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श्रद्धा का स्थान

मगर गीता का यह उत्तर नहीं है। काम चलाने की या गोल-मोल बातें गीता की शान के खिलाफ हैं। उसे तो साफ और बेलाग बोलना है। इसीलिए वह कहती है कि 'त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥ सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छृद्ध: स एव स:' (17। 2-3)। इसका आशय है, 'आदमियों की श्रद्धा स्वभावत: तीन ही तरह की होती है, सात्विक, राजस और तामस। इस श्रद्धा की हालत सुनिए। सत्त्वगुण के तारतम्य के हिसाब से ही सबों की श्रद्धा होती है और आदमी को तो श्रद्धामय ही समझना होगा। इसीलिए जिसकी श्रद्धा जैसी हो वह वैसा ही समझा जाए।' इसका निचोड़ यह है कि जिसका हृदय सत्त्व प्रधान है - जिसमें सत्त्वगुण की प्रधानता है - वह सात्त्विक आदमी है। जिसमें सत्त्व दबा हुआ है और रजोगुण की प्रधानता है। वह राजस है। जिसमें सत्त्व के बहुत ही अल्प होने के साथ ही रजोगुण भी दबा है और तमोगुण ही प्रधान है वही तामसी मनुष्य होता है। और जैसा मनुष्य वैसी श्रद्धा या जैसी श्रद्धा वैसा ही मनुष्य, यही सिद्धांत माननीय होने के कारण जैसी ही श्रद्धा के साथ काम किया जाएगा वैसा ही भला या बुरा होगा। सात्त्विक श्रद्धावाला बहुत अच्छा, राजसवाला बुरा और तामसवाला बहुत ही खराब समझा जाना चाहिए।

इसका मतलब समझना होगा। हरेक कर्म के करने वाले का वश परिस्थिति पर तो होता नहीं कि वह विद्वान हो, विद्वानों के बीच में ही रहे, पढ़ने-लिखने की पूरी सामग्री उसे मिले, उसकी बुद्धि खूब ही कुशाग्र हो, वह भूल कभी करी न सके। ऐसा होने पर वह मनुष्य ही क्यों हो? और उसके कर्तव्याकर्तव्य का झमेला ही क्यों उठे? वह तो सब कुछ जानता ही है। एक बात और। वह शास्त्रों के वचनों के अनुसार ही काम करें, यह तो ठीक है। मगर सवाल तो यह है न, कि उन वचनों का अर्थ वह समझे कैसे? किसकी बुद्धि से समझे? कल्पना कीजिये कि मनु ने एक वचन कर्तव्य के बारे में लिखा है जिसका अर्थ समझना जरूरी है। क्योंकि बिना अर्थ जाने अमल होगा कैसे? तो वह अर्थ मनु की ही बुद्धि से समझा जाए या करने वाले की अपनी बुद्धि से? यदि पहली बात हो, तो वह ठीक-ठीक समझा तो जा सकता है सही, इसमें शक नहीं। मगर करने वाले के पास मनु की बुद्धि है कहाँ? वह तो मनु के ही पास थी और उनके साथ ही चली गई।

अब यदि यह कहें कि करनेवाला अपनी ही बुद्धि से मनु के वचन का भाव समझे, क्योंकि मनु की बुद्धि उसमें होने से तो वह भी खुद मनु बन जाएगा और समझने की जरूरत उसे रहेगी ही नहीं; तो दिक्कत यह होती है कि अपनी बुद्धि से मनु का आशय कैसे समझें? जो चीज मनु की बुद्धि में समाई वही वैसे ही उसकी बुद्धि में तभी समा सकती है जब उसे भी मनु जैसी ही बुद्धि हो मगर यह तो असंभव है ऐसा कही चुके हैं। सभी लोग मनु कैसे बन जाएँगे? फलत: जैसा समझेगा गलत या सही वैसा ही ठीक होगा। दूसरा उपाय है नहीं। फिर तो वैसा ही गलत या सही करेगा भी। किया भी आखिर क्या जाए? मगर तब शास्त्र की बात की कीमत क्या रही? एक ही शास्त्र-वचन के हजार अर्थ हो सकते हैं अपनी-अपनी समझ के अनुसार, और यह एक खासा तमाशा हो जाएगा।

एक बात और भी है। यदि मुनि की ही समझ के अनुसार चलना हो तो बुरे-भले का दोष-गुण मनु पर न जाके करने वाले पर क्यों जाए? वह अपनी समझ से तो कुछ करता नहीं। उसकी अपनी समझ को तो कर्म-अकर्म के संबंध में कोई स्थान हई नहीं। उसे मनु का आशय ठीक-ठीक समझना जो है। और अगर यह बात नहीं है तो शास्त्र के आदेश और विधि-विधान का प्रयोजन ही क्या है? यदि मनु के माथे दोष-गुण न लदें इस खयाल से करने वाले को अपनी ही बुद्धि से समझना और करना है तब शास्त्र बेकार है। यह ठीक है कि जिसे अधिकार दिया गया है उसी पर जवाबदेही आती है। मगर यह जवाबदेही तो बिना शास्त्र के भी आई जाएगी। चाहे शास्त्र की बातें अपनी अक्ल से समझ के करे या बिना शास्त्र-वास्त्र के ही अपनी ही समझ से जैसा जँचे वैसा ही करे। दोनों का मतलब एक ही हो जाता है। फलत: शास्त्र खटाई में ही पड़ा रह जाता है। यही समझ के अर्जुन ने शंका की थी कि 'जो लोग शास्त्री य विधि-विधान का झमेला, किसी भी तरह, छोड़ के श्रद्धापूर्वक यज्ञादि कर्म करते हैं उनकी हालत क्या होगी? वे क्या माने जाएँ - सात्त्विक, राजस या तामस?' - 'ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजंते श्रद्धयान्विता:। तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तम:' (17। 1)।

गीता में इसका जो कुछ उत्तर दिया गया है वह यही है कि शास्त्र की बात तो यों ही है। इसीलिए इसे बच्चों को फुसलाने वाली चीज पुराने लोगों ने मानी है - 'बालानामुपलालना'। असली चीज जो कर्म के स्वरूप को निश्चित करती है वह है करने वाले की श्रद्धा ही। जैसा हमारी समझ में - हमारे दिल-दिमाग में - आया वैसा ही हमने ईमानदारी से किया, यही श्रद्धापूर्वक करने का मतलब है। यह नहीं कि समझते हैं कुछ और धारणा है कुछ। मगर डर, शर्म या लोभ वगैरह के चलते करते हैं कुछ और ही। फिर भी श्रद्धा के नाम से पार हो जाएँ। श्रद्धापूर्वक करने का ऐसा मतलब हर्गिज नहीं है। तब तो अंधेरखाता ही होगा और उसी पर मुहर लग जाएगी। दिल-दिमाग, जबान और हाथ-पाँव आदि के मेल या सामंजस्य की जो बात पहले कही गई है उसी से यहाँ मतलब है। उसमें जरा भी फेरफार नहीं होना चाहिए। जितना ही फेरफार होगा उतनी ही गड़बड़ और कमी समझिए। सत्रहवें अध्या य के अलावा 7वें के 20-23 तथा नवें के 23-33 श्लोकों में भी यही भाव दर्शाया गया है। यदि गौर से विचारा जाए तो उनका दूसरा मतलब होई नहीं सकता। उनके बारे में प्रसंगवश आगे भी प्रकाश डाला जाएगा। चौथे अध्यााय के 11, 12 श्लोक भी कुछ ऐसे ही हैं।

इससे यह भी हो जाएगा कि करने वाले पर ही उत्तरदायित्व होगा। क्योंकि समझ के ही साथ उत्तरदायित्व चलता है। इसीलिए रेल से आदमी कट जाने पर जिनके ऊपर उसकी जवाबदेही नहीं होती; हालाँकि काटने का काम वही करता है। किंतु ड्राइवर पर ही होती है। उसे समझ जो है। यही कारण है कि पागल आदमी के कामों की जवाबदेही उस पर नहीं होती। वह समझ के करता जो नहीं है। यदि हमने गलत को ही सही समझ के ईमानदारी से उसे ही किया तो हम अपराधी नहीं हो सकते, यही गीता की मान्यता है। यद्यपि संसार में ऐसा नहीं होता है। मगर होना तो यही चाहिए। जो कुछ विवेचन अब तक किया गया है उससे तो दूसरी बात उचित होई नहीं सकती। यह ठीक है कि एक ही काम इस तरह कई ढंग से - यहाँ तक कि परस्पर विरोधी ढंग से भी - किया जा सकता है और सभी करने वाले निर्दोष और सही हो सकते हैं यदि उनने श्रद्धा से किया है जैसा कि बताया गया है। युक्ति-युक्त रास्ता तो इसके लिए यही हई। और यदि यह नई बात है तो गीता तो नई बातें बताती ही है।

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत