धर्म स्वभावसिद्ध है
सत्रहवें अध्याजय के जिस दूसरे श्लोक को पहले उद्धृत किया है उसमें श्रद्धा को स्वभावसिद्ध 'स्वभावजा' कहा है। वह कृत्रिम चीज नहीं है। डर, भय आदि को तो दबाव डाल के या प्रलोभन से पैदा भी कर सकते हैं। मगर इन उपायों से श्रद्धा कभी उत्पन्न की जा सकती नहीं और वही है धर्म के स्वरूप को ठीक करने वाली असल चीज। वहाँ और उसके पहले समूचे चौदहवें अध्यााय में तथा और जगह भी ऐसा प्रतिपादन किया गया है कि सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के ही अनुसार श्रद्धा आदि दिव्यगुण मनुष्यों में पाए जाते हैं। हममें किसी को शक्ति भी नहीं कि उन गुणों को डरा धमका के या दबाव डाल के बदल सकें। शरीर, इंद्रियादि के निर्माण में जो गुण जहाँ जिस मात्रा में आ गया वह तो रहेगा ही। हम तो अधिक से अधिक यही कर सकते हैं कि समय-समय पर दबे रहने या न मालूम होने पर उसे प्रकट कर दें, जैसे पंखे के जरिए हवा पैदा नहीं की जाती, किंतु केवल प्रकट कर दी जाती है। हवा रहती तो है सर्वत्र। मगर मालूम नहीं पड़ती और पंखा उसे मालूम करा देता है, बिखरी हवा को जमा कर देता है। और स्वभाव तो लोगों के भिन्न होते ही हैं। इसीलिए हरेक के धर्म भी भिन्न ही होंगे। दो के भी धर्मों का कभी मेल हो नहीं सकता।
इतना ही नहीं। अठारहवें अध्याेय के 41-44 श्लोकों में दृष्टांत-स्वरूप चारों वर्णों के कर्मों और धर्मों का विस्तृत वर्णन है। लेकिन यह कितनी विचित्र बात है कि चारों के धर्मों को अलग-अलग गिनाने के साथ-साथ 'स्वभावजं' - स्वाभाविक या स्वभावसिद्ध - यह विशेषण चार बार आया है। इसमें एक ही मतलब हो सकता है और वह यह कि गीता को इस बात पर ज्यादा से ज्यादा जोर देना है कि वर्णों और आश्रमों के जितने भी धर्म हैं सबके सब स्वाभाविक हैं, न कि कृत्रिम, बनावटी या डर, भय से पैदा किए गए। मगर इतने से ही संतोष न करके ठेठ 41वें श्लोक में भी, जहाँ चारों का एक स्थान पर ही नाम लिया है, साफ ही कहा है कि 'इन चारों के काम बँटे हुए हैं और यह बात गुणों के अनुसार बने हुए स्वभाव के ही मुताबिक हुई है' - “कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:”। गुणों में सत्त्व, रज और तम की कमी-बेशी तथा सम्मिश्रण के अनुपात के ही हिसाब से लाखों, करोड़ों या अनंत प्रकार के मनुष्यों के स्वभाव बने हैं और इन जुदे-जुदे स्वभावों के ही अनुसार उनके कर्म भी निर्धारित किए गए हैं।