बचपन
पोरबन्दर से पिताजी राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य बनकर राजकोट गये। उस समय मेरी उमर सात साल की होगी। मुझे राजकोट की ग्रामशाला में भरती किया गया। इस शाला के दिन मुझे अच्छी तरह याद हैं। शिक्षकों के नाम-धाम भी याद हैं। पोरबन्दर की तरह यहाँ की पढ़ाई के बारे में भी ज्ञान के लायक कोई खास बात नहीं हैं। मैं मुश्किल से साधारण श्रेणी का विद्यार्थी रहा होऊंगा। ग्रामशाला स उपनगर की शाला में और वहाँ से हाईस्कूल में। यहाँ तक पहुँचने में मेरा बारहवाँ वर्ष बीत गया। मुझे याद नहीं पड़ता कि इस बीच मैंने किसी भी समय शिक्षकों को धोखा दिया हो। न तब तक किसी को मित्र बनाने का स्मरण हैं। मैं बहुत ही शरमीला लड़का था। घंटी बजने के समय पहुँचता ऐर पाठशाला के बन्द होते ही घर भागता। 'भागना' शब्द मैं जान-बूझकर लिख रहा हूँ, क्योंकि बातें करना मुझे अच्छा न लगता था। साथ ही यह डर भी रहता था कि कोई मेरा मजाक उड़ायेगा तो ?
हाईस्कूल के पहले ही वर्ष की, परीक्षा के समय की एक घटना उल्लेखनीय हैं। शिक्षा विभाग के इन्सपेक्टर जाइल्स विद्यालय की निरीक्षण करने आये थे। उन्होंने पहली कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के पाँच शब्द लिखाये। उनमें एक शब्द 'केटल' (kettle) था। मैंने उसके हिज्जे गलत लिखे थे।
शिक्षक ने अपने बूट की नोक मारकर मुझे सावधान किया। लेकिन मैं क्यों सावधान होने लगा ? मुझे यह ख्याल ही नहीं हो सका कि शिक्षक मुझे पासवाले लड़के की पट्टी देखकर हिज्जे सुधार लेने को कहते हैं। मैने यह माना था कि शिक्षक तो यह देख रहे हैं कि हम एक-दूसरे की पट्टी में देखकर चोरी न करें। सब लड़कों के पाँचों शब्द सही निकले और अकेला मैं बेवकूफ ठहरा। शिक्षक ने मुझे मेरी बेवकूफी बाद में समझायी लेकिन मेरे मन पर कोई असर न हुआ। मैं दुसरे लड़को की पट्टी में देखकर चोरी करना कभी न सीख सका।
इतने पर भी शिक्षक के प्रति मेरा विनय कभी कम न हुआ। बड़ों के दोष न देखने का गुण मुझ में स्वभाव से ही था। बाद में इन शिक्षक के दूसरे दोष भी मुझे मालूम हुए थे। फिर भी उनके प्रति मेरा आदर बना ही रहा। मैं यह जानता था कि बड़ों का आज्ञा का पालन करना चाहिये। वे जो कहें सो करना करे उसके काजी न बनना।
इसी समय के दो और प्रसंग मुझे हमेशा याद रहे हैं। साधारणतः पाठशाला की पुस्तकों छोड़कर और कुछ पढ़ने का मुझे शौक नहीं था। सबक याद करना चाहिये, उलाहना सहा नहीं जाता, शिक्षक को धोखा देना ठीक नहीं, इसलिए मैं पाठ याद करता था। लेकिन मन अलसा जाता, इससे अक्सर सबक कच्चा रह जाता। ऐसी हालत में दूसरी कोई चीज पढ़ने की इच्छा क्यों कर होती? किन्तु पिताजी की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी। नाम था श्रवण-पितृभक्ति नाटक। मेरी इच्छा उसे पढ़ने की हुई और मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया। उन्हीं दिनों शीशे मे चित्र दिखाने वाले भी घर-घर आते थे। उनके पास भी श्रवण का वह दृश्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को काँवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता हैं। दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मन में इच्छा होती कि मुझे भी श्रवण के समान बनना चाहिये। श्रवण की मृत्यु पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद हैं। उस ललित छन्द को मैंने बाजे पर बजाना भी सीख लिया था। मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिताजी ने एक बाजा दिया भी दिया था।
इन्हीं दिनों कोई नाटक कंपनी आयी थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। उस नाटक को देखते हुए मैं थकता ही न था। हरिशचन्द का आख्यान था। उस बारबार देखने की इच्छा होती थी। लेकिन यों बारबार जाने कौन देता ? पर अपने मन में मैने उस नाटक को सैकड़ो बार खेला होगा। हरिशचन्द की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते ? यह धुन बनी रहती। हरिशचन्द पर जैसी विपत्तियाँ पड़ी वैसी विपत्तियों को भोगना और सत्य का पालन करना ही वास्तविक सत्य हैं। मैंने यह मान लिया था कि नाटक में जैसी लिखी हैं, वैसी विपत्तियाँ हरिशचन्द पर पड़ी होगी। हरिशचन्द के दुःख देखकर उसका स्मरण करके मैं खूब रोया हूँ। आज मेरी बुद्धि समझती हैं कि हरिशचन्द कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं था। फिर भी मेरे विचार में हरिशचन्द और श्रवण आज भी जीवित हैं। मैं मानता हुँ कि आज भी उन नाटकों को पढ़ूं तो आज भी मेरी आँखों से आँसू बह निकलेंगे।