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तीनों गुणों की जरूरत

अब हमें एक ही बात का विचार करना शेष है जिसका सृष्टि से ही ताल्लुक है। बाद में प्रलय की बात कह के आगे बढ़ेंगे। सृष्टि की रचना कैसे होती है यह बात तो प्रलय के ही निरूपण में आगे आएगी। अभी तो हमें यह देखना है कि इन तीनों परस्पर विरोधी गुणों की क्या जरूरत है। क्या सचमुच ही इन तीनों की आवश्यकता है, यह प्रश्न होता है। उत्तर में 'हाँ' कहना ही पड़ता है। यह कैसे है यह बात और ये तीनों एक दूसरे की मदद कैसे करते हैं यह भी एक ही साथ मालूम हो जाएगी। यदि सिर्फ सत रहे तो हम ज्ञान, प्रकाश तथा सुख से ऊब जाएँगे। एक ही चीज का निरंतर होना (Monotony) ही तो ऊबने का प्रधान कारण है। इसीलिए तो परिवर्तन जरूरी होता है। ज्ञान के मारे न नींद, न खाना-पीना, न और कुछ होगा। प्रकाश में चकाचौंध हो जाएगी। हलका हो के यह संसार कहाँ उड़ जाएगा कौन कहे? यदि सिर्फ तम हो तो भी दबते-दबते कहाँ जाएगा पता नहीं। निरंतर नींद, भारीपन, जड़ता, अँधेरा, अज्ञान कौन बरदाश्त करेगा? पत्थर की दशा भी उससे अच्छी होगी। संसार का कोई काम होगा ही नहीं। इसलिए यदि सत और तम दोनों को ही मानें तो दोनों एक दूसरे को दबा के खत्म या बेकार (neutralised) कर देंगे। फलत: दो में एक का भी काम न होगा। इसीलिए रज आ के दोनों में क्रिया पैदा करता है, दोनों को चलाता है; ताकि दोनों सारी ताकत से आपस में भिड़ न सकें। न दोनों जमेंगे, स्थिर होंगे और न जम के लड़ेंगे। फिर एक दूसरे को बेकार कैसे बनाएँगे? यदि रज ही रहे और बराबर क्रिया होती रहे तो भी वही बेचैनी! सारी दुनिया जल्द घिस जाए, मिट जाए। इसलिए तम उसे दबा के बीच-बीच में क्रिया को रोकता है। सत क्रिया का पथ-प्रदर्शन करता है प्रकाश और ज्ञान दे के। मगर जब तम प्रकाश को रोक देता है तो ज्ञान के अभाव में भी क्रिया रुकती है। ज्ञान और क्रिया के बिना कुछ होई नहीं सकता। अत्यंत हलकी चीज स्थिर हो सकती ही नहीं। फिर उसमें ज्ञान या क्रिया हो कैसे? उसे वजनी बनाने के लिए भी तो तमोगुण चाहिए ही इस प्रकार तीनों की जरूरत और परस्पर सहायता स्पष्ट सिद्ध है।

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत