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धर्म, सरकार और पार्टी

अब हमें फिर गीता के धर्म को देखना है। जब, जैसा कि पहले ही बता चुके हैं, धर्म गीता के अनुसार नितांत वैयक्तिक या व्यक्तिगत (शख्सी - Personal) चीज है, तो न सिर्फ इसमें या इसके नाम पर कलह की रोक हो जाती है। बल्कि मार्क्सशवाद से भी मेल हो जाता है, विरोध नहीं रहता। व्यक्तिगत कहने का यही मतलब है कि किसी समुदाय, गिरोह, कमिटी, पार्टी, दल, सभा या अंजुमन की चीज यह हर्गिज नहीं है। हरेक आदमी चाहे जैसे इसके बारे में अमल करे, सोचे या कुछ भी करे। किसी दूसरे आदमी, दल, पार्टी, गिरोह या देश को इसमें टाँग अड़ाने और दखल देने का कोई हक नहीं। असल में गिरोह, समुदाय, पार्टी आदि को इससे कोई ताल्लुक हई नहीं। इसीलिए सरकार को भी इसमें पड़ने का हक है नहीं। अगर वह पड़ती है, जैसा कि बराबर ही देखा जा रहा है, खासकर पूँजीवादी युग में, तो और भी, नाजायज काम करती है। जर्मनी या और देशों की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों ने जहाँ सरकार को इसमें पड़ने से रोका तहाँ उनने खुद इसमें पड़ जाने की गलती की, या कम से कम ऐसा खयाल जाहिर किया। इसीलिए एंगेल्स ने उन्हें डाँटा था। उसने कहा था कि सरकार इसमें हाथ न डाले यह तो ठीक है। मगर पार्टी की भी यह निजी चीज क्यों हो? पार्टी को इससे क्या काम? उसका कोई मेंबर धर्म को माने या न माने। पार्टी उसमें दखल क्यों देने लगी? हाँ, इसके चलते जो भारी खतरे हैं, उनका खयाल करके पार्टी का रुख तो इसके बारे में सदा भौतिक द्वन्द्ववाद वाला ही होगा। यही बात लेनिन ने अपने लेख में यों लिखी है -

'This he did in a declaration in which he emphatically pointed out that Social Democracy regards religion as a private matter in so far as the State is concerned, but not in so far as it concerns Marxism or the worker's party.'

'Should our deputy have gone further and developed atheistic ideas in greater detail ? We think not. This might have exaggerated the significance of the fight which the party of the proletariat is carrying on against religion; it might have obliterated the dividing line between the bourgeois and socialist fight against religion.'

इसका अर्थ यह है, 'एंगेल्स ने यह काम एक घोषणा के द्वारा किया, जिसमें उसने जोर देकर बताया कि सोशल डेमोक्रेटिक (मजदूरों की क्रांतिकारी) पार्टी धर्म को व्यक्तिगत चीज वहीं तक मानती है जहाँ तक सरकार का इससे ताल्लुक है। लेकिन उसके मत से मार्क्सपवाद या मजदूरों की पार्टी के लिए यह व्यक्तिगत चीज नहीं है।'

'क्या डयूमा के हमारे प्रतिनिधि (सरकोफ) को चाहिए था कि आगे बढ़ जाता और नास्तिकवाद पर विस्तार से बोलता एवं खंडन-मंडन करता? हम तो ऐसा नहीं समझते। यदि वह ऐसा करता तो मजदूरों की पार्टी का जो धर्म-विरोधी आंदोलन और संघर्ष है उसके महत्त्व की अत्युक्ति हो जाती। समाजवादियों और पूँजीवादियों के द्वारा धर्म का विरोध करने में जो भेद है वह ऐसा करने से मिट जाता है।'

यहाँ यह बात जानने की है कि पूँजीवाद लोग भी अपना काम निकालने के लिए समय-समय पर धर्म का विरोध करते हैं। उस समय जर्मनी में विस्मार्क ने ऐसा ही किया था। जार भी यहूदियों का विरोध करता था और हिटलर भी। मगर उनका मतलब तो दूसरा ही होता है। या तो उन्हें दिमागी दुनिया की कुश्ती लड़ने का शौक होता है, या वे ख्याति के लिए ही ऐसा करते हैं, या ऐसा करने से उनका कोई दुनियावी मतलब सिद्ध होता है। वर्गसंघर्ष की दृष्टि से वे ऐसा काम हर्गिज नहीं करते। भले ही सैद्धांतिक दृष्टि से करते हों। विपरीत इसके साम्यवादी लोग वर्गसंघर्ष की ही दृष्टि से उसका विरोध करते हैं। मगर कोरे वाद-विवाद और खंडन-मंडन में पड़ जाने पर खतरा यह है कि मार्क्समवादी भी उसी सैद्धांतिक दृष्टि में पड़ जा सकते हैं। इसीलिए उसे रोक के दोनों दृष्टियों को अलग-अलग रखा गया है। मार्क्सदवाद कोरे खंडन-मंडन को पूँजीवादी और इसीलिए अपनी विरोधी दृष्टि मानता है, यह बात मार्के की है।

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत