योग और मार्क्सवाद
जिन दो बातों को कहके यह प्रकरण पूरा करने की इच्छा हमने जाहिर की थी उनमें स्वधर्मवाली यह एक बात तो हो चुकी है। अब दूसरी को देखना है। गीता के छठे अध्याकय के 45वें और सातवें अध्यासय के तीसरे एवं 19वें श्लोकों के अनुसार गीतोक्त योग प्राय: अप्राप्य है। लाखों-करोड़ों में शायद ही एकाध आदमी इसमें पूरे उतरते हैं। उक्त 45वें श्लोक में तो कहा है कि 'योग की प्राप्ति के लिए यत्न करने वाला मनुष्य जब इसमें सारी शक्ति लगाके पड़े तो उसके भीतर की मैल धुलते-धुलते बहुत जन्म लग जाते हैं तब कहीं वह पूर्ण योगी बनके परमगति प्राप्त करता है' - “प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धिकिल्विष:। अनेक जन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥”
इसी प्रकार सातवें अध्याबय के 19वें श्लोक में भी कहा है कि 'बहुत जन्मों में कोशिश करते-करते ज्ञान हासिल होता है, समस्त संसार में वासुदेव बुद्धि या परमात्मज्ञान होता है। उसी के बाद ब्रह्मप्राप्ति होती है। ऐसे महात्मा लोग अत्यंत अलभ्य हैं।' “बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥” मगर तीसरे श्लोक में तो और भी कठिनाई का वर्णन इस मार्ग के सिलसिले में मिलता है। वहाँ तो कहा है कि 'हजारों-लाखों में एकाध आदमी ही योगी होने के लिए यत्न करते हैं और ऐसे लाखों में बिरला ही कोई मुझे - परमात्मा को - ठीक-ठीक जान पाता है' - “मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥”
यदि इन तीनों वचनों को मिलाके देखें तो पता चलता है कि गीता का योग नियम तो हो सकता है नहीं। यह तो इतना कठिन है कि असंभवप्राय है। कठोपनिषद् में इसी संबंध के प्रश्न के उत्तर में यम ने नचिकेता से कहा था कि 'नचिकेता, मौत की बात मत पूछो - जीते-जी मर जाने की बात न पूछो' - "नचिकेतो मरणंमाऽनुप्राक्षी:" (1। 9। 25)। उनने यह भी कह दिया था कि 'इस मार्ग पर चलना क्या है छुरे की तीखी धार पर चलना समझो, जो असंभव जैसी बात है। इसीलिए जानकार लोगों ने कहा है कि यह मार्ग दुर्गम है' - "क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति" (1। 3। 14)। हमने भी योग के संबंध में जो कुछ कहा है उससे भी निस्संदेह यही बात पक्की हो गई है।
तृतीय अध्याेय के 'यस्त्वात्मरतिरेव' श्लोक का बार-बार उल्लेख तो आया है। मगर इस संबंध में उसे मनन करना चाहिए। चौथे अध्यायय के 19-23 श्लोकों को भी गौर से पढ़ना होगा। पाँचवें के 7-21 श्लोक भी इस संबंध में बहुत महत्त्व रखते हैं। छठे अध्याेय के 7-32 श्लोकों में जितनी बातें कही गई हैं उनमें भी इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। आठवें के 8-16 श्लोक भी विचारणीय हैं। दूसरे अध्यांय के अंत में जो स्थितप्रज्ञ का, बारहवें के 13-19 श्लोकों में जो भक्त का और चौदहवें के 22-25 श्लोकों में जो गुणातीत का वर्णन है वह हमारी आँखें खोल देता है, ताकि इस चीज की कठिनाई का अनुभव करें। तेरहवें के 27-28 श्लोकों में भी यह बात मिलती है। अंत में अठारहवें अध्याईय के 50-58 श्लोकों में भी यह बात लिखी गई है। यदि हम इन सभी वचनों का पर्यालोचन और मंथन करते हैं तो कठोपनिषद्वाली बात अक्षरश: सत्य सिद्ध होती है और मानना पड़ जाता है कि गीता का योग असंभव-सी चीज है। फलत: वह अपवाद स्वरूप ही हो सकता है न कि मनुष्यों के लिए नियम या सर्व-जन-संभव पदार्थ। सभी लोग ऐसी चीज को कम से कम आदर्श बनाएँ यह भी उचित नहीं। आकाश के चाँद को जो आदर्श बनाए और उसी के पीछे अपने सभी कामों को चौपट करे वह पागल के सिवाय और कुछ नहीं। यह योग ऐसा नहीं कि उसे आदर्श बनाके हम कुछ और भी कर सकते हैं जब तक वह प्राप्त न हो जाए।
जब इस भौतिक संसार में गीताधर्म - योग - अपवाद ही हो सकता है, न कि नियम, तो स्वभावत: यह प्रश्न उठता है कि सर्वसाधारण के लिए जो चीज साध्यस हो और इसीलिए जो हमारे लिए नियम जैसी सार्वजनिक वस्तु हो सके वह क्या है? उत्तर में बेखटके कहा जा सकता है कि वह है मार्क्स वाद। बहुत लोग इस बात को नहीं समझ के ही नाक-भौं सिकोड़ते हैं। हालाँकि हमने धर्म तथा ईश्वर के संबंध में मार्क्सबवाद का जो विश्लेषण किया है उससे लोगों का भ्रम कम से कम उस संबंध में तो मिट जाना ही चाहिए। मगर वह तो मार्क्सीवाद का एक पहलू मात्र है। असल में तो मार्क्स वाद साम्यवाद या वर्गविहीन समाज का निर्माण ही है। मार्क्स वाद का तो यही लक्ष्य माना जाता है कि इस संसार को आनंदमय, सुखमय, स्वर्ग या बैकुंठ जैसा बना दिया जाए; न बीमारियाँ हों और न अकाल-मृत्यु हो, न कोई गरीब हो और न अमीर; सबों को समानरूप से खाने-पीने, पढ़ने-लिखने, कला-कौशल तथा ज्ञान-विज्ञान की सभी सुविधाएँ प्राप्त हों; सबसे ऊँचे दर्जे के आराम का सभी के लिए - मानवमात्र के लिए - पूरा सामान होने पर भी अंवेषण, विज्ञान, कला आदि के लिए पर्याप्त समय सबको प्राप्त हो; अनावृष्टि, अतिवृष्टि, पाला आदि को निर्मूल कर दिया जाए; प्रकृति के साथ ही संघर्ष करके मौत के ऊपर भी कब्जा कर लिया जाए, आदि-आदि। एक वाक्य में 'सर्वे भंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्,' पूरी तरह चरितार्थ हो जाए। यह बातें केवल मनोराज्य नहीं हैं। विज्ञान के लिए ये सभी संभव हैं। यदि विश्वामित्र की नई सृष्टि मानी जाती है तो आज भी विज्ञान क्या नहीं कर सकता है? विश्वामित्र ने भी यदि किया होगा तो विज्ञान के ही बल से।
यह ऐसी चीज नहीं है कि मानवमात्र में किसी के भी लिए असाध्य हो। यह भी नहीं कि इसके लिए कोई खास ढंग की या अलौकिक तैयारी चाहिए। मार्क्स ने तो इसका सीधा उपाय वर्गसंघर्ष बताया है। उसी का मार्ग अबाध हो जाने पर यह सभी बातें अपने आप धीरे-धीरे हो जाएँगी। रूस ने इसका नमूना पेश भी कर दिया है। वह इस मामले में बहुत कुछ अग्रसर हो गया है। असल में पूँजीवादी राष्ट्रों से घिरे होने के कारण ही - ऐसे राष्ट्रों से जो उसे हजम करने पर तुले बैठे हैं - उसकी प्रगति में वैसी तेजी नहीं आ सकी है। यदि यह बात न होती तो वह देश आज कहाँ का कहाँ जा पहुँचा होता। फिर भी उसने जो कुछ किया है वह भी कम नहीं है।
हमने अनीश्वरवाद के संबंध में मार्क्सभवाद का मत स्पष्ट करी दिया है। मगर थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि वह धर्म-वर्म से नाता तोड़ने को ही कहता है, तो हर्ज क्या है? यदि ऊपर लिखी सभी बातों की सिद्धि के लिए - भूमि पर ही स्वर्ग लाने के लिए - यह करना भी पड़े और ईश्वर को भी विदाई देनी हो तो क्या बुरा है? मामूली जमीन-जायदाद, रुपये-पैसे और कारबार के लिए भी तो रोज ही धर्म और ईश्वर को धकियाते ही हैं, गर्दनियाँ देते ही हैं। कचहरियों में, सर्वेसेटलमेंट के समय और खरीद-बिक्री में तो रोज ही शालिग्राम, गंगा, तुलसी, वेद, कुरान, बाइबिल उठाके झूठी कसमें खाते ही हैं। क्या इतने पर भी धर्म और ईश्वर रही गए? फाटका और सट्टेबाजी में तो कोई भी जाल-फरेब बच पाता नहीं और आजकल का व्यापार तो केवल जुआ ही है। फिर भी क्या हम लोगों ने धर्म और ईश्वर को भूमंडल में कहीं भी रख छोड़ा है? यदि इतने पर भी हमने कोई ऐसा कहने की धृष्टरता करे कि वह धर्मवादी और ईश्वरवादी है तो यह पहले दर्जे का धोखा है, आत्मप्रवंचना और लोकवंचन है।
फिर हम साफ ही क्यों न कह दें कि हम धर्म-वर्म नहीं मानते? इसमें ईमानदारी तो है। उसमें तो यह भी नहीं है। इसका परिणाम भी सुंदर होगा। हम धर्म के ठेकेदारों से बाल-बाल - साफ-साफ - बच जाएँगे और अपने हक की लड़ाई बेखटके अच्छी तरह चला के श्रेणी-विहीन समाज जल्द से जल्द स्थापित कर सकेंगे। धर्म मानने की दशा में तो दुविधे में - रमखुदैया में - रह जाने के कारण कोई काम ठीक-ठीक कर पाते नहीं। न इधर के रह जाते हैं और न उधर के। परिणाम बहुत ही बुरा होता है। इसमें यह बात न होगी। कोई रुकावट तो होगी ही नहीं। मालदार-जमींदारों का अंतिम ब्रह्मास्त्र तो यही है और जब यही न रहा, तो उनकी तो कमर ही टूट जाएगी और जल्दी ही धड़ाम से गिर पड़ेंगे। इसलिए हमारी - शोषितों एवं पीड़ितों की - जीत शीघ्र ही होगी और अवश्य होगी। धर्म और ईश्वर के नाम पर जो स्वर्ग, बैकुंठ या बिहिश्त मिलने वाला बताया जाता है वह एक तो अनिश्चित है। दूसरे उसका आँखों देखा प्रमाण तो है नहीं। तीसरे वह मिलेगा भी तो मरने के बाद। मगर इसका फल तो यहीं पर प्रत्यक्ष स्वर्ग और बैकुंठ है। इससे तो यहीं पर आनंद-समुद्र में गोते लगाना है।
इतना ही नहीं। जब ज्ञान-विज्ञान का मार्ग उन्मुक्त हो जाएगा और सभी को इसका पूरा अवसर प्राप्त होगा, सारी सुविधाएँ सुलभ होंगी, तो यह भी हो सकता है कि हम उसी विज्ञान के जरिए धर्म और ईश्वर को भी ढूँढ़ निकालें। आखिर विज्ञान और साइंस का तो यही काम ही है न, कि सत्य का पता लगाए? वह तो असत्य का शत्रु और सत्य का साथी है। उसका तो एक ही काम है कि सत्य का पता चाहे जैसे हो लगाए। और अगर ईश्वर, धर्म और परलोक सत्य हैं, अबाध्य हैं, अखंडनीय हैं, जैसा कि धर्मवादी लोग दावा करते हैं, तब तो उन्हें और भी घबराना नहीं चाहिए। साँच को आँच क्या? तब तो विज्ञान ईश्वर वगैरह को जरूर ढूँढ़ लाएगा। जैसे बादलों में छिपा सूर्य कुछी देर के बाद बाहर आ जाता है और उसकी चमक-दमक और भी तेज मालूम होती है, वही बात धर्म और ईश्वर के बारे में भी होगी। इस दरम्यान कुछ समय के लिए छिपे रहने के कारण वे और भी सर्वजनप्रिय हो जाएँगे। तब तो हम उनकी कदर और भी ज्यादा करेंगे।
अभी तो ऐसा नहीं होता है। अभी तो हम उन्हें आधे मन से सिर्फ दिखाने के लिए ढोंग की तौर पर ही मानते हैं। हमारा मतलब है आम लोगों से ही। इसीलिए, जैसा कि कहा है, भौतिक स्वार्थों के सामने उन्हें ताक पर रख भी देते हैं। मगर तब तो यह बात न होगी। तब तो पूरी तौर से मानेंगे और कचहरियों या सट्टों का सवाल तब होगा ही नहीं और न रोजगार-व्यापार वाले ही होंगे कि झूठी कसमें खाने और जाल-फरेब की जरूरत पड़े। इसलिए तो धर्मवादियों को मार्क्सावाद का कृतज्ञ होना चाहिए, यदि वे ईमानदारी से धर्म तथा ईश्वर को मानते हैं, कि वह उनका रास्ता निष्कंटक और निर्बाध बना देता है। यदि थोड़ी देर के धर्मत्याग से - यदि कुछ समय तक इस त्यागरूपी घोर तप के प्रताप से - धर्म और भगवान का मार्ग सदा के लिए निरुपद्रव हो जाए तो हमें खुशी-खुशी इस त्याग को अपनाना चाहिए। आखिर बिना त्याग के तो कुछ होता-जाता नहीं।
लेकिन यदि धर्म और ईश्वर सत्य नहीं हैं तब तो विज्ञान उनका पता नहीं ही लगा पाएगा, यह बात पक्की है और जो विज्ञान की कसौटी पर खरा न उतरे वह तो जरूर ही नकली होगा। फिर हमें उसकी चिंता ही क्यों हो? हमें तो उलटे इसमें खुशी होनी चाहिए कि मिथ्या चीजों से पिंड छूटा। तब तो हमें मार्क्स्वाद का कृतज्ञ भी होना चाहिए कि उसने सत्य का पता लगाया और धर्म या ईश्वर जैसी मिथ्या चीजों से हमारा पिंड छुड़ाया। आखिर मिथ्याचार और मिथ्या पदार्थों से चिपटे रहना तो कोई बुद्धिमानी है नहीं। यह तो किसी भी भलेमानस का काम नहीं है और हम - धर्मवादी - लोग यह तो दावा करते ही हैं कि हम भले लोग हैं। फिर तो हृदय से धर्मवादी खुश ही होंगे कि चलो अच्छा ही हुआ और मिथ्या पदार्थों से पिंड छूटा। ईमानदारी का तकाजा तो यही है।
इस प्रकार इस लंबे विवेचन ने यह साफ कर दिया कि गीताधर्म और मार्क्सहवाद का कहीं भी विरोध नहीं है। वे अनेक मौलिक बातों में एक दूसरे के निकट पहुँच जाते हैं - मिल जाते हैं। बल्कि यों कहिए कि कई बुनियादी बातों में गीताधर्म मार्क्स वाद का पूर्णतया पोषक है। इतना कहने में तो किसी को भी आनाकानी नहीं होनी चाहिए कि मार्क्सावाद को गीता से कोई आँच नहीं है - कोई भय नहीं है। मार्स्आनवाद से गीताधर्म के डरने या उसे आँच लगने का प्रश्न तो उठी नहीं सकता। ऐसा प्रश्न उठाना ही तो गीताधर्म को नीचे गिराना और उसके महत्त्व को कम करना है। वह तो इतनी मजबूत नींव पर खड़ा है, उसकी बुनियाद तो इतनी पक्की है कि वह सदा निर्भय है। उसे किसी से भी भय नहीं है। वह इतना ऊँचा है कि उस तक कोई दुश्मन पहुँच नहीं सकता है। असल में उसका शत्रु कोई हई नहीं। गीताधर्म का तो निष्कर्ष ही है 'तुल्यो मित्रारिपक्षयो:' (14। 25), 'सम: शत्रौ च मित्रे च' (12। 18) आदि-आदि।