कर्मों के भेद और उनके काम
यह तो पहले ही कह चुके हैं कि जब कर्म अपना फल देते हैं तो उस फल की सामग्री को जुटाकर ही। कर्मों का कोई दूसरा तरीका फल देने का नहीं है। एकाएक आकाश से कोई चीज वे टपका नहीं देते। अगर जाड़े में आराम मिलना है तो घर, वस्त्र आदि के ही रूप में कर्मों के फल मिलेंगे। इन्हीं कर्मों के तीन दल प्रकारांतर से किए गए हैं। एक तो वे जिनका फल भोगा जा रहा हो। इन्हें प्रारब्ध कहते हैं। प्रारब्ध का अर्थ ही है कि जिनने अपना फल देना प्रारंभ कर दिया। लेकिन बहुत से कर्म बचे-बचाए रह जाते हैं। सबों का नतीजा बराबर भुगता जाए यह संभव नहीं। इसलिए बचे-बचायों का जो कोष होता है उसे संचित कर्म कहते हैं। संचित के मानी हैं जमा किए गए या बचे-बचाए। इसी कोष में सभी कर्म जमा होते रहते हैं। इनमें जिनकी दौर शुरू हो गई, जिनने फल देना शुरू कर दिया वही प्रारब्ध कहे गए। इन दोनों के अलावे क्रियमाण कर्म हैं जो आगे किए जाएँगे और संचित कोष में जमा होंगे। असल में तो कर्मों के संचित और प्रारब्ध यही दो भेद हैं। क्रियमाण भी संचित में ही आ जाते हैं। यों तो प्रारब्ध भी संचित ही हैं। मगर दोनों का फर्क बता चुके हैं। यही है संक्षेप में कर्मों की बात।
अब जरा इनका प्रयोग सृष्टि की व्यवस्था में कर देखें। पृथिवी के बनने में समष्टि कर्म कारण हैं। क्योंकि इससे सबों का ताल्लुक है - सबों को सुख-दु:ख इससे मिलता है। यही बात है सूर्य, मेघ, जल, हवा आदि के बारे में भी। हरेक के व्यक्तिगत सुख-दु:ख अपने व्यष्टि कर्म के ही फल हैं। अपने-अपने शरीरादि को एक तरह से व्यष्टि कर्म का फल कह सकते हैं। मगर जहाँ तक एक के शरीर का दूसरे को सुख-दु:ख पहुँचाने से ताल्लुक है वहाँ तक वह समष्टि कर्म का ही फल माना जा सकता है। यही समष्टि और व्यष्टि कर्म चावल वगैरह में भी व्यवस्था करते हैं। जिस किसान ने चावल पैदा करके उन्हें कोठी में बंद किया है उसके चावलों से उसे आराम पहुँचना है। ऐसा करने वाले उसके व्यष्टि या समष्टि कर्म हैं जो पूर्व जन्म के कमाये हुए हैं। यदि चावलों के परमाणु निकलते ही जाएँ और आएँ नहीं, तो किसान दिवालिया हो जाएगा। फिर आराम उसे कैसे होगा? इसलिए उसी के कर्मों से यह व्यवस्था हो गई कि नए परमाणु आते गए और चावल कीमती बन गया। यदि पुराने नहीं जाते और नए नहीं आते तो यह बात न हो पाती। परमाणुओं का कोष भी कर्मों के अनुसार बनता है, बना रहता है। ईश्वर उसका नियंत्रण करता है। जब बुरे कर्मों की दौर आई तो घुन खा गए, चावल सड़ गए। या और कुछ हो गया। उनमें अच्छे परमाणु आ के मिले भी नहीं। यही तरीका सर्वत्र जारी है, ऐसा प्राचीन दार्शनिकों ने माना है। यों तो कर्मों के और भी अनेक भेद हैं। ऐसे भी कर्म होते हैं जिनका काम है केवल कुछ दूसरे कर्मों को खत्म (Negative) कर देना। ऐसे भी होते हैं जो अकेले ही कई कर्मों के बराबर फल देते हैं। मगर इतने लंबे पँवारे से हमें क्या मतलब? योगसूत्रों के भाष्य और दूसरे दर्शनों को पढ़ के ये बातें जानी जा सकती हैं।