धान्त पर किस तरह अमल करेंगे।'

मैने जवाब दिया : 'मुझे आशा हैं कि उन्हें माफ कर देने की और मुकदमा न चलाने की हिम्मत और बुद्धि ईश्वर मुझे देगा। आज भी मुझे उनपर रोष नहीं हैं। उनके अज्ञान , उनकी संकुचित दृष्टि के लिए मुझे खेद होता हैं। मैं समझता हूँ कि वे जो कह रहे हैं और कर रहे हैं वह उचित हैं, ऐसा वे शुद्ध भाव से मानते हैं। अतएव मेरे लिए रोष का कोई कारण नहीं हैं।' पूछनेवाला हँसा। शायद मेरी बात पर उसे विश्वास नहीं हुआ।

इस प्रकार हमारे दिन बीतते गये और लम्बे होते गये। सूतक समाप्त करने की अवधि अन्त तक निश्चित नहीं हुई। इस विभाग के अधिकारी से पूछने पर वह करता, 'यह मेरी शक्ति से बाहर हैं। सरकार आदेश दे तो मैं आप लोगों को उतरने की इजाजत दे दूँ।'

अन्त में यात्रियों को और मुझे अल्टिमेटम मिले। दोनों को धमकी दी गयी कि तुम्हारी जान खतरे में हैं। दोनों ने नेटाल के बन्दर पर उतरने के अपने अधिकार के विषय में लिखा और अपना निश्चिय घोषित किया कि कैसा भी संकट क्यों न हों, हम अपने इस अधिकार पर डटे रहेगे।

आखिर तेईसवें दिन, अर्थात् 13 जनवरी 1817 के दिन स्टीमरों को मुक्ति मिली औऱ यात्रियों को उतने का आदेश मिला।

सत्य के प्रयोग

महात्मा गांधी
Chapters
बाल-विवाह बचपन जन्म प्रस्तावना पतित्व हाईस्कूल में दुखद प्रसंग-1 दुखद प्रसंग-2 चोरी और प्रायश्चित पिता की मृत्यु और मेरी दोहरी शरम धर्म की झांकी विलायत की तैयारी जाति से बाहर आखिर विलायत पहुँचा मेरी पसंद 'सभ्य' पोशाक में फेरफार खुराक के प्रयोग लज्जाशीलता मेरी ढाल असत्यरुपी विष धर्मों का परिचय निर्बल के बल राम नारायण हेमचंद्र महाप्रदर्शनी बैरिस्टर तो बने लेकिन आगे क्या? मेरी परेशानी रायचंदभाई संसार-प्रवेश पहला मुकदमा पहला आघात दक्षिण अफ्रीका की तैयारी नेटाल पहुँचा अनुभवों की बानगी प्रिटोरिया जाते हुए अधिक परेशानी प्रिटोरिया में पहला दिन ईसाइयों से संपर्क हिन्दुस्तानियों से परिचय कुलीनपन का अनुभव मुकदमे की तैयारी धार्मिक मन्थन को जाने कल की नेटाल में बस गया रंग-भेद नेटाल इंडियन कांग्रेस बालासुंदरम् तीन पाउंड का कर धर्म-निरीक्षण घर की व्यवस्था देश की ओर हिन्दुस्तान में राजनिष्ठा और शुश्रूषा बम्बई में सभा पूना में जल्दी लौटिए तूफ़ान की आगाही तूफ़ान कसौटी शान्ति बच्चों की सेवा सेवावृत्ति ब्रह्मचर्य-1 ब्रह्मचर्य-2 सादगी बोअर-युद्ध सफाई आन्दोलन और अकाल-कोष देश-गमन देश में क्लर्क और बैरा कांग्रेस में लार्ड कर्जन का दरबार गोखले के साथ एक महीना-1 गोखले के साथ एक महीना-2 गोखले के साथ एक महीना-3 काशी में बम्बई में स्थिर हुआ? धर्म-संकट फिर दक्षिण अफ्रीका में किया-कराया चौपट? एशियाई विभाग की नवाबशाही कड़वा घूंट पिया बढ़ती हुई त्यागवृति निरीक्षण का परिणाम निरामिषाहार के लिए बलिदान मिट्टी और पानी के प्रयोग एक सावधानी बलवान से भिड़ंत एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित अंग्रेजों का गाढ़ परिचय अंग्रेजों से परिचय इंडियन ओपीनियन कुली-लोकेशन अर्थात् भंगी-बस्ती? महामारी-1 महामारी-2 लोकेशन की होली एक पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव फीनिक्स की स्थापना पहली रात पोलाक कूद पड़े जाको राखे साइयां घर में परिवर्तन और बालशिक्षा जुलू-विद्रोह हृदय-मंथन सत्याग्रह की उत्पत्ति आहार के अधिक प्रयोग पत्नी की दृढ़ता घर में सत्याग्रह संयम की ओर उपवास शिक्षक के रुप में अक्षर-ज्ञान आत्मिक शिक्षा भले-बुरे का मिश्रण प्रायश्चित-रुप उपवास गोखले से मिलन लड़ाई में हिस्सा धर्म की समस्या छोटा-सा सत्याग्रह गोखले की उदारता दर्द के लिए क्या किया ? रवानगी वकालत के कुछ स्मरण चालाकी? मुवक्किल साथी बन गये मुवक्किल जेल से कैसे बचा ? पहला अनुभव गोखले के साथ पूना में क्या वह धमकी थी? शान्तिनिकेतन तीसरे दर्जे की विडम्बना मेरा प्रयत्न कुंभमेला लक्षमण झूला आश्रम की स्थापना कसौटी पर चढ़े गिरमिट की प्रथा नील का दाग बिहारी की सरलता अंहिसा देवी का साक्षात्कार ? मुकदमा वापस लिया गया कार्य-पद्धति साथी ग्राम-प्रवेश उजला पहलू मजदूरों के सम्पर्क में आश्रम की झांकी उपवास (भाग-५ का अध्याय) खेड़ा-सत्याग्रह 'प्याज़चोर' खेड़ा की लड़ाई का अंत एकता की रट रंगरूटों की भरती मृत्यु-शय्या पर रौलट एक्ट और मेरा धर्म-संकट वह अद्भूत दृश्य! वह सप्ताह!-1 वह सप्ताह!-2 'पहाड़-जैसी भूल' 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' पंजाब में खिलाफ़त के बदले गोरक्षा? अमृतसर की कांग्रेस कांग्रेस में प्रवेश खादी का जन्म चरखा मिला! एक संवाद असहयोग का प्रवाह नागपुर में पूर्णाहुति