देश की ओर
अब मै दक्षिण अफ्रीका मे तीन साल रह चुका था। मैं लोगो को पहचाने लगा था और लोग मुझे पहचानने लगे थे। सन् 1896 में मैंने छह महीने के लिए देश जाने की इजाजत माँगी। मैने देखा कि मुझे दक्षिण अफ्रीका मे लम्बे समय तक रहना होगा। कहा जा सकता है कि मेरी वकालत ठीक चल रही थी। सार्वजनिक काम मे लोग मेरी उपस्थिति की आवश्यकता अनुभव कर रहे थे, मैं स्वयं भी करता था। इससे मैने दक्षिण अफ्रीका मे रहने का निश्चय किया और उसके लिए देश हो आना ठीक समझा। फिर, मैने यह भी देखा कि देश जाने से कुछ सार्वजनिक काम भी हो सकता हैं। मुझे लगा कि देश मे लोकमत जाग्रत करके यहाँ के भारतीयो के प्रश्न मे लोगो की अधिक दिलचस्पी पैदा की जा सकती हैं। तीन पौंड का कर एक नासूर था - सदा बहने वाला घाव था। जब तक वह रद्द न हो, चित के शांति नहीं मिल सकती थी।
लेकिन मेरे देश जाने पर कांग्रेस का और शिक्षा-मंडल का काम कौन संभाले ? दो साथियो पर मेरी दृष्टि पड़ी - आदमजी मियाँखान और पारसी रुस्तमजी। व्यापारी समाज मे बहुत से काम करने वाले निकल आये थे , पर मंत्री की काम संभाल सकने और नियमित रुप से काम करने और दक्षिण अफ्रीका मे जन्मे हुए हिन्दुस्तानियो का मन जीत सकने की योग्यता रखनेवालो मे ये दो प्रथम पंक्ति मे खड़े किये जा सकते थे। मंत्री के लिए साधारण अंग्रेजी जानने की जरुरत तो थी ही। मैने इन दो में से स्व. आदमजी मियाँखान को मंत्रीपद देने की सिफारिश कांग्रेस से की और वह स्वीकार कर ली गयी। अनुभव से यह चुनाव बहुत अच्छा सिद्ध हुआ। अपनी लगन , उदारता, मिठास और विवेक से सेठ आदमजी मियाँखान ने सब को सन्तुष्ट किया और सबको विश्वास हो गया कि मंत्री का काम करने के लिए वकील-बारिस्टर की या बहुत पढे हुए उपाधिधारी की आवश्यकता नही हैं।
सन् 1896 के मध्य मे मैं देश जाने के लिए 'पोंगोला' स्टीमर मे रवाना हुआ। यह स्टीमर कलकत्ते जानेवाला था।
स्टीमर मे मुसाफिर बहुत थे। दो अंग्रेज अधिरकारी थे। उनसे मेरी मित्रता हो गयी। एक के साथ मैं रोज एक घंटा शतरंज खेलने मे बिताता था। स्टीमर के डॉक्टर ने मुझे एक 'तामिल शिक्षक' (तामिल सिखानेवाली) पुस्तक दी। अतएव मैने उसका अभ्यास शुरु कर दिया।
नेटाल मे मैने अनुभव किया था कि मुसलमानो के साथ अधिक निकट सम्बन्ध जोड़ने के लिए मुझे उर्दू सीखनी चाहिये और मद्रासी भाईयो से वैसा सम्बन्ध स्थापति करने के लिए तामिल सीखनी चाहिये।
उर्दू के लिए उक्त अंग्रेज मित्र की माँग पर मैने डेक के मुसाफिरों में से एक अच्छा मुंशी ढूँढ निकाला और हमारी पढ़ाई अच्छी तरह चलने लगी। अंग्रेज अधिकारी की स्मरण शक्ति मुझसे बढ़ी-चढी थी। उर्दू अक्षर पहचानने में मुझे मुश्किल होती, पर वह तो एक बार जिस शव्द को देख लेते असे कभी भूलते ही न थे। मैं अधिक मेहनत करने लगा। फिर भी उनकी बराबरी नही कर सका।
तामिल का अभ्यास भी ठीक चलता रहा। उसमें किसी की मदद नहीं मिल सकती थी। पुस्तक ऐसे ढंग से लिखी गयी थी कि मदद की अधिक आवश्यकता न पड़े।
मुझे आशा थी कि इस तरह शुरु किये गये अभ्यासों को मैं देश मे पहुँचने के बाद भी जारी रख सकूँगा। पर वैसा न हो पाया। सन् 1893 के बाद का मेरा वाचन और अध्ययन मुख्यतः जेल मे ही हुआ। इन दोनो भाषाओ का ज्ञान मैने बढाया तो सही , पर वह सब जेल मे ही। तामिल का दक्षिण अफ्रीका की जेल में और उर्दू का यरवडा जेल में। पर तामिल बोलना मै कभी सीख न सका , पढना ठीक तरह से सीखा था , पर अभ्यास के अभाव मे अब उसे भी भूलता जा रहा हूँ। उस अभाव का दुःख मुझे आज भी व्यथित करता हैं। दक्षिण अफ्रीका के मद्रासी भाइयो से मैने भर-भर कर प्रेम-रस पाया हैं। उनका स्मरण मुझे प्रतिक्षण बना रहता हैं। उनकी श्रद्धा , उनका उद्योग , उनमे से बहुतो की निःस्वार्ख त्याग किसी भी तामिल-तेलुगु के देखने पर मुझे याद आये बिना रहता ही नही। और ये सब लगभग निरक्षरों की गिनती मे थे। जैसे पुरुष थे वैसी ही स्त्रियाँ थी। दक्षिण अफ्रीका की लड़ाई ही निरक्षरो की और उसके योद्धा भी निरक्षर थे - वह गरीबी की लड़ाई थी और गरीब ही उसमें जूझे थे।
इन भोले और भले भारतवासियों का चित्त चुराने में मुझे भाषा की बाधा कभी न पड़ी। उन्हें टूटी-फूटी हिन्दुस्तानी और टूटी-फूटी अंग्रेजी आती थी और उससे हमारी गाड़ी चल जाती थी। पर मैं तो इस प्रेम के प्रतिदान के रुप में तामिल-तेलुगु सीखना चाहता था। तामिल तो कुछ सीख भी ली। तेलुगु सीखने का प्रयास हिन्दुस्तान में किया , पर वह ककहरे के ज्ञान से आगे नही बढ़ सका।
मै तामिल-तेलुगु नही सीख पाया और अब शायद ही सीख पाऊँ, इसलिए यह आशा रखे हुए हूँ कि ये द्राविड़ भाषा-भाषी हिन्दुस्तानी भाषा सीखेंगे। दक्षिण अफ्रीका के द्राविड़ 'मद्रासी' तो थोड़ी बहुत हिन्दी अवश्य बोल लेते हैं। मुश्किल तो अंग्रेजी पढे-लिखो की हैं। ऐसा प्रतीत होता हैं, मानो अंग्रेजी का ज्ञान हमारे लिए अपनी भाषाये सीखने मे बाधारुप हो ! पर यह तो विषयान्तर हो गया। हन अपनी यात्रा पूरी करें।
अभी 'पोंगोला' के कप्तान का परिचय कराना बाकी है। हम परस्पर मित्र बन गये थे। यह भला कप्तान 'प्लीमथ ब्रदरन' सम्प्रदाय का था। इससे हमारे बीच नौकाशास्त्र की बातों की अपेक्षा अध्यातम-विद्या की बाते ही अधिक हुई। उसने नीति औऱ धर्मश्रद्धा में भेद किया। उसके विचार मे बाइबल की शिक्षा बच्चो का खेल था। उसकी खूबी ही उसकी सरलता मे थी। बालक, स्त्री, पुरुष सब ईसा को और उनके बलिदान को मान ले , तो उनके पाप धुल जाये। इस प्लीमथ ब्रदर ने प्रिटोरिया वाले ब्रदर के मेरे परिचय का ताजा कर दिया। जिस धर्म में नीति की रखवाली करनी पड़े , वह धर्म उसे नीरस प्रतीत हुआ। इस मित्रता औऱ आध्यात्मिकता चर्चा की जड़ में मेरा अन्नाहार था। मै माँस क्यो नही खाता ? गोमाँस मे क्या दोष है ? क्या पेड़-पौधो की तरह ही पशु-पक्षियों को भी ईश्वर ने मनुष्य आहार और आनन्द के लिए नही श्रृजा हैं ? ऐसी प्रश्नावली आध्यात्मिक चर्चा उत्पन्न किये बिना रह ही नही सकती थी।
हम एक-दूसरे को अपने विचार समझा नही सके। मै अपने इस विचार मे ढृढ था कि धर्म और नीति एक ही वस्तु के वाचन हैं। कप्तान को अपने मत के सत्य होने में थोडी भी शंका नही थी।
चौबीस दिन के बाद यह आनन्दप्रद यात्रा पूरी हुई और हुगली का सौन्दर्य निहारता हुआ मै कलकत्ते उतरा। उसी दिन मैने बम्बई जाने का टिकट कटाया।