सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह
अब जरा जगत के बारे में भी देखें। यहाँ भी यह जगत तो ब्रह्म ही है ऐसा विधिरूप ज्ञान ही गीता को मान्य है। क्योंकि इसमें हमारे कर्मों के लिए, लोकसंग्रह के लिए पूरी गुंजाइश रहती है। निषेध में यह बात नहीं रहती। मालूम पड़ता है कि निठल्ले जैसा बैठने की बात आ जाती है। आज जो वेदांत के अद्वैतवाद में इस निषेध पक्ष या संसार के मिथ्यात्व के ही पहलू पर जोर देने के कारण लोगों में अकर्मण्यता आ गई है वह गीताधर्म और गीता के इस महान मार्ग के छोड़ देने का ही परिणाम है। वेदांत के नाम पर आज प्रचलित महान पतन की यही वजह है। जब कोई विधानात्मक चीज हई नहीं, तो फिर कुछ भी करने-धरने की जरूरत ही क्या है? फलत: वेदांतवाद एवं अद्वैतवाद को इस पतन के गंभीर गर्त्त से निकालने के लिए जगत के मिथ्यात्व पर जोर देने वाले निषेधात्मक पक्ष की ओर दृष्टि न करके हमें 'जगत ब्रह्म ही है, हमारी आत्मा ही है' इस विधानात्मक पक्ष की ओर ही दृष्टि देना जरूरी है। इससे यही होगा कि हम चारों ओर अपनी ही आत्मा को देख के उसके कल्याणार्थ ठीक वैसे ही उतावले हो पड़ेंगे, दौड़ पड़ेंगे जैसे अपने पाँवों में फोड़ा-फुंसी होने, खुद भूख-प्यास लगने या अपने पेट में दर्द होने पर उतावले और बेचैन हो के प्रतीकार में लग जाते हैं। और जरा भी विलंब या आलस्य, अपना या गैरों का, बरदाश्त कर नहीं सकते।
गीता इसी दृष्टि पर जोर देती हुई कहती है कि 'बहुत जन्मों में लगातार यत्न करके, यह जो कुछ देखा-सुना जाता है सब भगवान ही है, ऐसा ज्ञान जिसे प्राप्त हो जाए वही इस संसार में अत्यंत दुर्लभ महात्मा है' - "बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेव: सर्वमिति स महत्मा सुदुर्लभ:" (7। 19)। ऐसा अद्वैत तत्वज्ञानी दूसरे के सुख-दु:ख को अपने में ही अनुभव करता है। यदि किसी को भी एक लाठी मारो तो उसकी चोट उसे ही लगती है। इसीलिए उसका हृदय द्रवीभूत हो के दत्तचित्तता के साथ लोकसंग्रह में उसे दिन-रात लग जाने को विवश कर देता है। इस बात का कितना मार्मिक वर्णन गीता के छठे अध्याेय के ये श्लोक करते हैं, 'सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:। यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति। सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:। सर्वथा वर्त्तमानोऽपि स योगी मयि वर्त्तते। आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमोमत:' (6। 29-32)।
इनका आशय यह है कि 'जिसका मन सब तरफ से हट के आत्मा - ब्रह्म - में लीन हो गया है और जो सर्वत्र समदर्शी है (समदर्शन का पूरा विवेचन पहले किया गया है) वह अपने आपको सभी पदार्थों में और पदार्थों को अपने आप में ही देखता है। इस प्रकार जो भगवान को भी सर्वत्र - सभी पदार्थों में - देखता है और पदार्थों को भगवान में, वह न तो भगवान - ब्रह्म - से जरा भी जुदा हो सकता है और न भगवान ही उससे जुदा हो सकता है - दोनों एक ही जो हो गए - जो योगी सभी पदार्थों में रहने वाले - पदार्थों के रग-रग में रमने वाले - एक हो भगवान को अपने से जुदा नहीं देखता, वह चाहे किसी भी हालत में रहे, फिर भी परमात्मा में ही रमा हुआ रहता है। जो योगी किसी भी प्राणी या पदार्थ के दु:ख-दु:ख को अपना ही समझता है, अनुभव करता है, वही सर्वोत्तम है।' इसी ज्ञान के बारे में पुनरपि गीता कहती है कि 'उसे हासिल करके फिर इस प्रकार भूल-भुलैया में हर्गिज न पड़ोगे। तब हालत यह होगी कि संसार के सभी पदार्थों को अपने आप में देखोगे और मुझमें भी - अर्थात तुममें, हममें - परमात्मा में - और इस जगत में कोई विभिन्नता रहेगी ही नहीं - सभी एक ही बन जाएँगे' - "यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पांडव। येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि" (4। 25)।
हमने शुरू में ही कर्मों के भेदों के निरूपण के प्रसंग में बता दिया है कि आगे बढ़ते-बढ़ते सभी भौतिक पदार्थों और परमात्मा के साथ आत्मा की तन्मयता कैसे हो जाती है। वही बात गीता बार-बार कहती है। इसीलिए जो प्रत्येक शरीर में आत्मा को जुदा-जुदा मानते हैं वह तो गीता से अनंत दूरी पर है। उनसे और गीताधर्म से कोई ताल्लुक है नहीं। सबकी एकता - एकरसता - के पहले सभी शरीरों की आत्मा की एकता तो अनिवार्य है। ऐसी बुद्धि और भावना सबसे पहले होनी चाहिए। यहीं से तो गीता का श्रीगणेश होता है। इसीलिए 'अंतवंत इमे देहानित्यस्योक्ता शरीरिण:' (2। 18) आदि श्लोकों में अनके शरीरों में रहने वाले शरीरी - आत्मा - को एक ही कहा है। जहाँ 'देहा:' यह बहुवचन दिया है, तहाँ 'शरीरिण:' एकवचन ही रखा है। आगे भी यही बात है। 'क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत' (13। 2) में भी सभी क्षेत्रों में - शरीरों में - एक ही क्षेत्रज्ञ - शरीरी - को कह के साफ सुना दिया है कि शरीर और शरीरी - आत्मा - भगवान के ही स्वरूप हैं। 'मयि ते तेषु चाप्यहम्' (9। 29) में भी यही बात कही गई है कि भक्तजनों में भगवान हैं और भगवान में भक्तजन हैं -अर्थात दोनों एक हैं। 'अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते' (12। 6) में भी दोनों की अभिन्नता - एकता - ही कही गई है। ऐसे ज्ञानियों की हालत यह होती है कि न तो उनसे किसी को उद्वेग या जरा-सी भी दिक्कत मालूम होती है और न उन्हें दूसरों से। यही बात 'यस्मान्नोद्विजते लोक:' (12। 15) में कही गई है। यही है ज्ञानी जनों की पहचान। 'मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी' (13। 10) में इसी अद्वैततत्वज्ञान को अव्यभिचारिणी भक्ति नाम दिया है। 'मां च योऽव्यभिचारेण' (14। 26) में इसे ही अव्यभिचारी भक्ति योग भी कहा है।