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परमाणुवाद और आरंभवाद

असल में प्राचीन दार्शनिकों में और अर्वाचीनों में भी, फिर चाहे वह किसी देश के हों, सृष्टि के संबंध में दो मत हैं - तो दल हैं। एक दल है न्याय और वैशेषिक का, या यों कहिए कि गौतम और कणाद का। जैमिनि भी उन्हीं के साथ किसी हद तक जाते हैं। असल में उनका मीमांसादर्शन तो प्रलय जैसी चीज मानता नहीं। मगर न्याय तथा वैशेषिक उसे मानते हैं। इसीलिए कुछ अंतर पड़ जाता है। असल में गौतम और कणाद दोई ने इसे अपना मंतव्य माना है। दूसरे लोग सिर्फ उनका साथ देते हैं। इसी पक्ष को परमाणुवाद ( Atomic Theory) कहते हैं। यह बात पाश्चात्य देशों में भी पहले मान्य थी। मगर अब विज्ञान के विकास ने इसे अमान्य बना दिया। इसी मत को आरंभवाद (Theory of creation) भी कहते हैं। इस पक्ष ने परमाणुओं को नित्य माना है। हरेक पदार्थ के टुकड़े करते-करते जहाँ रुक जाएँ या यों समझिए कि जिस टुकड़े का फिर टुकड़ा न हो सके, जिसे अविभाज्य अवयव (Absolute or indivisible particle) कह सकते हैं उसी का नाम परमाणु (Atom) है। उसे जब छिन्न-भिन्न कर सकते ही नहीं तो उसका नाश कैसे होगा? इसीलिए वह अविनाशी - नित्य - माना गया है।

परमाणु के मानने में उनका मूल तर्क यही है कि यदि हर चीज के टुकड़ों के टुकड़े होते ही चले जाएँ और कहीं रुक न जाएँ - कोई टुकड़ा अंत में ऐसा न मान लें जिसका खंड होई न सके - तो हरेक स्थूल पदार्थ के अनंत टुकड़े, अवयव या खंड हो जाएँगे। चाहे राई को लें या पहाड़ को; जब खंड करना शुरू करेंगे तो राई के भी असंख्य खंड होंगे - इतने होंगे जिनकी गिनती नहीं हो सकती, और पर्वत के भी असंख्य ही होंगे। वैसी हालत में राई छोटी क्यों और पर्वत बड़ा क्यों? यह प्रश्न स्वाभाविक है। अवयवों की संख्या है, तो दोनों की अपरिमित है, असंख्य है, अनंत है। इसीलिए बराबर है, एक-सी है। फिर छुटाई, बड़ाई कैसे हुई? इसीलिए उनने कहा कि जब कहीं, किसी भाग पर, रुकेंगे और उस भाग के भाग न हो सकेंगे, तो अवयवों की गिनती सीमित हो जाएगी, परिमित हो जाएगी। फलत: राई के कम और पर्वत के ज्यादा टुकड़े होंगे। इसीलिए राई छोटी हो गई और पर्वत बड़ा हो गया। उसी सबसे छोटे अवयव को परमाणु कहा है। परमाणुओं के जुटने से ही सभी चीजें बनीं।

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत