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गीता का साम्यवाद

गीता में समता या साम्यवाद की भी बात है और उसे लेके बहुत लोग मार्क्सवादी साम्यवाद को खरी-खोटी सुनाने लगते हैं। उनके जानते मार्क्स का साम्यवाद भौतिक होने के कारण हलके दर्जे का है, तुच्छ है गीता के आध्यात्मिक साम्यवाद के मुकाबिले में। वह तो यह भी कहते हैं कि हमारा देश धर्मप्रधान एवं धर्मप्राण होने के कारण भौतिक साम्यवाद के निकट भी न जाएगा। यह तो आध्यात्मिक साम्यवाद को ही पसंद करेगा। असल में इस युग में जो साम्यवाद की हवा बह निकली है उसी से घबरा के यह बातें उसी के जवाब में कही जाती हैं। उस तरह की दूसरी चीज न रहने पर तो लोग खामख्वाह उधर ही झुकेंगे। इसीलिए गीता की यह बात लोगों के सामने ला खड़ी कर दी जाती है, ताकि स्वभावत: लोग इधर ही आकृष्ट हों और दूसरे साम्यवाद का खतरा न रह जाए। खूबी तो यह है कि जिन्हें अध्यात्मवाद से लाख कोस दूर रहना है वह भी गीता की यही बात रटते फिरते हैं! उनके स्थाई स्वार्थों को भौतिक साम्यवाद से बहुत बड़ा खतरा होने के कारण ही वे गीता का नाम लेके टट्टी की ओट से शिकार खेलते हैं। हर हालत में इस चीज पर प्रकाश डालना जरूरी है।

असल में गीता में प्राय: बीस जगह या तो सम शब्द का प्रयोग मिलता है या उसी के मानी में तुल्य जैसे शब्द का प्रयोग। दूसरे अध्यायय के 38वें तथा 48वें, चौथे के 22वें, पाँचवें के 18-19वें, छठे के 8, 9, 13, 29, 32, 33वें, नवें के 29वें, बारहवें के 13, 18वें, तेरहवें के 9, 27, 28वें, चौदहवें के 24वें तथा अठारहवें के 54वें श्लोकों में सम, समत्व या साम्य शब्द आया है। किसी-किसी श्लोक में दो बार भी आया है। चौदहवें के 24वें श्लोक में सम के साथ ही तुल्य शब्द भी आया है और 25वें में सिर्फ तुल्य शब्द ही दो बार मिलता है। इनमें केवल छठे के 13वें श्लोक वाला सम शब्द 'सीधा' (Straight) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसलिए उसका साम्यवाद से कोई भी ताल्लुक नहीं है। शेष सम शब्दों या उन्हीं के अर्थ में प्रयुक्त तुल्य शब्दों का साम्यवाद से संबंध जरूर जुट जाता है। यदि असक्त, अनासक्त, परित्यागी या परित्याग आदि शब्दों को, जो सम के ही अर्थ में - उसी अभिप्राय से ही - प्रयुक्त हुए हैं, भी इसी सिलसिले में गिन लें; तब तो गीता के अंग-प्रत्यंग में यह बात पाई जाती है, यही मानना पड़ेगा। कर्म के विश्लेषण और इस समत्व या साम्यवाद का ऐसा संबंध है कि दोनों एक दूसरे के बिना रही नहीं सकते।

अब देखना है कि गीता की यह समता, उसका यह समत्व, समदर्शन या साम्यवाद है क्या चीज। जब तक उसकी असलियत और रूपरेखा का ही पता हमें न हो उसकी तुलना भौतिक साम्यवाद के साथ कर कैसे सकते हैं? तब तक हमें यह भी कैसे पता लग सकता है कि कौन भला, कौन बुरा है? यदि भला या बुरा है तो भी किस दृष्टि से, यह भी तो तभी जान सकते हैं। हरेक चीज हर दृष्टि से तो कभी भी अच्छी या बुरी होती नहीं। आखिर पदार्थों के पहलू तो होते ही हैं और उन्हें हर पहलू से अलग-अलग देखना जरूरी हो जाता है, यदि किसी और के साथ मिलान या तुलना करना हो। यही कारण है कि गीता के समदर्शन या साम्यवाद के हर पहलू पर प्रकाश डालना और विचार करना आवश्यक है।

जैसा कि पहले भी कहा गया है, गीता का साम्यवाद, समदर्शन, समत्वबुद्धि या साम्ययोग तो दिल-दिमाग की ही दशा विशेष है। दरअसल यूरोप में हीगेल आदि दार्शनिकों ने जिस विचारवाद या आइडियलिज्म (Idealism) को प्रश्रय दिया और उसका समर्थन किया है वह बहुत कुछ गीता के समदर्शन से मिलता-जुलता है। यह भी नहीं कि यह कोरी मानसिक अवस्था विशेष है जिसे ज्ञान की एक विलक्षण कोटि या दशा कह सकते हैं। निस्संदेह पाँचवें अध्याय के 18-19 - दो - श्लोकों में जो कुछ कहा है वह तो दर्शन या ज्ञानात्मक ही है। क्योंकि वहाँ साफ ही लिखा है कि पंडित लोग समदर्शी होते या सम नाम की चीज को ही देखते हैं, 'पंडिता: समदर्शिन:', 'साम्ये स्थितं मन:।' छठे अध्याय के 8-9 श्लोकों में भी 'समलोष्ठाश्मकांचन:', 'समबुद्धिर्विशिष्यते' के द्वारा कुछ ऐसा ही कहा है। हालाँकि 'समलोष्ठाश्मकांचन:' का व्यापक भाव माना जाता है जो आगे बताया जाएगा। यही बात उस अध्याय के 32-33 श्लोकों में भी है। क्योंकि 32वें में 'समं पश्यति' लिखा गया है और उसी का उल्लेख 33वें में है। यद्यपि तेरहवें अध्याय के 9वें श्लोक में यह बात इतनी स्पष्ट नहीं है और उसका दूसरा आशय भी संभव है; तथापि 27-28 दो श्लोकों में 'पश्यति' एवं 'पश्यन्' शब्दों के द्वारा उसे ज्ञान ही बताया है। बस।

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत