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अनिर्वचनीयतावाद

संसार के संबंध के इस मंतव्य को मिथ्यात्ववाद और अनिर्वचनीयतावाद भी कहते हैं। अनिर्वचनीयता का अर्थ है कि इन चीजों का निर्वचन या निरूपण होना असंभव है। इनकी सत्यता तो सिद्ध हो ही नहीं सकती। यदि इनको अत्यंत निर्मूल मानें और कहें कि ये अत्यंत असत्य हैं, जैसे आदमी की सींग न कभी हुई, न है और न होगी, तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि सींग तो कभी दीखती नहीं। मगर ये तो प्रत्यक्ष ही दीखते हैं। इसलिए मनुष्य की सींग जैसे तो नहीं ही हैं। यदि इन्हें सत्य और असत्य का मिश्रण मानें, तो यह और भी बुरा है। क्योंकि परस्पर विरोधी चीजों का मिश्रण असंभव है। फलत: मानना ही पड़ता है कि इनके बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता है - ये अनिर्वचनीय हैं। मगर यह सही है कि ये मिथ्या हैं। मिथ्या का मतलब ही यही है कि मालूम तो हो कि कुछ है; मगर ढूँढ़ने पर इसका पता ही न लगे। यह विचार कुछ नया और निराला प्रतीत होता है सही। मगर रेखागणित में जो बिंदु का लक्षण बताया गया है कि उसमें लंबाई-चौड़ाई कुछ भी होती नहीं, या रेखा के बारे में जो कहा गया है कि उसमें केवल लंबाई होती है, चौड़ाई नहीं, क्या यह अक्ल में आने की चीज है? जिसमें लंबाई-चौड़ाई कुछ भी न हो या जो सिर्फ लंबाई रखता हो ऐसा पदार्थ दिमाग में कैसे घुसेगा? फिर भी उसे मानते ही हैं।

यह ठीक है कि काम चलाने के लिए - केवल वाद-विवाद और विचार के लिए - वेदांत ने तीन प्रकार के पदार्थ माने हैं। एक तो सदा रहने वाला, वस्तुतत्व या परमार्थ पदार्थ, जिसे ब्रह्म कहिए या आत्मा कहिए। इसीलिए ब्रह्म या आत्मा की हस्ती, उसके अस्तित्व या उसकी सत्ता को परमार्थ सत्ता भी कहते हैं। दूसरे हैं सपने या भ्रम के पदार्थ, जैसे रस्सी में साँप, सीप में चाँदी या सपने का सिर कटना। ये जब तक प्रतीत होते हैं तभी तक रहते हैं। प्रतीत या ज्ञान को ही प्रतिभास भी कहते हैं। इसीलिए ये पदार्थ प्रातिभासिक हैं और इनकी सत्ता है प्रातिभासिक सत्ता। तीसरे हैं हमारे इस जाग्रत संसार के पृथिवी आदि पदार्थ, जिनसे हमारा व्यवहार चलता है, काम निकलता है। सपने के साँप का जहर तो नहीं चढ़ता। मगर इस साँप का चढ़ता है। यही है व्यवहार या काम-काज का चलना। ये चीजें कामचलाऊ हैं, व्यावहारिक हैं। इसलिए इनकी सत्ता को व्यावहारिक सत्ता कहते हैं। इस तरह तीन प्रकार के पदार्थ और उनकी तीन सत्ताएँ हो जाती हैं।

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत