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आस्तिक-नास्तिक का भेद

जब इस प्रकार देखते हैं तो पता लगता है कि साकारवादी और निराकारवादी तो याद करते ही हैं। मगर निरीश्वरवादी भी उनसे कम ईश्वर को याद नहीं करते! यदि भक्ति का अर्थ यह याद ही है तो फिर नास्तिक भी क्यों न भक्त माने जाएँ? बेशक, प्रेमी याद करता है और खूब ही याद करता है, यदि सच्चा प्रेमी है। मगर पक्का शत्रु तो उससे भी ज्यादा याद करता है। प्रेमी तो शायद नींद की दशा में ऐसा न भी करे। मगर शत्रु तो अपने शत्रु के सपने देखा करता है, बशर्ते कि सच्चा और पक्का शत्रु हो। इसीलिए मानना ही होगा कि ईश्वर का सच्चा शत्रु भक्तों से नीचे दर्जे का हो नहीं सकता, यदि ऊँचे दर्जे का न भी माना जाए। पहले जो कहा है कि धर्म तो व्यक्तिगत और अपने समझ के ही अनुसार ईमानदारी से करने की चीज है, उससे भी यही बात सिद्ध हो जाती है। यदि हमें ईमानदारी से यही प्रतीत हो कि ईश्वर हई नहीं और हम तदनुसार ही अमल करें तो फिर पतन की गुंजाइश रही कहाँ जाती है?

इसीलिए प्रौढ़ नैयायिक उदयनाचार्य ने ईश्वर-सिद्धि के ही लिए बनाए अपने ग्रंथ 'न्यायकुसुमांजलि' को पूरा करके उपसंहार में यही लिखा है कि वे साफ ही सच्चे और ईमानदार नास्तिकों के लिए ही वही स्थान चाहते हैं जो सच्चे आस्तिकों को मिले। उनने प्रार्थना के रूप में अपने भगवान से यही बात बहुत सुंदर ढंग से यों कही है - 'इत्येवं श्रुतिनीति संप्लवजलैर्भूयोभिराक्षालिते; येषां नास्पदमादधासि हृदये ते शैलसाराशया:। किंतु प्रस्तुतविप्रतीप विधयोऽप्युच्चैर्भवच्चिन्तका:; काले कारुणिक त्वयैव कृपया ते भावनीया नरा:।' इसका आशय यही है कि 'कृपासागर, इस प्रकार वेद, न्याय, तर्क आदि के रूप में हमने झरने का जल इस ग्रंथ में प्रस्तुत किया है और उससे उन नास्तिकों के मलिन हृदयों को अच्छी तरह धो दिया भी है, ताकि वे आपके निवास योग्य बन जाएँ। लेकिन यदि इतने पर भी आपको वहाँ स्थान न मिले, तो हम यही कहेंगे कि वे हृदय इस्पात या वज्र के हैं। लेकिन यह याद रहे कि प्रचंड शत्रु के रूप में वे भी तो आपको पूरी तौर से आखिर याद करते ही हैं। इसलिए उचित तो यही है कि समय आने पर आप उन्हें भी भक्तों की ही तरह संतुष्ट करें।' कितना ऊँचा खयाल है! कितनी ऊँची भावना है! गीता इसी खयाल और इसी भावना का प्रसार चाहती है।

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत