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आज की सरकारी शिक्षा

वैसे तो लगभग चालीस साल पहले भी भारत की राजधानी दिल्ली के स्कूलों में यही होता था, जो आज भी हो रहा है, आगे भी होता रहेगा। मैंने स्वयं खुद अपने स्कूल में देखा है। चलो अपने स्कूल का नाम नही बताता।एक काल्पनिक स्कूल की बात करते है। कहां होना चाहिए स्कूल, नवगांव में। कर लो बात, अब नवगांव कहां है। इस बात को छोडो, कहीं भी हो सकता है, किसी भी राज्य में। जो राज्य आपको पसंद हो या फिर नापसंद, वहीं पर नवगांव बसा लेते हैं।वैसे आप नवगांव के स्थान पर कोई और भी लिख सकते है, जो आपको पंसद हो।
शहर–नवगांव
स्थान – सरकारी हाई स्कूल
कक्षा – बाहरवी
अब आप पूछेगें, कि बाहरवी कक्षा ही क्यों? बाहरवीं इसलिए, क्योंकि बच्चे बडे हो जाते है, पिता जी के साइज की बनियान पहनने लगते हैं, तू तडाक भी करते हैं। इस कारण बाहरवीं कक्षा उचित है।
स्कूल के हेडमास्टर की ड्यूटी लगी, पढाने के लिए। दिल तो नही था उनका पढाने का। वैसे बच्चों का कौन सा दिल होता है, पढने के लिए। न तो पढाने वाले का दिल और न ही पढने वालों का दिल। मजबूरी है, मां बाप पढने भेज देते है, स्कूल में, तब औपचारिकता भी तो पूरी करनी होती है।
स्कूल का समय हो गया है। बच्चे स्कूल में इधर उधर मस्ती कर रहे हैं। कुछ उधम कर रहे है। स्कूल कम, सब्जी मंडी अधिक लग रहा है। प्रिंसिपल हेडमास्टर से कह रहे है, बाहरवीं की बोर्ड परीक्षा सिर पर है, पढाने के लिए टीचर नही है, ऐसा करो, सरकारी नीति के अंदर आठवीं तक तों किसी को फेल करना नही है, बाहरवीं के रिजल्ट से स्कूल की प्रतिष्ठा होती है। अब से तुम बाहरवीं को पढाऔगे।
हेडमास्टर – मुझ से यह नही होगा। मैं तो छोटी क्लास का टीचर हूं। आठवीं तक ही पढा सकता हूं।
प्रिंसिपल – मैं कुछ नही सुनूंगा। बाहरवीं को पढाना पढेगा।
हेडमास्टर – नेताऔं वाले काम मुझसे न करवाऔ।
प्रिंसिपल– क्या मतलब।
हेडमास्टर – नेताऔं का क्या, कभी वित्त मंत्री, तो कभी कोयला मंत्री तो कभी शिक्षा मंत्री। हम आम लोग यह नहीं कर सकते। आठवीं का मास्टर बाहरवीं को नही पढा सकता।
प्रिंसिपल– मैं कुछ नही जानता. तुम आज से बाहरवीं को पढाना शुरू कर दो।
हेडमास्टर भी क्या करे, बाहरवीं क्लास में पहुंच गए पढाने को।
आज की क्लास आरम्भ। क्लास में टूटी फूटी कुर्सियां और बैंच। इसलिए स्कूल में हेडमास्टर खडे होकर पढा रहे हैं और विद्यार्थी आस पास बैठे या खडे सुन रहे हैं।
हेडमास्टर – भारत में असभ्य लोग रहते थे। सारे के सारे उजड गंवार, किसी को अक्ल नही। गडरिये गडबड गाया करते थे, उन्ही को लोग वेद कहने लगे। सब असभ्य थे। अंग्रेजों ने भारत को सभ्यता सिखलाई।
ज्ञानचंद – सब असत्य है। जब अंग्रेजों का जन्म भी नही हुआ था, तब से भारत सभ्य है। रामायण काल और महाभारत काल में अंग्रेज कहां थे। हमारे वेद-शास्त्र, उपनिषद और पुराण भारत की आदिम सभ्यता की घोषणा करते हैं।उजड गंवार क्या अंग्रेजों के देश मे नही रहते? क्या उनके यहां सभ्यता आ गई थी? भूले भटके पूरे स्कूल में ज्ञानचंद जैसे दो चार पता नही कहां से आ जाते है, पढने। देखा जाए तो सरस्वती मेहरबान रहती है और प्रतिभा संपन्न दो चार विद्यार्थियों की बदोलत सरकारी स्कूल बडे गर्व से कहते है, कि कौन कहता है, कि हम पढाते नही। आजकल तो मां बाप बच्चों को प्राईवेट स्कूलों के चक्कर में रहते हैं। हम तो फ्री में पढाते हैं, पता नही प्राईवेट स्कूलों के पीछे क्यों पागल हैं?
हेडमास्टर ने उससे पीछा छुडाने के लिए करमचंद से पूछा– बोलो, करमचंद, स्वेज नहर पर कितने बंदर है।
करमचंद – बंदर या बंदरगाह?
हेडमास्टर – बंदरगाह।
करमचंद – मैं अपने दिमाग के साथ अत्याचार नही कर सकता कि उसे स्वेज के बंदर याद कराऊं कि जिससे मेरे जीवन को कई लाभ नही. अपने पुस्तकालय में एक भूगोल की पुस्तक रख दी है। उसमें दुनिया भर के बंदर और बंदरगाह लिखे हैं। आप पढ लेना।
हेडमास्टर – सुरेश कहां गया?
ज्ञानचंद – बरामदे में खडा सिगरेट पी रहा है।
हेडमास्टर – क्यों रमेश, प्रशान्त महासागर?
रमेश – अरे दइय्रा, मार डाला।
हेडमास्टर – अब क्या हो गया?
रमेश – हरीश ने एक आलपीन मेरी जांघ में घुसेड दी।
हेडमास्टर – क्यों, हरीश, यह क्या हरकत है?
हरीश – यह मेरे पास क्यों बैठा है। मुझे इससे नफरत है।
हेडमास्टर – क्यों नफरत है?
हरीश – रमेश ने मेरे पिता से कह दिया कि मैं ताश खेलता हूं और दो चार रूपये रोजना हारता हूं।यदि हार भी जाता हूं तो क्या इसके बाप के पैसे हारता हूं। हारता हूं तो क्या चला जाता है, इसके बाप का?
हेडमास्टर – तुम दोनों अलग अलग बैठोगे।
रमेश – कहां बैठू? कोई बैंच तो सलामत है नही इस स्कूल में। ऐसा करता हूं, कि कल से घर से चटाई ले कर आऊंगा। आराम से कोने में बिछा कर लेटूंगा।
हेडमास्टर – क्यों दिनेश। एलजेबरा याद किया?
दिनेश – जब मैं एलजेबरा की किताब उठाता हूं, तो दिल और दिमाग एक ही बात कहते हैं, कि एलजेबरा क्या मदद करेगा, मेरी? यह तो अत्याचार है, सरासर।
हेडमास्टर – हमारी शिक्षा को अत्याचार बताता है।
ज्ञानचंद – इन सब पाठय पुस्तकों को फाड कर फेंक देना चाहिए। कुछ भी व्यवाहरिक नही है, हमारी शिक्षा प्रणाली में।
दिनेश – देखो हेडमास्टर जी, हमारे में से आधों ने तो बाप की दुकानों पर बैठना है और बाकी आधो ने क्लर्की करनी है। न तो दुकान पर बैठने की शिक्षा मिलती है न ही क्लर्क बनने की।
ज्ञानचंद – एलजेबरा न तो दुकान में कोई मदद करता है न ही क्लर्की में। हम अंट शंट क्यों पढे।
हेडमास्टर – तुम लोगों को विद्या नही आएगी।
ज्ञानचंद – विद्या लेकर क्या करेगें हम सब?
हेडमास्टर – तुम सब एक नंबर के बेहूदे और निकम्मे हो। पाजी हो पाजी।
सभी लडके एक स्वर में – हमारे साथ गाली गलौच की तो अच्छा नही होगा।
हेडमास्टर – सबको रेस्टीकेट करवा दूंगा।
इतना सुन कर सभी लडके हेडमास्टर हाय हाय के नारे लगाते हुए क्लास से बाहर आए, पूरे स्कूल का चक्कर लगाया और स्कूल के गेट पर धरने पर बैठ गए। प्रिंसिपल घबरा गया और हेडमास्टर से बोला – अरे पंगा लेने को किसने कहा था। बदनामी से तो डरो। भाड में जाए लडके, पढे पढे, न पढे न पढे, हमारे बाप का क्या जाता है।अपनी सैलरी की चिन्ता करो। हर महीने सैलरी जेब में रखो, विद्यार्थियों को गोली मारो। हेडमास्टर की समझ में आ गया। स्कूल गेट पर धरने पर बैठे लडकों से माफी मांगी।
हेडमास्टर स्टाफ रूम में जाकर आराम फरमाने लगे। लडके हुल्लड मचाने लगे।
कहिए कैसी लगी। क्या आपको अपने स्कूल के दिन याद आए। क्या कहा, आ गए, बहुत बढिया। वाह, वाह, वाह।
क्या कहा, नहीं मैं झूठ लिख रहा हूं, तब तो यह सत्य है कि आप सरकारी स्कूल में पढे ही नही।



मनमोहन भाटिया