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कर्मवाद

मगर इतने से भी काम चलता न दीखा। यदि ऐसा ईश्वर हो कि जो चाहे सोई करे तो उस पर स्वेच्छाचारिता (Autocracy) का आरोप आसानी से लग सकता है। सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक होने के कारण उसकी स्वेच्छाचारिता बड़ी ही खतरनाक सिद्ध होगी। जिस व्यवस्था और नियमितता के लिए हम उसे स्वीकार करते हैं या उसका लोहा मानते हैं, वही न रह पाएगी। क्योंकि उसकी स्वतंत्रता ही कैसी यदि उस पर बंधन लगा रहा? वह स्वतंत्र ही कैसा यदि उसने किसी बात की परवाह की? यदि उस पर कोई भी अंकुश रहे, चाहे वह कैसा भी क्यों न हो, तो वह परतंत्र ही माना जाएगा। यह प्रश्न मामूली नहीं है। यह एक बहुत बड़ी चीज है। जब हम किसी बात को बुद्धि और तर्क की तराजू पर तौलते हैं, तो हमें उसके नतीजों के लिए तैयार रहना ही होगा। यह दार्शनिक बात है। कोई खेल, गप्प या कहानी तो है नहीं। इस प्रकार के ईश्वर को मानने पर क्या होगा यह बात आँखें खोल के देखने की है। पुराने महापुरुषों ने - दार्शनिकों ने - इसे देखा भी ठीक-ठीक। वे इस पहेली को सुलझाने में सफल भी हुए, चाहे संसार उसे गलत माने या सही। और हमारी सभी बातें सदा ध्रुव सत्य हैं यह दावा तो समझदार लोग करते ही नहीं। ज्ञान का ठीका तो किसी ने लिया है नहीं। तब हमारे दार्शनिक ऐसी गलती क्यों करते? उन्हें जो सूझा उसे उनने कहा दिया।

इस दिक्कत से बचने के ही लिए उनने कर्मवाद की शरण ली। असल में यह बात भी उनने अपने अनुभव और आँखों देखी के ही अनुसार तय की। उनने सोचा कि प्रतिदिन जो कुछ भी बुरा-भला होता है वह कामों के ही अनुसार होता है। चाहे खेती-बारी लें या रोजगार-व्यापार, पढ़ना-लिखना, पारितोषिक, दंड और हिंसा-प्रतिहिंसा के काम। सर्वत्र एक ही बात पाई जाती है। जैसे करते हैं वैसा पाते हैं। जैसा बोते हैं वैसा काटते हैं। गाय पालते हैं तो दूध दुहते हैं। साँप पाल के जहर का खतरा उठाते हैं। सिंह पाल के मौत का। जान मारी तो जान देनी पड़ी। पढ़ा तो पास किया। न पढ़ा तो फेल रहे। अच्छे काम में इनाम मिला और बुरे में जेल या बदनामी हाथ आई। असल में यदि कामों के अनुसार परिणाम की व्यवस्था न हो तो संसार में अंधेरखाता ही मच जाए। जब इससे उलटा किया जाता है तो बदनामी और शिकायत होती है, पक्षपात का आरोप होता है। यदि इसमें भी गड़बड़ होती है तो वह काम के नियम का दोष न हो के लोगों की कमजोरी और नादानी से ही होती है। अगर काम के अनुसार फल का नियम न हो तो कोई कुछ करे ही न। पढ़ने में दिमाग खपानेवाला फेल हो जाए और निठल्ला बैठा पास हो। खेती करनेवाले को गल्ला न मिले और बैठे-ठाले की कोठी भरे। ऐसा भी होता है कि एक के काम का परिणाम वंशपरंपरा को भी भुगतना पड़ता है। यदि अपनी नादानी से कोई पागल हो जाए तो वंश में भी उसका फल बच्चों और उनके बच्चों तक पहुँचता है। ऐसी ही दूसरी भी बीमारियाँ हैं। एक के किए का फल सारा वंश, गाँव या देश भी भुगतता है।

इस प्रकार एक तो कर्म ही सारी व्यवस्था के करने वाले सिद्ध हुए। दूसरे उनके दो विभाग भी हो गए। एक का ताल्लुक उसी व्यक्ति से होता है जो उसे करे। यह हुआ व्यष्टि कर्म। दूसरे का संबंध समाज, देश या पुश्त-दरपुश्त से होता है। यही है समष्टि कर्म। ऐसा भी होता है कि हरेक आदमी अपने काम से अपनी जरूरत पूरी कर लेता है। नदी से पानी ला के प्यास बुझा ली। मिहनत से पढ़ के पास कर लिया। बेशक इसमें विवाद की गुंजाइश है कि कौन व्यक्तिगत या व्यष्टि कर्म है और समष्टि। मगर इसमें तो शक नहीं कि व्यष्टि कर्म है। जहर खा लिया और मर गए। हाँ, समष्टि कर्म में एक से ज्यादा लोग शरीक होते हैं। कुआँ अकेले कौन खोदे? खेती एक आदमी कर नहीं सकता। घर-बार सभी मिल के उठाते हैं। समष्टि कर्म यही हैं। सभी मिलके करते और फल भी सभी भोगते हैं। कभी-कभी एक का किया भी अनेक भुगतते हैं। फलत: वह भी समष्टि कर्म ही हुआ।

बस, तत्वदर्शियों ने इस सृष्टि का यही सिद्धांत सभी बातों में लागू कर दिया। उनने माना कि जन्म-मरण, सुख-दु:ख, बीमारी, आराम वगैरह सभी के मूल में या तो व्यष्टि या समष्टि कर्म हैं। उनने सभी की स्वतंत्रता मर्यादित कर दी। चावलों या पदार्थों के परमाणुओं के आने-जाने से लेकर सारे संसार के बनाने-बिगाड़ने या प्रबंध का काम ईश्वर के जिम्मे हुआ और सभी पदार्थ उसके अधीन हो गए। ईश्वर भी जीवों के कर्मों के अनुसार ही व्यवस्था करेगा। यह नहीं कि अपने मन से किसी को कोढ़ी बना दिया तो किसी को दिव्य; किसी को राजा तो किसी को रंक; किसी को लूटने वाला तो किसी को लुटानेवाला। जीवों के कर्मों के अनुसार ही वह सब व्यवस्था करता है। जैसे भले-बुरे कर्म हैं वैसी ही हालत है, व्यवस्था है। कही चुके हैं कि बहुतेरे कर्म पुश्त-दर-पुश्त तक चलते हैं। इसीलिए इस शरीर में किए कर्मों में जिनका फल भुगताना शेष रहा उन्हीं के अनुसर अगले जन्म में व्यवस्था की गई। जैसे भले-बुरे कर्म थे वैसी ही भली-बुरी हालत में सभी लोग लाए गए। इस तरह ईश्वर पर भी कर्मों का नियंत्रण हो गया। फिर मनमानी घरजानी क्यों होगी? तब वह निरंकुश या स्वेच्छाचारी क्यों होगा? कर्म भी खुद कुछ कर नहीं सकते। वह भी किसी चेतन या जानकार के सहारे ही अपना फल देते हैं। वे खुद जड़ या अंधे जो ठहरे। इस तरह उन पर भी ईश्वर का अंकुश या नियंत्रण रहा - वे भी उसके अधीन रहे। सारांश यह है कि सभी को सबकी अपेक्षा है। इसीलिए गड़बड़ नहीं हो पाती। किसी का भी हाथ सोलह आना खुला नहीं कि खुल के खेले।

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत