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अपर्याप्तं तदस्माकम्

गीता के प्रथमाध्याबय के 'अपर्याप्तं तदस्माकम्' (1। 10) श्लोक के अर्थ में बहुत मतभेद हैं। इसके शब्दों और उनके अर्थों की मनमानी खींचतान की गई है। अत: स्पष्टीकरण जरूरी है। संक्षेप में दो खयाल के लोग इस संबंध में पाए जाते हैं। एक तो वह हैं जो मानते हैं कि दुर्योधन अपनी फौज को कमजोर या नाकाफी कहे, इसकी कोई वजह नहीं थी। इसके उलटे काफी और अपरिमित कहने के कई प्रमाण वे लोग पेश करते हैं। पहली बात यह है कि खुद दुर्योधन ने उद्योगपर्व (54। 60-70) में अपनी सेना की सब तरह से तारीफ करके कहा था कि जीत मेरी ही होगी। दूसरी यह कि उसने गीता में जो श्लोक कहे हैं प्राय: इसी तरह के श्लोक उसके मुँह से गीता के बाद ही भीष्मपर्व (51। 4-6) में पुनरपि द्रोणाचार्य के ही सामने निकले हैं। तीसरी यह कि यह बयान अपने सैनिकों को प्रोत्साहित करने के ही लिए तो किया गया है। फिर इसमें अपनी ही कमजोरी की बात कैसे आएगी? तब तो उलटा ही प्रभाव होगा न? और स्वयं दुर्योधन ही इतनी बड़ी भूल करे, यह कब संभव है? जो लोग ऐसा खयाल करते हैं कि दुर्योधन डर के मारे ही ऐसा कह रहा था, वह भूलते हैं। क्योंकि महाभारत की लंबी पोथी में कहीं भी उसके भयभीत होने का जिक्र है नहीं। विपरीत इसके भीष्मपर्व (19। 5 तथा 21। 1) से पता चलता है कि दुर्योधन की ग्यारह अक्षौहिणी के मुकाबिले में अपनी केवल सात ही अक्षौहणी सेना देख के युधिष्ठिर को ही खिन्नता हुई थी।

इसीलिए इस खयाल के लोग इस श्लोक के पर्याप्त और अपर्याप्त शब्दों का आमतौर से प्रचलित अर्थ काफी और नाकाफी मानने में दिक्कत एवं ऊपरवाली अड़चनें देख के इनका दूसरा ही अर्थ मर्यादित या परिमित और अमर्यादित या अपरिमित करते हैं। इन अर्थों में भी दिक्कत जरूर है। क्योंकि ये प्रचलित नहीं हैं। मगर ऊपर लिखी दिक्कतों की अपेक्षा यह दिक्कत कोई चीज नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में ही तो शब्दों के दूसरे-दूसरे अर्थ माने जाते हैं जो आमतौर से अप्रसिद्ध होते हैं। इसीलिए शब्दों को पतंजलि ने महाभाष्य में बार-बार कामधेनु कहा है : 'शब्दा: कामधेनव:'। क्योंकि संकट के समय या मौके पर जैसा चाहिए इनसे अर्थ (प्रयोजन) प्राप्त कर लीजिए। यही है पहले खयालवालों की स्थिति।

मगर दूसरे खयाल वाले शब्दों के प्रचलित और आमतौर से मालूम अर्थों को छोड़ने के लिए यहाँ तैयार नहीं हैं। इस संबंध में जो दलीलें पहले खयाल वाले देते हैं उनके विचार से वे सभी लचर हैं। शब्दों के अर्थों के बारे में मीमांसादर्शन में जो यह नियम माना गया है कि शब्द से आमतौर से मालूम होने वाले सीधे अर्थ को ही लेना चाहिए उसे छोड़ने का कारण कोई भी यहाँ है नहीं। बेशक दुर्योधन भयभीत था और इसके लिए दूर न जा के इसी श्लोक में प्रमाण रखा हुआ है। श्लोक के पूर्वार्द्ध में 'अपर्याप्तं' के बाद ही 'तत्' शब्द हैं जिसके आगे 'अस्माकं' है। इसी तरह उत्तरार्द्ध में 'पर्याप्तं तु' के बाद 'इदम्' है जिसके बाद 'एतेषां' आया है। 'तत्' का अर्थ है वह या जो सामने न हो। जो पदार्थ केवल दिमाग में हो और सामने न हो साधारणतया उसी को बताने के लिए 'तत्' आता है। इसके उलटा जो चीज सामने हो उसी का वाचक 'इदम्' है।

अब जरा मजा तो देखिए कि खुद अपनी ही फौज में खड़ा हो के दुर्योधन द्रोणाचार्य से बातें कर रहा है और अपने खास-खास योद्धाओं के नाम उसने अभी-अभी गिना के यह श्लोक कहा है - यह बात कही है। पांडव-सेना की बात पहले कह के अपनी फौज की पीछे बोला है और फौरन ही उसी के बाद 'अपर्याप्तं' आया है। ऐसी हालत में तो हर तरह से अपनी ही सेना सामने है और पांडवों की हर तरह से दूर है। यों भी दूर खड़ी है और उसकी चर्चा भी पहले हो चुकी है। फिर भी उसी को सामने और प्रत्यक्ष कहता है। 'इदम्' कहता है और अपनी को परोक्ष और दूर की। क्यों? इसीलिए न, कि उसके भीतर आतंक छाया है, उसे डर और घबराहट है और भूत की तरह पांडवों की सेना उसकी छाती पर जैसे सवार है? इसी घबराहट में अपनी फौज जैसे भूली-सी हो। आँखों के सामने और दिल-दिमाग पर तो पांडवों की फौज ही नाचती है। फिर कहे तो क्या कहे? अपनी फौज और अपनी शेखी तो भूल-सी गई है! यह बात इतनी साफ है कि कुछ पूछिए मत।

दूसरी बात है 'भीष्माभिरक्षितं' और 'भीमाभिरक्षितं' शब्दों की। यह तो सभी को मालूम था ही और दुर्योधन भी अच्छी तरह जानता था कि जहाँ भीम एक तरफा और आँख मूँद के लड़नेवाले हैं, वहाँ भीष्म दो नाव पर चढ़नेवाले और सोच-विचार के लड़नेवाले हैं। इसमें कई बातें हैं। महाभारत पढ़ने वाले जानते हैं कि कर्ण और भीष्म में तनातनी थी जिसके चलते कर्ण ने कह दिया था कि जब तक भीष्म जिंदा हैं मैं युद्ध से अलग रहूँगा। इसीलिए तो गीता के बाद वाले पहले ही अध्याकय में लिखा है कि युधिष्ठिर ने उसे अपनी ओर मिलाने की बड़ी कोशिश की थी। फिर भी न आया यह बात दूसरी है। मगर वही वैर बता के वह उसे फोड़ना चाहते थे। अगर नहीं फूटा तो इससे पता लगता है कि वह दुर्योधन का पक्का आदमी था। मगर पक्का तो सेनारक्षक हो नहीं और दुभाषिया हो सेनापति, यह क्या कमजोरी की बात नहीं है? इसी से तो दुर्योधन को डर था। मगर भीम के बारे में कोई ऐसी बात न थी।

वह यह भी जानता था कि शिखंडी से भीष्म को खतरा है। इसीलिए इस श्लोक के बाद के श्लोक में ही दुर्योधन सभी से कहता है कि आप लोग सबके-सब सिर्फ भीष्म को ही बचाएँ - "भीष्ममेवाभिरक्षंतु भवंत: सर्व एव हिं।" लेकिन यह भी क्या अजीब बात है कि जो ही है सेनापति और सेना का रक्षक हो उसी की रक्षा के लिए शेष सभी को आदेश दिया जाए कि आप लोग 'केवल भीष्म' - 'भीष्ममेव' - की रक्षा करें! मालूम होता है, दूसरा कोई भी इससे जरूरी काम न था। मगर जिस फौज के सेनापति के ही बारे में यह बात हो वह फौज क्या जीतेगी ख़ाक? ऐसा कहीं नहीं देखा-सुना कि फौज के सभी प्रमुख योद्धा केवल सेनापति की ही रक्षा करें। मगर भीम के बारे में तो यह बात न थी। उन्हें कुछ सोचना-विचारना थोड़े ही था कि किस पर अस्त्र चलाएँ किस पर नहीं। इस मामले में तो वे ऐसे थे कि मीनमेख करना जानते ही न थे। बल्कि मीनमेख से चिढ़ते थे। वे तो युधिष्ठिर को कोसा करते थे कि आपको बुद्धि की बदहजमी और धर्म की बीमारी लगी है, जिससे रह-रह के मीनमेख निकाला करते हैं।

महाभारत में गीता के बादवाले अध्या्य में ही यह बात लिखी है कि भीष्म ने साफ ही कह दिया कि युधिष्ठिर, जाओ, जीत तुम्हारी ही होगी। उनने यह भी कहा था कि क्या करूँ मजबूरी है इसीलिए लड़ुँगा तो दुर्योधन की ही ओर से, हालाँकि पक्ष तुम्हारा ही न्याययुक्त है। इसीलिए तुम्हारे सामने दबना पड़ता है और सिर उठा नहीं सकता। क्या ऐसे ही 'आ फँसे' वाले सेनापति से जीत हो सकती थी? और क्या इतनी बात भी दुर्योधन समझता न था? खूबी तो यह है कि न सिर्फ भीष्म, किंतु द्रोण, कृप और शल्य भी इसी ढंग के थे और यह बात उसे ज्ञात न थी यह कहने की हिम्मत किसे है? विपरीत इसके भीम अपने पक्ष के लिए मर-मिटने वाला था, उचित-अनुचित सब कुछ कर सकता था। इसीलिए तो दुर्योधन की कमर के नीचे उसने गदा मारी जो पुराने समय के नियमों के विरुद्ध काम था और इसीलिए अपने चेले दुर्योधन की कमर टूटने पर बलराम बिगड़ खड़े भी हुए थे कि भीम ने अनुचित काम किया। मगर भीम को इसकी क्या परवाह थी?

जरा यह भी तो देखिए कि जहाँ स्वयं दुर्योधन ने शत्रुओं की सेना और उसके सेनानायकों का वर्णन पूरे चार (3 से 7) श्लोकों में किया है, तहाँ अपनी सेनावालों का सिर्फ एक (8) ही श्लोक में करके अगले (9वें) में केवल इतने से ही संतोष कर लिया है कि और भी बहुतेरे हैं जो मेरे लिए मर-मिटेंगे! आखिर बात क्या है? यह 'प्रथमग्रासे मक्षिकाभक्षणम्' कैसा? अपने ही लोगों का कीर्त्तन इतना संक्षिप्त? इसमें भी खूबी यह कि जिनके नाम गिनाए हैं उनमें एकाध को छोड़ सभी दो तरफे हैं, और विकर्ण तो साफ ही युधिष्ठिर की ओर जा मिला था, यह गीता के बादवाले ही अध्यांय में लिखा है। शत्रु पक्ष के वर्णन में भी यह बात है कि द्रुपदपुत्र की बड़ी तारीफ की है। कहता है कि आपका ही चेला है। बड़ा काइयाँ है और वही है सेना को सजा के नाके पर खड़ी करने वाला। सभी को भीम और अर्जुन के समान ही युद्ध के बहादुर भी कह दिया है 'भीमार्जुन समायुधि'। अंत में सभी को यह भी कह दिया कि महारथी ही हैं - 'सर्व एव महारथा:'। क्या ये एक बातें भी अपनों के बारे में उसने कही हैं? और अगर कोई यह कहने की हिम्मत करे कि शत्रुओं की यह बड़ाई तो सिर्फ अपने लोगों को उत्तेजित करने के ही लिए है, तो यही बात 'अपर्याप्तं' श्लोक के बारे में भी क्यों नहीं लागू होती? दरअसल तो उसके दिल पर पांडवों का आतंक छाया हुआ था। फिर वैसा कहता क्यों नहीं?

एक बात और देखिए। उसके कह चुकने पर 'तस्य संजनयन्हर्षं' इस बारहवें श्लोक में यह कहा गया है कि दुर्योधन के भीतर बखूबी हर्ष पैदा करने के लिए भीष्म ने शंख बजाया। जरा गौर कीजिए कि 'उसके हर्ष को बढ़ाने के लिए' कहने के बजाए यह कहा गया है कि 'उसका हर्ष पैदा करने के लिए' - 'हर्षं संजनयन्'। जन धातु का अर्थ पैदा करना ही होता है न कि बढ़ाना। जो चीज पहले से न हो उसी को तो पैदा करते हैं। जो पहले से ही हो उसे तो केवल बढ़ा सकते है। इसी से पता लग जाता है कि दुर्योधन के भीतर हर्ष का नाम भी न था। इसीलिए भीष्म ने उसे पैदा करने की कोशिश की। 'जनयन्' के पहले जो 'सम्' दिया गया है उससे यह भी प्रकट होता है कि काफी मनहूसी थी जिसे हटा के खुशी लाने में भीष्म को अधिक यत्न करना पड़ा।

यह भी तो विचित्र बात है कि वह बातें तो करता है द्रोण से। मगर वह तो कुछ बोलते या करते नहीं। किंतु उसे खुश करने का काम भीष्म करते हैं जिनके पास वह गया तक नहीं! वह जानता था कि उनके पास जाना या कुछ भी कहना बेकार है। वह तो सुनेंगे नहीं। उलटे रंज हो गए तो और भी बुरा होगा। इसीलिए सेनापति होते हुए भी उन्हें छोड़ के द्रोण के पास दुर्योधन इसीलिए गया कि खतरे से सजग कर दिया जाए। उचित तो सेनापति के ही पास जाना था। यही तरीका भी है। मगर न गया। इससे भीष्म को भी पता चल गया कि मेरी ओर से उसे शक है। इसी से भीतर ही भीतर नाखुश है। उसी नाखुशी को दूर करने के लिए उनने बिना कहे-सुने शंख बजाया। नहीं तो एक प्रकार के इस अकांड तांडव का प्रयोजन था ही क्या? जोर से सिंहगर्जन करना और खूब तेज शंख बजाना अपनी सफाई ही तो थी।

द्रोण के पास जाने में दुर्योधन का और भी मतलब था। युद्धविद्या के आचार्य तो वही थे। इसलिए आगे लड़ाई की सफलता और भीष्मादि की रक्षा का ठीक उपाय वही बता सकते थे। यह काम जितनी खूबी के साथ वह कर सकते थे दूसरा कोई भी कर न सकता था शत्रुओं की सारी कला और खूबियों को वही जानते थे। उन्हें जरा उत्तेजित भी करना था। जिन्हें सिखा-पढ़ा के उनने तैयार किया वही अब उन्हीं से निपटने को तैयार हैं! जिस धृष्टद्युम्न को रणविद्या दी उसी ने आप ही के खिलाफ व्यूह रचना की है! कृतघ्नता की हद हो गई! इसीलिए जो 'तव शिष्येण' यह विशेषण उसने 'द्रुपद पुत्रेण' के साथ लगाया है उसके दोनों ही मानी हैं। एक तो यह कि सजग रहिए, वह काफी होशियार है। क्योंकि आपका ही सिखाया-पढ़ाया है। दूसरा यह कि चेला हो के गुरु के ही खिलाफ लड़ने की पूरी तैयारी में है, यह उसकी शोखी देखिए।

यह दलील, कि उत्तेजित करने और जोश बढ़ाने के बजाए डराने वाली कमजोरी की बात कैसे कहेगा, क्योंकि तब तो सभी लोग डर जाएँगे ही और सारा गुड़ ही गोबर हो जाएगा, भी निस्सार है। वह तो सिर्फ द्रोण से ही बातें कर रहा था। बाकी लोगों को क्या मालूम कि क्या बातें हो रही हैं? फिर उनके डरने का सवाल आता ही कहाँ से है? और द्रोण से भी सारी हकीकत और असलियत छिपाई जाए, यह कौन-सी बुद्धिमानी थी? वही तो दिक्कतों और खतरों का रास्ता सुझा सकते थे। आखिर दुर्योधन और किससे दिल की बातें कहता? द्रोणाचार्य इस बात का डंका पीटने तो जाते न थे कि सभी के दिल दहलने की नौबत आ जाती। और जब आगे 'सघोषोधार्त्तराष्ट्राणां' (19) श्लोक में साफ ही कह दिया है कि पांडवों की शंखध्वनियों से दुर्योधन के दलवालों का कलेजा दहल गया, जो फिर वही बात चाहे एक मिनट आगे हुई या पीछे, इसमें खास ढंग का ऐतराज क्या हो सकता है? जब भीष्मपर्व के पहले ही अध्याआय के 18-19 श्लोकों में यही बात लिखी जा चुकी है कि केवल कृष्ण और अर्जुन के शंखों की ही आवाज से दुर्योधन की सेना के लोग ऐसे भयभीत हो गए जैसे सिंह के गर्जन से हिरण काँप उठते हैं, इसीलिए हालत यहाँ तक हो गई कि सभी की पाखाना-पेशाब तक उतर आई, तो फिर यहाँ दुर्योधन की बातों से दहलने का क्या प्रश्न?

अब रही यह दलील कि उद्योगपर्व में दुर्योधन ने स्वयं अपनी सेना की बड़ाई करके विजय का विश्वास जाहिर किया था यह भी वैसी ही है। यों प्रशंसा के पुल बाँधना और मनोराज्य के महल बनाना दूसरी चीज है। उसे कौन रोके। उसमें बाधा भी क्या है। मगर जब ऊँट पहाड़ पर चढ़ता है तो उसका बलबलाना बंद हो जाता है। ऊँचाई कैसी है इसका मजा भी मिलता है। यही बात हमेशा होती है जब ठोस चीजों और परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। अर्जुन ने भी तो बहुत दिनों से जान-बूझ के लड़ाई की तैयारी की थी और जब कभी युधिष्ठिर जरा भी आगा-पीछा करते तो घबरा जाते थे और उन्हें कुछ सुना भी देते थे। मगर मैदाने जंग में जब सभी चीजें सामने आईं और ठोस परिस्थिति चट्टान की तरह आ डँटी तो घबरा के धर्मशास्त्र की पोथियों के पन्ने उलटने लगे। क्या उन्हें पहले मालूम न था कि युद्ध में गुरुजनों और कुल का संहार होगा? फिर यह रोना पसारने की वजह क्या थी सिवाय इसके कि पहले ठोस चीजें सामने न थीं, केवल दिमागी बातें थीं, मगर अब वही चीजें स्वयं सामने आ गईं? यही बात दुर्योधन की थी। पहले बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ थीं। मगर युद्ध के मैदान में सारा रंग फीका हो गया।

गीता के बाद भी यदि यही श्लोक आए हैं तो इससे क्या? अगर इन श्लोकों से उसकी त्रस्तता सिद्ध होती है तो बादवाले भी यही सिद्ध करेंगे। हाँ, यदि इनमें ही उत्साह-उमंग हो तो बात दूसरी है। मगर यही तो अभी सिद्ध करना है। इसलिए बाद के श्लोक तो गीता के ही श्लोकों के अर्थ पर निर्भर करते हैं। यदि गीता में ही बाद के 12 से लेकर 19 तक के आठ श्लोकों को देखा जाए तो पता चलता है कि केवल दो श्लोकों में दुर्योधन के पक्ष वालों के बाजे-गाजे वगैरह बजने की बात लिखी है और बाकी 6 में पांडव पक्ष की! खूबी तो यह है कि इन दोनों में भी पहले में सिर्फ भीष्म के गर्जन और शंखनाद की बात है। दूसरे में भी किसी का नाम न ले के इतना ही लिखा है कि उसके बाद एक-एक शंख, नफीरी आदि बज पड़ीं। मगर पांडव पक्ष का तो इन शेष 6 श्लोकों में पूरा ब्योरा दिया गया है कि किसने क्या बजाया। इससे इतना तो साफ हो जाता है कि कम से कम गीताकार तो पांडव पक्ष का ही महत्त्व दिखाते हैं, दिखाना चाहते हैं, और हमें गीता के ही श्लोकों का आशय समझना है। महाभारत में क्या स्थिति थी, इसका पता हमें दूसरी तरह से तो है भी नहीं कि गीता के शब्दों को भी खींच-खाँचकर उसी अर्थ में ले जाए। अतएव हमने जो अर्थ इस श्लोक का लिखा है वही ठीक और मुनासिब है।

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत