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चच्चा


ट्रिन ट्रिन फोन की घंटी ने नींद खोली। शनिवार ऑफिस की छुट्टी, देर तक सो रहा था। सुबह सुबह किस का फोन आ गया। एक बार शंका हुई कहीं ऑफिस से बुलावा तो नही है। खैर फोन ऑफिस का नही था।
"हेलो"
"वीरजी मैं गोगी।"
एक अर्से के बाद गोगी की आवाज सुन कर बिजली का सा करन्ट लगा। गजब की फुर्ती आ गई। सोच में पढ गया, कि अचानक गोगी का फोन।
"और गोगी कैसा है तू, चच्चा कैसा है।"
मेरे इस प्रश्न पर कुछ पल की चुप्पी के पश्चात गोगी की आवाज सुनाई दी "चच्चा नही रहे।"
"कब"
"कल रात को।"
चच्चा की मौत की खबर सुन कर मैं सुन्न रह गया। अतीत के परदे एक एक करके चलचित्र की तरह खुलने लगे।

 

सात वर्ष पहले मेरे विवाह पर सबसे अधिक खुशी, शायद मुझसे भी अधिक चच्चा को हुई थी। विवाह के हर समारोह में सबसे आगे चच्चा थे। सबसे खुश चच्चा थे। चच्चा और चच्ची ने पूरा पंजाबी समा बांध दिया। सारे संबंधी एक दिल्लीवाल की शादी में सिख परिवार को खुशियां लुटाते देख हैरानी से पूछते, कौन है, सरदार, जिसने इतनी रौनक लगा रही है। मेरे पिता छाती फुला कर बताते, मेरा छोटा भाई है। भाई गोद लिया है, हंस कर संबंधी मजाक करते, लेकिन न तो मुझे, और न ही मेरे माता पिता किसी ताने, मजाक से परेशान थे। खून का तो कोई रिश्ता नही था, चच्चे के साथ। भाईचारा, इंसानियत का सबसे बडा रिश्ता था, चच्चे का मेरे साथ।

 

चच्चा सरदार करमजीत और चच्ची सरदारनी कमलजीत। मेरे मकान मालिक थे। मंडीगोबिन्दगढ में मैं सात साल रहा, उनके मकान में। मैं था तो किराएदार, लेकिन उनके स्वभाव और दरियादिली के कारण मैं उनके बेटे समान था। उनका बेटा गुरशरण, घर का नाम गोगी और बेटी मनप्रीत, घर का नाम मनी।

 

स्टील टाउन मंडीगोबिन्दगढ, जिसे सब मिनी टाटानगर, मिनी जमशेदपुर भी कहते है, सिर्फ स्टील मिलें। पहली नौकरी मिली, पोस्टिंग मंडीगोबिन्दगढ में। दिल्ली में पैदा हुआ, पढाई, लिखाई, घर, परिवार, नौकरी तो दिल्ली की कंपनी में मिली, एक महीने बाद मंडीगोबिन्दगढ की यूनिट में ट्रान्सफर। पूरे सात साल मंडीगोबिन्दगढ रहा। चच्चा बैंक में मैनेजर, एक खुशहाल व्यक्ति, जिसके चेहरे पर हमेशा हंसी रहती थी, रेलवे स्टेशन के पास ही उनका बडा सा मकान था। एक छोटी हवेली थी। दरवाजा खोलते एक बडा सा आंगन। दोनो तरफ तीन तीन कमरे, बीच में चौडा रास्ता, जहां चच्चा बागवानी करते थे। पौधो को अपने बच्चों से भी अधिक हिफाजत से सीचते थे। फिर पीछे खूब बडा दलान, जहां चच्चा ने फलदार पेड लगा रखे थे। पपीता, अमरूद, केला, जामुन और नीम के कई पेड थे। एक हंसमुख, सदाबहार शखसियत, जिनके घर मैं सात साल किराएदार रहा। कुल मिला कर सात साल मंडीगोबिन्दगढ नौकरी की और सात साल उस शखसियत का परिवार का हिस्सा बन कर रहा। कभी भी महसूस नही हुआ, कि मैं एक किराएदार हूं। मुझे कभी भी अलग रसोई नही बनाने दी। सुबह सरदारनी टिफन पैक करके देती और रात को पूरे परिवार के साथ खाना खिलाती। ऐसे परिवार का सदस्य बन कर मैं खुद को धन्य समझता था।

 

पंजाबी लहजे में चच्चा और चच्ची मुझे पुतर कहते थे। अपना पुत्र मानते थे और मैं भी उसी पंजाबी लहजे में चच्चा और चच्ची कहता था। दोनों बच्चे गोगी, मनी मुझसे छोटे थे। अपना बडा भाई मान कर मुझे वीरजी कहते थे। वो समय केबल, सेटेलाईट टीवी का नही था, शाम को और छुट्टी वाले दिन सब मिल कर ताश, कैरम खेलते थे और दोनों बच्चों को पढा भी देता था। हम सबमें अपनापन था। बागवानी के गुण चच्चा से सीखे। जीवन में हंसी का महत्व सीखा। एक छोटे से शहर में घर से दूर रह कर दुनियादारी सीखी। परायो को अपना बनाना सीखा। जो दिल्ली में रह कर संभव नही था। छोटी जगह में बडा नजरिया रखना सीखा। परिवार का महत्व क्या होता है, जाना।

 

सात साल साथ रहने के पश्चात कंपनी नें दिल्ली ट्रान्सफर कर दिया। रोते रोते ठीक वैसे मेरी विदाई हुई, जैसे विवाह के बाद घर की लडकी को विदा किया जाता है। मेरी आंखों में भी आंसू थे। उसके दो साल बाद तक मेरा चच्चा से मिलना होता रहा। कंपनी के काम से मंडी गोबिन्दगढ आना जाना लगा रहा। मनी के विवाह पर मेरा परिचय अपने बडे बेटे की तरह मनी की ससुराल में करवाया। मुझे गर्व होता रहा, जब जब मैं चच्चा के परिवार से जुडा रहा।

 

लडकी के विवाह पश्चात चच्ची का निधन हो गया और चच्चा अकेले पड कर एकान्त में चच्ची की याद में उदास रहने लगे। वह हंसमुख शखसियत गमगीन रहने लगा। जीवन के इस पडाव में जब बच्चे बडे हो जाए, लडकी विवाह के बाद विदा हो गई, लडका विवाह योग्य हो, एकान्त जीवन काटना मुश्किल हो जाता है। एक बार चच्चा से मिला तो उदास चेहरे को देख कर मैने दूसरे विवाह की सलाह दी। जोर से ठहाका लगा कर चच्चा ने कहा, "पुतर, तेरा भी जवाब नही, बाप की शादी करवाएगा।"
"तो हर्ज ही क्या है, अभी उम्र ही क्या है, छोटी उम्र में शादी हो, तो पचास की छोटी उम्र में आप सारी चिन्ताऔ से फ्री हो गए। अब चच्ची नही, तो दूसरी चच्ची उसका स्थान तो नही ले सकती , लेकिन आपका सूनापन बांट सकती है। अभी तो पूरी जिन्दगी बाकी है। चच्चा तुमहारे खुशहाल का कारण चच्ची थी। वह गई, तो तुमहारी हंसी भी गई। फीकी हंसी लेकर जीना मुश्किल है। चच्चा कोई हर्ज नही है, कई लोग दूसरी शादी करते है।"
"नही पुतर, शादी तो नही करूंगा।"
चच्चा ने खुद शादी नही की, लडके की कर दी। शादी के बाद लडका अपनी गृहस्थी में रम गया। चच्चा अकेला रह गया। दिन तो बैंक की नौकरी में कट गया। रात काटनी मुश्किल हो गई चच्चा को।
मैनें नौकरी बदल ली और मेरा मंडीगोबिन्दगढ जाना बंद हो गया। एक तरफ से कहा जाए, कि चच्चा से नाता ही टूट गया। फुरसत में सोचता, वो चच्चा के साथ बिताए दिन। बस अब यादे ही रह गई थी चच्चा की।

 

लुधियाना और जालंधर अक्सर नौकरी के सिलसिले में आना जाना लगा रहता था, लेकिन चाह कर भी मंडीगोबिन्दगढ नही जा सका। लुधियाना के पास ही है, मंडीगोबिन्दगढ। घंटे भर में पहुंच सकता था, लेकिन कुछ समझ नही आया, कि दिल बार बार छलांगे मारता था, कि मंडीगोबिन्दगढ जरूर जाऊ, लेकिन छलांग उतनी लंबी कभी नही लगी कि मंडीगोबिन्दगढ तक पहुंच सकूं।

 

छोटी बहन के विवाह पर चच्चा को न्योता दिया, पर चच्चा नही आया। मुझे हैरानी हुई, कि चच्चा क्यों नही आया। आखिर पल तक मैं दरवाजे को ताकता रहा, कि चच्चा आ रहे होगें, पर चच्चा नही आया। मुझे मायूसी हुई और हैरानी भी, कि क्या कारण होगा, कि चच्चा नही आया। समय बीतता रहा और मेरी चच्चा से दूरिया बढती रही।
दो वर्ष बाद
लुधियाना कंपनी के काम से गया, एक दिन का काम था, पूरा नही हुआ, अगले दिन के लिए रूकना पढा। कंपनी की कार थी, शाम को चच्चा से मिलने मंडीगोबिन्दगढ पहुंच गया।
दरवाजे की घंटी बजाई। एक पतली सी महिला ने दरवाजा खोला। एक साधारण रूप, सांवले रंग की स्वामिनी। मैंने उसे पहली बार देखा था।
"चच्चा घर पर हैं, मिलना है।" फिर पल भर बाद झेप कर कहा "सरदार करमजीत जी से मिलना है।" सोच रहा था, कि मैं किसको चच्चा कह रहा हूं, वह जानती है, कि नही।
"अंदर आईये, पुतर, दारजी बाजार सब्जी लेने गए है, दस पांच मिन्टों में आते ही होगे। मैं चाय बनाती हूं।" मुझे कमरे में बिठा कर वह चाय बनाने रसोई चली गई। घर के बीचों बीच दीवार डल चुकी थी। मकान आधा हो चुका था। मैंने सोचा, शायद चच्चा ने आधा मकान बेच दिया हो। मैं इस उधेरबुन में था, तभी वह महिला चाय लेकर आई। मैं चाय पी रहा था, तभी चच्चा हाथ में सब्जी का थैला लिए आ गए। मुझे देख कर उत्साहित स्वर में बोले।
"पुतर, कोई खबर नही आने की। कैसा है तू।"
"चच्चा सब तुम्हारी दुआए हैं। सब ठीक है। चच्चा, आज तुम्हारी हंसी देख कर मुझे बहुत खुशी हो रही है। ऐसे ही चच्चा के साथ मैंने सात साल बिताए। आज खुशी का कोई ठिकाना नही है। मेरा चच्चा खुश, मैं खुश।”
"जीता रह पुतर।"
उसके बाद बातों का सिलसिला शुरू हुआ। मैने अपनी नाराजगी जाहिर की।
"यह क्या चच्चा, मैं क्या पराया हो गया हूं। मेरे कहने पर और वायदा करके भी मेरी बहन की शादी में क्यों नही आए। चच्चा, तुम्हारी राह तकता रहा। मैं तेरा पुतर ते, मेरी बहन तेरी लडकी नही हुई, क्या चच्चा।"
"नाराजगी छोड पुतर, यह हो ही नही सकता था, कि मैं अपनी लडकी की शादी में नही आता। बात यह है, पुतर यह जो जनानी देखी न, तेरी चच्ची है।"
"चच्ची, इसका मतलब यह, कि तूने शादी करली, और मुझे बताया ही नही।"
"पुतर हुआ यह कि जिस दिन तेरी बहन की शादी थी, उसी दिन मेरी भी शादी थी, इस कारण नही आ सका।"
"यह तो बहुत खुशी की बात है, कि तूने चच्चा शादी कर ली, मैं तो कब से तेरे को कह रहा था, करले शादी। देख शादी करके वापिस रौनक आ गई न, मेरे चच्चा के चेहरे पर। लेकिन यह बात गलत है, कि मुझे खुशी में शरीक नही किया। मुझे पराया समझ लिया क्या, सबसे अधिक तो मैं खुश हूं, तेरे विवाह पर।"
अब चच्चा के चेहरे पर उदासी छा गई। कुछ देर की चुप्पी के बाद चच्चा ने बताया, कि उसके दूसरे विवाह पर उसकी दोनों औलाद नाराज हो गई। लडके और लडकी दोनों बगावत पर उतर आए, कि बुढापे में मेरी मति खराब हो गई है। लडकी की ससुराल वालों ने भी काफी हंगामा किया। हाल यह हुआ, कि लडका मेरे से अलग हो गया है, घर के बीच में जो दीवार देख रहा है, वह मेरी शादी के कारण खिची है। मेरे बच्चों को लगने लगा, कि मैं सारी दौलत नई बीवी को दे दूंगा। इसलिए मैंने आधा घर लडके को दे दिया। खाली समय कटता नही था, तेरी सलाह याद आती थी, कि दूसरी शादी कर लूं। कर तो ली, लेकिन घर बिखर गया। बस इसी कलेश के कारण तेरे को नही बताया।"
कहते कहते चच्चा की आंखे नम हो गई।चच्चा को एक खुशी मिली, तो दूसरी चली गई। मैंने चच्चा के लडके गुरशरण से मिलने का फैसला किया। वह घर पर नही था। देर रात को आने का था। मिलने के लिए रात मैं चच्चा के पास ठहरा। नई चच्ची एक गरीब घर से थी। उम्र में चच्चा से बीस वर्ष छोटी थी। गरीबी के कारण विवाह में कठनाई हुई। बैंक में एक सहकर्मी ने लोन रिकवरी के समय परिवार की आर्थिक हालात देखकर चच्चा को चच्ची से मिलवाया। चच्ची के परिवार की आर्थिक मदद हो गई और चच्ची चच्चा की। सुबह मैं गुरशरण से मिला। पहले तो बहुत आतमियता से मिला, लेकिन जैसे मैंने चच्चा की शादी का जिक्र किया, वह आपे से बाहर हो गया।

 

"वीरजी बेहतर होगा, आप इस विषय में मेरे से बात न करे। बुढापे में मति मारी गई है। ऐसे बाप होते हैं, पोतो, दोहतो के होते अपनी शहनाई बजवाई, ठरकी हो गया है, तुम्हारा चच्चा।"
"ऐसा नही है, गोगी। आप दोनों बच्चों को पिता की तरफ देखना चाहिए। आप अपने परिवार में रम गए हो। वह अकेलापन कैसे दूर करे। कोई साथी तो चाहिए। चच्ची चच्चा की जान थी। उसके जाने के बाद चच्चा टूट गया है। अकेला सारे जीवन का सफर नही कटता। कोई साथी चाहिए, फुरसत के पल में।"
"समय काटने के लिए हम हैं, बच्चो के साथ समय काटो। कीर्तन करो। आपकी कोई बात गले से नीचे नही उतर सकती।"
"हर व्यक्ति अपने में सीमित रहता है। आप मियां बीवी अपने में मशगूल रहोगे। कुछ पल चच्चा के साथ बैठोगे। बच्चो के साथ घंटा आधा घंटा, बाकी समय पागल कर देता है, गोगी।"
गोगी अभ्रद भाषा पर उतर आया। कोई तर्क उसे सही नही लग रहा था। वह यही समझता था, कि चच्चा ने शारीरिक पूर्ती के लिए दूसरा विवाह किया है। शायद हमारे समाज के बनाए नियम आडे आ रहे थे, कि दूसरा विवाह बडी उम्र में शोभनीय नही है। पचास के बाद कथा कीर्तन करना चाहिए। आज मानव लम्बी उम्र जीता है। जीवनसाथी के बिछडने के बाद क्या दूसरा साथी चुनना अपराध है? बिल्कुल नही। बात शारीरिक जरूरतों की नही, मानसिक और मनोविज्ञानिक जरूरतों की है। सामने एक साथी है, तो मनुष्य खुद को सुरक्षित मानता है, चाहे साथी निर्बल हो। एक साथी हर उम्र में चाहिए, जो दो बोल चाहे, आंखों आंखों में ही चुपचाप बोल दे, वही मिश्री के समान होते है।
चच्चा और गोगी का मिलन मैं नही करा सका। मैं वापिस आ गया, लेकिन एक बात मुझे खुशी दिला गई, कि चच्चा के जीवन में साथी ने नीरसता समाप्त कर दी और उसकी हंसी लौट आई है। मैं फिर चच्चा से नही मिला। लुधियाना जाता, लेकिन मंडीगोबिन्दगढ नही जाता। कदम ठिठक जाते।

 

आज चच्चा के निधन पर धक्का लगा। पिछले पांच वर्षो से चच्चा से संबंध नही रहा था, लेकिन सात वर्षो तक चच्चा का पुतर था। परिवार का एक हिस्सा। चच्चा के अंतिम संस्कार के लिए मंडीगोबिन्दगढ रवाना हुआ। आखिर बार गोगी से मिलाप सुखद नही था, लेकिन इस बार गोगी का प्यार उमड रहा था। आज वह वोही गोगी था, जब मैं किराएदार था। उठावनी के बाद भरी बिरादरी के सामने गोगी ने चच्ची को अपनी मां कहा और मजदूर बुलवा कर घर के बीच खींची दीवार तुडवा दी। मैं कुछ गोगी से पूछता, वह खुद ही बोला "वीरजी, आप पांच साल पहले आए थे, आप की बात उस समय मेरी समझ में नही आई। चच्चा पिछले एक साल से बीमार थे। चच्ची चुपचाप चच्चा की तीमारदारी करती रही, किसी से कुछ नही कहा। मेरा ताया कनाडा से चार महीने पहले आया, उसने सब देख कर मुझसे कहा, कि चच्चा ने ठीक किया है, इस उम्र में तीमारदारी कर रही है। अगर शादी नही करता तो, बच्चे इतनी सेवा नही कर सकते थे। बाहर कनाडा में तो आम बात है, बडी उम्र में शादी। इस उम्र में शादी शारीरिक जरूरत के लिए नही, बल्कि मानसिक संतुलन के लिए भी की जाती है। बावरा हो जाता है, अकेला रह कर आदमी। मेरी ताई के मरने के बाद ताया ने दो शादियां अंग्रेज मेमों से की। पहली से तलाक हो गया और अब दूसरी मेम के साथ इंडिया घूम रहा है। चच्चा के अंतिम दिनों में मुझे एहसास हुआ, कि आप ठीक कह रहे थे। चच्ची ने जीजान से जितनी सेवा की, उसका शायद दस प्रतिशत भी शायद मैं नही कर पाता। वीरजी आपसे माफी मांगता हूं। चच्ची मां की तरह रहेगी। वीरजी हमारा साथ मत छोडना। आते रहना। गलतियों पर मार्ग दर्शन की जरूरत है।"
गोगी की बात सुन कर मेरी आंखे नम हो गई। गोगी मेरा वीर।