टेलीफोन
टेलीफोन का आविष्कारक कोन है, स्कूल में पढने वाले विद्यार्थी को तो मालूम होगा, लेकिन टेलीफोन को इस्तेमाल करने वाले शायद किसी विरला को ही पता होगा कि किस व्यक्ति ने एक एैसे यन्त्र का आविष्कार करके दुनिया के हर व्यक्ति की जिन्दगी ही बदल दी है। पल भर में आप किसी भी व्यक्ति से कहीं भी बात कर सकते हैं। सुरेखा भी एक आम व्यक्ति है। जिसे आम खाने से मतलब है। किस पेड या माली का है, कुछ सरोकार नही। जिसने भी बनाया। उसका शुक्रिया अदा करती है। बडा ही भला मानस है। जिसने टेलीफोन बनाया। शुक्रिया अदा करने वाली बात ही है। हर तीन चार दिनों बाद सात समन्दर पार रहने वाली सुरेखा की अपनी लडकी शालिनी से बात जो हो जाती है। दिल को तसल्ली रहती है, इतनी दूर होने पर भी ऐसा लगता है कि शालिनी कहीं आस पास से बात कर रही है। अगर टेलीफोन नही होता तो दो चार साल बाद ही बेटी से मिलना होता, जब वो देस वापिस आती। टेलीफोन ने तो सुरेखा की दुनिया ही बदल दी है। बेटी से बात भी हो जाती है और अमेरिका दर्शन भी घर बैठे बिठाए हो जाता है। अमेरिका में क्या होता है, सुरेखा को पूरी खबर रहती है। टेलीफोन के कारण आस पडोस में धाख भी जम गई कि अमेरिका की नवीनतम जानकारी सुरेखा के पास होती है।
सर्दी का दिन था। कोहरा पूरा छाया हुआ था। खिडकी से बाहर देख कर ही शरीर
में सर्दी की एक झुरझुरी सी तैर जाती थी। अभी थोडी देर पहले ही शालिनी से
बात हुई थी। शालिनी दो महीने बाद छुट्टियों में भारत आ रही है। कुर्सी खींच
कर आंखे मूंद प्रसन्न मुद्रा में सुरेखा शालिनी के बारे में सोच रही थी।
कितनी चहक रही थी भारत में आने के नाम से। अपनों से मिलने के लिए फोन पर
मिलना एक अलग बात है। साक्षात अपनों से मिलने की बात ही कुछ और होती है।
अब विवाह के पांच वर्ष बाद शालिनी परिवार से मिलने भारत आएगी। पांच वर्षो
में काफी कुछ बदल गया है। शालिनी भारत से गई अकेली थी। वापिस दो बच्चों के
साथ परिवार से मिलने आ रही है। परदेस की अपनी मजबूरी होती है। सुख दुख
स्वयं अकेले ही सहना पडता है। इन पांच वर्षो में बहुत कुछ बदल गया गया है।
छोटे भाई की शादी हो गई। उसके भी दो बच्चे हो गए। बडे भाई का एक बच्चा था।
एक और हो गया। नानी गुजर गई। जिस मकान में रहती थी, उसको बेच कर दिल्ली में
आशियाना बना लिया। पापा बीमार चल रहे हैं, अब दुकान दोनों भाई चलाते हैं।
पापा तो कभी कभार ही दुकान जाते हैं। मां सुरेखा से अकसर क्या हर हफ्ते ही
फोन पर बात होती रहती है, और इधर उधर की बातों का आदान प्रदान हो जाता था।
पंजाब का एक छोटा सा शहर राजपुरा, जहां शालिनी का जन्म हुआ, पली बडी हुई।
पढाई में मन लगता नही था। बस लुडकते लुडकते बारहवी पास कर गई। मां बाप की
चिन्ता विवाह की थी। घर कार्यों में दक्ष थी, इसलिए बिना कोई विशेष प्रयत्न
किए राजपुरा के पास ही थोडी दूर मंडी गोबिन्दगढ में एक मध्यवर्गीय परिवार
में बडे लडके महेश के साथ रिश्ता संपन्न हुआ। महेश के पिता सरकारी कर्मचारी
थे। हांलाकि महेश के पिता एक क्लर्क थे, लेकिन ऊपर की आमदनी के कारण घर का
रहन सहन अच्छा था। महेश एक किराना स्टोर चलाता था। सुरेखा शालिनी के विवाह
से काफी खुश थी कि लडकी आंखों के सामने है। राजपुरा और मंडी गोबिन्दगढ की
दूरी एक घंटे की, जब दिल चाहा मिल लिए।
लेकिन यह खुशी मुश्किल से पांच महीने भी नही चल सकी। एक दिन सडक दुर्घटना
में महेश गुजर गया। शालिनी का सुहाग मिट गया। वह विधवा हो गई। दुखो का पहाड
टूट गया। बीस वर्ष की ऊम्र में विधवा होना भारतीय समाज में एक अभिशाप से कम
नही है। अभी महेश की चिता की आग भी ठंडी नही हुई थी, कि महेश की मां ने शोर
मचाना शुरू कर दिया। हाए हाए डायन निकली बहू खा गई मेरे बेटे को।
रिश्तेदारों का काम ही आग में घी डालने का होता है। तमाशबीनों की कोई कमी
नही। हां में हां मिलाने वाले कई मिल गए। सुर शोर में बदल गया। शालिनी का
घर में रहना दूभर हो गया। एक पति की मौत का सदमा और ऊपर से गर्भवती। कुछ
समझ में नही आ रहा था कि वह क्या करे। एक बार दिल में आया कि खुदकुशी कर
ले, लेकिन अजन्में बच्चे का ख्याल कर आत्महत्या का इरादा बदल लिया कि उसका
क्या कसूर क्यों उसकी जान ले। सास के तानों से तंग और व्यवहार से दुखी
पुत्री को सुरेखा अपने घर ले आई। आखिर कितने दिन तक ब्हायता पुत्री को घर
रखे, चाहे विधवा ही सही, ब्हायता का स्थान तो ससुराल में है।
एक दिन शालिनी से कहा “बेटे तेरा स्थान तो ससुराल में है, आखिर कितने दिनों
मां के पास रहेगी।”
“मां वहां मैं कैसे रहूंगी।”
“रहना तो पडेगा, दुनिया की रीत ही यही है।” सुरेखा ने शालिनी को समझाया।
मां आप तो मेरी सास के तानों और व्यव्हार से परीचित है। मैं वहां रह नही
सकूंगी।” शालिनी ने अपनी असर्मथता जाहिर की।
“दिल पर पत्थर तो रखना ही पढेगा। दुनियादारी भी तो कोई चीज है।”
“मां दुनियादारी तो यह भी कहती है कि पुत्र की मृत्यु के बाद पुत्रवधु को
पूरा हक और सम्मान देना चाहिए। किसी भी ग्रंथ में यह नही लिखा की पुत्र की
मृत्यु के बाद पुत्रवधु को घर से धक्के मार कर घर से निकाल दिया जाए।” कहते
कहते शालिनी की आंखे भर आई। कम पढी लिखी शालिनी ज्ञान की बातें कर गई,
जिसका उतर सुरेखा तो क्या शायद किसी ज्ञानी के पास भी नही था, लेकिन फिर भी
कुछ रिश्तेदारों के साथ शालिनी जब मायके पहुंची तो सास ने घर के अन्दर ही
नही घुसने दिया। घर के बाहर ही अकेली सास दस रिश्तेदारों पर हावी थी।
“शालिनी घर के अन्दर नही घुस सकती।” कडकती आवाज में सास ने कहा।
“आप की पुत्रवधु है।” सुरेखा ने विनती की।
“पुत्र मर गया। पुत्रवधु मर गई। आप इसका का भी किय्राकर्म कर दो।” सास की
आवाज में कठोरता अधिक हो गई।
शालिनी के पिता ने महेश के पिता से बात करने की विनती की।
“जो बात करनी है। मेरे से करो। मेरा फैसला काटने की हिम्मत कोई नही कर
सकता।”
महेस के पिता केवल मूक दर्शक बने रहे।
इतना सुन और देख कर सारे रिश्तेदारों ने शालिनी के मां बाप को समझाया कि
लडकी को ससुराल में रखने का मतलब है कि लडकी को मौत के हवाले करना। गर्भवती
लडकी को मायके में रखा जाए। थक हार कर शालिनी मायके आ गई। जवान दामाद की
मृत्यु के बाद गर्भवती लडकी की दशा ने शालिनी के पिता को समय से पहले ही
बूडा कर दिया। शालिनी क्या कहे और क्या करे। वह तो अपने बच्चे के जन्म का
इंतजार करने लगी।
समय पर शालिनी ने एक खूबसूरत पुत्र को जन्म दिया। एक खिलौना पा कर शालिनी
अपना दुख भूल गई, लेकिन यह सुख केवल कुछ पलों तक ही सीमित रहा। पोते के
जन्म की खबर सुन कर शालिनी की सास पोते पर अधिकार जताने पहुंच गई। शालिनी
ने बच्चे को सोपने से मना कर दिया।
“जब आपने मुझे महेश की मृत्यु पश्चात घर से बाहर कर दिया। अब मैं अपने
बच्चे को अपने से जुदा नही करूंगी।” शालिनी ने दो टूक जवाब दे दिया।
महेश की मां से कोई पहले जीत न सका तो अब भी किसी की कोई आस नही रखनी चाहिए
थी। शोर मचा अधिकार जताया। “मेरा पोता है, कोई मुझसे मेरे पोते को जुदा नही
कर सकता। उसका स्थान मेरे घर में है।”
“जब मेरे गर्भ में आपका पोता पल रहा था। तब आपको अधिकार याद नही आया। तब
मैं सबसे बडी दुश्मन थी। बिरादरी के सामने आपने घर में प्रवेश व्रजित कर
दिया था। अब किस मुंह से हक जता रही हैं। मैं आपकी तरह निष्ठुर नही हूं, कि
धक्के मार कर बेइज्जत करूं। लेकिन न तो मैं आपके साथ जाऊंगी और न ही अपने
बच्चे को जाने दूंगी।” शालिनी ने दो टूक जवाब दिया।
शालिनी की सास भी हार मानने को तैयार नही थी। उसने पुलिस का सहारा लिया।
कानूनी रूप में तो बहू और पोते का स्थान मरणोपरांत भी पति के घर में ही है।
पुलिस के कहने पर भी शालिनी ने सास के साथ जाने से मना कर दिया। कुछ बडे
बूडों ने सुझाया कि शालिनी को मायके में रखा जाए और बच्चे को उसकी सास को
सोंप दिया जाए। तर्क उनका यह था कि बच्चे के साथ शालिनी का दूसरा विवाह
मुश्किल होगा। यदि उसकी सास बच्चे को पाकर खुश है तो शालिनी के भविष्य के
लिए सही है। दूसरे विवाह की सारी अडचनें अपने आप दूर हो जाएगीं। शालिनी
बच्चे को छोडने को तैयार नही थी। फिर बडे बूडों के समझाने पर वह बच्चे को
अपने से जुदा कर सास को देने को तैयार हो गई। सारी उम्र अकेले बच्चे के साथ
बिताना कठिन है। मां बाप भी कब तक साथ रहेगें। जीवन साथी तो तलाशना होगा।
उसके और बच्चे के भविष्य के लिए बलिदान आवश्यक है। कलेजे पर एक शिला रख कर
शालिनी ने बच्चा सास के सुपुर्द कर दिया। सास को शालिनी से कोई मतलब नही
था। उसे तो वंश चलाने के लिए वारिस चाहिए था। जो मिल गया।
जहां चाह वहां राह। शालिनी के लिए वर की तलाश शुरू हुई। अमेरिका में रह रहे
एक विधुर से रिश्ता पक्का हो गया।
हर किसी की तमन्ना होती है कि उसका विवाह किसी खास दिन हो। यदि वेलन्टाइन
डे हो तो सोने पर सुहागा। 14 फरवरी वेलन्टाइन डे के विवाह को ताउम्र कोई
नही भूल सकता। हर युगल प्रेमी सिर्फ इसी खास दिन विवाह की इच्छा रखता है,
लेकिन शालिनी शायद इस दिन विवाह नही करना चाहती थी। फिर भी उसने न तो अपनी
इच्छा व्यक्त की, न कोई विरोध किया। चुपचाप परिवार के फैसले को नमस्तक कर
सात फेरे लेकर पति सुशील के साथ नई गृहस्थी निभाने सात समुन्दर पार चली गई।
समय सभी जख्मों को भर देता है। विवाह के पश्चात धीरे धीरे अपना अतीत भूल कर
नई दुनिया में व्यस्त हो गई। अपने अंश की जुदाई कभी कभी याद आती तो कभी
व्यक्त नही करती थी। एक बच्चे की जुदाई ने अब दो बच्चों की मां बना दिया।
मां से अक्सर टेलीफोन पर बातें हो जाती थी तो ऐसा लगता था कि आस पास बैठ कर
बातें कर रही हैं। हर पल की खबर टेलीफोन पर मिल जाती थी। वैसे तो कोई कमी
नही खटकती थी। उदासी मजबूरी सुख और दुख में अपनों से दूरी परेशान करती थी।
दूरी को नजदीकी में लाने का एक मात्र जरिया टेलीफोन ही है।
समय हवा के झोकों के साथ उड जाता है। पलक झपकते वो पल आ गया। जिसका सुरेखा
को जबरदस्त इंतजार था। आज शालिनी पति सुशील और दो बच्चों पुत्र रिंकू और
पुत्री मिंकी के साथ मायके पहुंची। मां बेटी गले मिल कर आत्मविभोर हो गई।
नातियों को देखकर सुरेखा ने प्यार से नातियों को पुचकराते हुए कहा “शालिनी
बच्चे तो एकदम गोरे चिट्टे हैं बिल्कुल अंग्रेज लग रहे है।
हंसते हुए शालिनी ने कहा “अमेरिका में पैदा हुए हैं बोलते भी अंग्रेजी
ज्यादा है।” एकदम अमेरिकन अंग्रेजी बोलते देख हैरान हो कर सुरेखा ने पूछा
“हिन्दी क्या नही जानते।”
“समझ सब लेते है पर बोलते नही है। आपकी सब बात समझ लेंगें।” शालिनी ने कहा।
सर्दियों के दिन थे। सुरेखा और शालिनी दोपहर में फुर्सत के समय धूप सेकते
हुए बातें कर रहे थे। बातों बातों में शालिनी ने मां से महेश की मां अर्थात
अपनी पहली सास और अपने बच्चे के बारे में पूछा तो सुरेखा अचम्भे में आ गई।
फिर कुछ छण रूक कर बोली “बेटे क्या तू अभी भी उस बारे में सोचती है।”
“क्या करू मां अपनी कोख से जन्मे बच्चे की याद कभी कभी आ ही जाती है। इंसान
अतीत को कितना ही भूलाने की कोशिश करे। यादे पीछा नही छोडती हैं।
“तू खुद ही सोच अगर तू बच्चे को पालती तो क्या तेरी शादी सुशील से हो सकती।
क्या तू अमेरिका में बस सकती? आज जो तेरे पास है शायद नही होता।”
“वह तो ठीक है मां, फिर भी।”
कुछ कहने से पहले सुरेखा ने शालिनी को बीच में ही टोकते हुए कहा। जो तेरे
मन में है। मन में ही रख। अतीत भूल जा। यदि भूल नही सकती तो कभी भी किसी के
आगे जबान पर ये बातें मत लाना। लोगों के कान बडे पतले होते है। किसी का सुख
कोई देख नही सकता है। आग लगा कर तमाशा देखने वालों की कोई कमी नही है। कुछ
मत सोच। कुछ मत बोल। अपनी गृहस्थी में मन लगा और रम जा।”
तभी टेलीफोन की घंटी बजी और बातों का सिलसिला रूक गया। टेलीफोन सुशील का
था। शाम को सिनेमा देख कर बाहर होटल में डिनर का कार्यक्रम सुशील ने तय
किया।
“शालिनी अपनी सफल गृहस्थी को अपने हाथों में रख। सुशील ने सब जानते हुए
तेरे को अपनाया था। कोई ऐसी बात जबान पर मत ला जिससे कोई जरा सी भी दरार
आए। शाम को सिनेमा देख और पुरानी बातों को भूल जा। जितनी खुश तू आज है
बच्चे को रख कर नही होती। भूल जा शालिनी भूल जा।”
मां की बात पल्ले बांध कर शाम को शालिनी परिवार के साथ सिनेमा देखा। दो
महीने कैसे बीते। सुरेखा को पता ही नही चला। आज शालिनी सपरिवार अमेरिका
वापिस जा रही है। एयरपोर्ट पर बेटी को विदा करते समय सुरेखा की आंखे नम हो
गई।
मां को उदास देख कर शालिनी बोली “यह क्या बच्चो जैसी रो रही हो। मोबाइल
दिखाते हुए कहा। टेलीफोन है न। बात करने को,”
“वो तो है शालिनी।”
शालिनी सपरिवार अमेरिका के लिए प्रस्थान कर गई और सुरेखा एक बार फिर से
टेलीफोन के आविष्कारक को दुआए देनी लगी। बडा ही भला मानस था जिसने टेलीफोन
बनाया। सारी दूरियों को समाप्त कर दिया इस छोटे से यन्त्र ने।
मनमोहन भाटिया