Get it on Google Play
Download on the App Store

अरण्यकाण्ड दोहा १ से १०

दोहा

अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह ।

ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥१॥

चौपाला

प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा । चला भाजि बायस भय पावा ॥

धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं । राम बिमुख राखा तेहि नाहीं ॥

भा निरास उपजी मन त्रासा । जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥

ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका । फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥

काहूँ बैठन कहा न ओही । राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥

मातु मृत्यु पितु समन समाना । सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥

मित्र करइ सत रिपु कै करनी । ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥

सब जगु ताहि अनलहु ते ताता । जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥

नारद देखा बिकल जयंता । लागि दया कोमल चित संता ॥

पठवा तुरत राम पहिं ताही । कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥

आतुर सभय गहेसि पद जाई । त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥

अतुलित बल अतुलित प्रभुताई । मैं मतिमंद जानि नहिं पाई ॥

निज कृत कर्म जनित फल पायउँ । अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ ॥

सुनि कृपाल अति आरत बानी । एकनयन करि तजा भवानी ॥

सोरठा

कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित ।

प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥२ ॥

चौपाला

रघुपति चित्रकूट बसि नाना । चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥

बहुरि राम अस मन अनुमाना । होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥

सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई । सीता सहित चले द्वौ भाई ॥

अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ । सुनत महामुनि हरषित भयऊ ॥

पुलकित गात अत्रि उठि धाए । देखि रामु आतुर चलि आए ॥

करत दंडवत मुनि उर लाए । प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥

देखि राम छबि नयन जुड़ाने । सादर निज आश्रम तब आने ॥

करि पूजा कहि बचन सुहाए । दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥

सोरठा

प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि ।

मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥३॥

छंद

नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ॥

भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥१॥

निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं ॥

प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं ॥२॥

प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥

निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥३॥

दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं ॥

मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृंद भंजनं ॥४॥

मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं ॥

विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं ॥५॥

नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ॥

भजे सशक्ति सानुजं । शची पतिं प्रियानुजं ॥६॥

त्वदंघ्रि मूल ये नराः । भजंति हीन मत्सरा ॥

पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले ॥७॥

विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा ॥

निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥८॥

तमेकमभ्दुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं ॥

जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥९॥

भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥

स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं ॥१०॥

अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥

प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥११॥

पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥

व्रजंति नात्र संशयं । त्वदीय भक्ति संयुता ॥१२॥

दोहा

बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि ।

चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥४॥

चौपाला

अनुसुइया के पद गहि सीता । मिली बहोरि सुसील बिनीता ॥

रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई । आसिष देइ निकट बैठाई ॥

दिब्य बसन भूषन पहिराए । जे नित नूतन अमल सुहाए ॥

कह रिषिबधू सरस मृदु बानी । नारिधर्म कछु ब्याज बखानी ॥

मातु पिता भ्राता हितकारी । मितप्रद सब सुनु राजकुमारी ॥

अमित दानि भर्ता बयदेही । अधम सो नारि जो सेव न तेही ॥

धीरज धर्म मित्र अरु नारी । आपद काल परिखिअहिं चारी ॥

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना । अधं बधिर क्रोधी अति दीना ॥

ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना । नारि पाव जमपुर दुख नाना ॥

एकइ धर्म एक ब्रत नेमा । कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥

जग पति ब्रता चारि बिधि अहहिं । बेद पुरान संत सब कहहिं ॥

उत्तम के अस बस मन माहीं । सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥

मध्यम परपति देखइ कैसें । भ्राता पिता पुत्र निज जैंसें ॥

धर्म बिचारि समुझि कुल रहई । सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई ॥

बिनु अवसर भय तें रह जोई । जानेहु अधम नारि जग सोई ॥

पति बंचक परपति रति करई । रौरव नरक कल्प सत परई ॥

छन सुख लागि जनम सत कोटि । दुख न समुझ तेहि सम को खोटी ॥

बिनु श्रम नारि परम गति लहई । पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई ॥

पति प्रतिकुल जनम जहँ जाई । बिधवा होई पाई तरुनाई ॥

सोरठा

सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ ।

जसु गावत श्रुति चारि अजहु तुलसिका हरिहि प्रिय ॥५क॥

सनु सीता तव नाम सुमिर नारि पतिब्रत करहि ।

तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित ॥५ख ॥

चौपाला

सुनि जानकीं परम सुखु पावा । सादर तासु चरन सिरु नावा ॥

तब मुनि सन कह कृपानिधाना । आयसु होइ जाउँ बन आना ॥

संतत मो पर कृपा करेहू । सेवक जानि तजेहु जनि नेहू ॥

धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी । सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी ॥

जासु कृपा अज सिव सनकादी । चहत सकल परमारथ बादी ॥

ते तुम्ह राम अकाम पिआरे । दीन बंधु मृदु बचन उचारे ॥

अब जानी मैं श्री चतुराई । भजी तुम्हहि सब देव बिहाई ॥

जेहि समान अतिसय नहिं कोई । ता कर सील कस न अस होई ॥

केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी । कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी ॥

अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा । लोचन जल बह पुलक सरीरा ॥

छंद

तन पुलक निर्भर प्रेम पुरन नयन मुख पंकज दिए ।

मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए ॥

जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई ।

रधुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई ॥

दोहा

कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल ।

सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल ॥६ -क॥

सोरठा

कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप ।

परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥६ -ख॥

चौपाला

मुनि पद कमल नाइ करि सीसा । चले बनहि सुर नर मुनि ईसा ॥

आगे राम अनुज पुनि पाछें । मुनि बर बेष बने अति काछें ॥

उमय बीच श्री सोहइ कैसी । ब्रह्म जीव बिच माया जैसी ॥

सरिता बन गिरि अवघट घाटा । पति पहिचानी देहिं बर बाटा ॥

जहँ जहँ जाहि देव रघुराया । करहिं मेध तहँ तहँ नभ छाया ॥

मिला असुर बिराध मग जाता । आवतहीं रघुवीर निपाता ॥

तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा । देखि दुखी निज धाम पठावा ॥

पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा । सुंदर अनुज जानकी संगा ॥

दोहा

देखी राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग ।

सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग ॥७॥

चौपाला

कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला । संकर मानस राजमराला ॥

जात रहेउँ बिरंचि के धामा । सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा ॥

चितवत पंथ रहेउँ दिन राती । अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती ॥

नाथ सकल साधन मैं हीना । कीन्ही कृपा जानि जन दीना ॥

सो कछु देव न मोहि निहोरा । निज पन राखेउ जन मन चोरा ॥

तब लगि रहहु दीन हित लागी । जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी ॥

जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा । प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा ॥

एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा । बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा ॥

दोहा

सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम ।

मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम ॥८॥

चौपाला

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा । राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा ॥

ताते मुनि हरि लीन न भयऊ । प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ ॥

रिषि निकाय मुनिबर गति देखि । सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी ॥

अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा । जयति प्रनत हित करुना कंदा ॥

पुनि रघुनाथ चले बन आगे । मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे ॥

अस्थि समूह देखि रघुराया । पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ॥

जानतहुँ पूछिअ कस स्वामी । सबदरसी तुम्ह अंतरजामी ॥

निसिचर निकर सकल मुनि खाए । सुनि रघुबीर नयन जल छाए ॥

दोहा

निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह ।

सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥९॥

चौपाला

मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना । नाम सुतीछन रति भगवाना ॥

मन क्रम बचन राम पद सेवक । सपनेहुँ आन भरोस न देवक ॥

प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा । करत मनोरथ आतुर धावा ॥

हे बिधि दीनबंधु रघुराया । मो से सठ पर करिहहिं दाया ॥

सहित अनुज मोहि राम गोसाई । मिलिहहिं निज सेवक की नाई ॥

मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं । भगति बिरति न ग्यान मन माहीं ॥

नहिं सतसंग जोग जप जागा । नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा ॥

एक बानि करुनानिधान की । सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥

होइहैं सुफल आजु मम लोचन । देखि बदन पंकज भव मोचन ॥

निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी । कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥

दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा । को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ॥

कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई । कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई ॥

अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई । प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई ॥

अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा । प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा ॥

मुनि मग माझ अचल होइ बैसा । पुलक सरीर पनस फल जैसा ॥

तब रघुनाथ निकट चलि आए । देखि दसा निज जन मन भाए ॥

मुनिहि राम बहु भाँति जगावा । जाग न ध्यानजनित सुख पावा ॥

भूप रूप तब राम दुरावा । हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा ॥

मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें । बिकल हीन मनि फनि बर जैसें ॥

आगें देखि राम तन स्यामा । सीता अनुज सहित सुख धामा ॥

परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी । प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी ॥

भुज बिसाल गहि लिए उठाई । परम प्रीति राखे उर लाई ॥

मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला । कनक तरुहि जनु भेंट तमाला ॥

राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा । मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा ॥

दोहा

तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार ।

निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥१० ॥

चौपाला

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी । अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी ॥

महिमा अमित मोरि मति थोरी । रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी ॥

श्याम तामरस दाम शरीरं । जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥

पाणि चाप शर कटि तूणीरं । नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥

मोह विपिन घन दहन कृशानुः । संत सरोरुह कानन भानुः ॥

निशिचर करि वरूथ मृगराजः । त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥

अरुण नयन राजीव सुवेशं । सीता नयन चकोर निशेशं ॥

हर ह्रदि मानस बाल मरालं । नौमि राम उर बाहु विशालं ॥

संशय सर्प ग्रसन उरगादः । शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥

भव भंजन रंजन सुर यूथः । त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥

निर्गुण सगुण विषम सम रूपं । ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥

अमलमखिलमनवद्यमपारं । नौमि राम भंजन महि भारं ॥

भक्त कल्पपादप आरामः । तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥

अति नागर भव सागर सेतुः । त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥

अतुलित भुज प्रताप बल धामः । कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥

धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः । संतत शं तनोतु मम रामः ॥

जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी । सब के हृदयँ निरंतर बासी ॥

तदपि अनुज श्री सहित खरारी । बसतु मनसि मम काननचारी ॥

जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी । सगुन अगुन उर अंतरजामी ॥

जो कोसल पति राजिव नयना । करउ सो राम हृदय मम अयना ।

अस अभिमान जाइ जनि भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥

सुनि मुनि बचन राम मन भाए । बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए ॥

परम प्रसन्न जानु मुनि मोही । जो बर मागहु देउ सो तोही ॥

मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा । समुझि न परइ झूठ का साचा ॥

तुम्हहि नीक लागै रघुराई । सो मोहि देहु दास सुखदाई ॥

अबिरल भगति बिरति बिग्याना । होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥

प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा । अब सो देहु मोहि जो भावा ॥

रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदास
Chapters
बालकाण्ड श्लोक बालकाण्ड दोहा १ से १० बालकाण्ड दोहा ११ से २० बालकाण्ड दोहा २१ से ३० बालकाण्ड दोहा ३१ से ४० बालकाण्ड दोहा ४१ से ५० बालकाण्ड दोहा ५१ से ६० बालकाण्ड दोहा ६१ से ७० बालकाण्ड दोहा ७१ से ८० बालकाण्ड दोहा ८१ से ९० बालकाण्ड दोहा ९१ से १०० बालकाण्ड दोहा १०१ से ११० बालकाण्ड दोहा १११ से १२० बालकाण्ड दोहा १२१ से १३० बालकाण्ड दोहा १३१ से १४० बालकाण्ड दोहा १४१ से १५० बालकाण्ड दोहा १५१ से १६० बालकाण्ड दोहा १६१ से १७० बालकाण्ड दोहा १७१ से १८० बालकाण्ड दोहा १८१ से १९० बालकाण्ड दोहा १९१ से २०० बालकाण्ड दोहा २०१ से २१० बालकाण्ड दोहा २११ से २२० बालकाण्ड दोहा २२१ से २३० बालकाण्ड दोहा २३१ से २४० बालकाण्ड दोहा २४१ से २५० बालकाण्ड दोहा २५१ से २६० बालकाण्ड दोहा २६१ से २७० बालकाण्ड दोहा २७१ से २८० बालकाण्ड दोहा २८१ से २९० बालकाण्ड दोहा २९१ से ३०० बालकाण्ड दोहा ३०१ से ३१० बालकाण्ड दोहा ३११ से ३२० बालकाण्ड दोहा ३२१ से ३३० बालकाण्ड दोहा ३३१ से ३४० बालकाण्ड दोहा ३४१ से ३५० बालकाण्ड दोहा ३५१ से ३६० अयोध्या काण्ड श्लोक अयोध्या काण्ड दोहा १ से १० अयोध्या काण्ड दोहा ११ से २० अयोध्या काण्ड दोहा २१ से ३० अयोध्या काण्ड दोहा ३१ से ४० अयोध्या काण्ड दोहा ४१ से ५० अयोध्या काण्ड दोहा ५१ से ६० अयोध्या काण्ड दोहा ६१ से ७० अयोध्या काण्ड दोहा ७१ से ८० अयोध्या काण्ड दोहा ८१ से ९० अयोध्या काण्ड दोहा ९१ से १०० अयोध्या काण्ड दोहा १०१ से ११० अयोध्या काण्ड दोहा १११ से १२० अयोध्या काण्ड दोहा १२१ से १३० अयोध्या काण्ड दोहा १३१ से १४० अयोध्या काण्ड दोहा १४१ से १५० अयोध्या काण्ड दोहा १५१ से १६० अयोध्या काण्ड दोहा १६१ से १७० अयोध्या काण्ड दोहा १७१ से १८० अयोध्या काण्ड दोहा १८१ से १९० अयोध्या काण्ड दोहा १९१ से २०० अयोध्या काण्ड दोहा २०१ से २१० अयोध्या काण्ड दोहा २११ से २२० अयोध्या काण्ड दोहा २२१ से २३० अयोध्या काण्ड दोहा २३१ से २४० अयोध्या काण्ड दोहा २४१ से २५० अयोध्या काण्ड दोहा २५१ से २६० अयोध्या काण्ड दोहा २६१ से २७० अयोध्या काण्ड दोहा २७१ से २८० अयोध्या काण्ड दोहा २८१ से २९० अयोध्या काण्ड दोहा २९१ से ३०० अयोध्या काण्ड दोहा ३०१ से ३१० अयोध्या काण्ड दोहा ३११ से ३२६ अरण्यकाण्ड श्लोक अरण्यकाण्ड दोहा १ से १० अरण्यकाण्ड दोहा ११ से २० अरण्यकाण्ड दोहा २१ से ३० अरण्यकाण्ड दोहा ३१ से ४० अरण्यकाण्ड दोहा ४१ से ४६ किष्किन्धाकाण्ड श्लोक किष्किन्धाकाण्ड दोहा १ से १० किष्किन्धाकाण्ड दोहा ११ से २० किष्किन्धाकाण्ड दोहा २१ से ३० सुन्दरकाण्ड श्लोक सुन्दरकाण्ड दोहा १ से १० सुन्दरकाण्ड दोहा ११ से २० सुन्दरकाण्ड दोहा २१ से ३० सुन्दरकाण्ड दोहा ३१ से ४० सुन्दरकाण्ड दोहा ४१ से ५० सुन्दरकाण्ड दोहा ५१ से ६० लंकाकाण्ड श्लोक लंकाकाण्ड दोहा १ से १० लंकाकाण्ड दोहा ११ से २० लंकाकाण्ड दोहा २१ से ३० लंकाकाण्ड दोहा ३१ से ४० लंकाकाण्ड दोहा ४१ से ५० लंकाकाण्ड दोहा ५१ से ६० लंकाकाण्ड दोहा ६१ से ७० लंकाकाण्ड दोहा ७१ से ८० लंकाकाण्ड दोहा ८१ से ९० लंकाकाण्ड दोहा ९१ से १०० लंकाकाण्ड दोहा १०१ से ११० लंकाकाण्ड दोहा १११ से १२१ उत्तरकाण्ड - श्लोक उत्तरकाण्ड - दोहा १ से १० उत्तरकाण्ड - दोहा ११ से २० उत्तरकाण्ड - दोहा २१ से ३० उत्तरकाण्ड - दोहा ३१ से ४० उत्तरकाण्ड - दोहा ४१ से ५० उत्तरकाण्ड - दोहा ५१ से ६० उत्तरकाण्ड - दोहा ६१ से ७० उत्तरकाण्ड - दोहा ७१ से ८० उत्तरकाण्ड - दोहा ८१ से ९० उत्तरकाण्ड - दोहा ९१ से १०० उत्तरकाण्ड - दोहा १०१ से ११० उत्तरकाण्ड - दोहा १११ से १२० उत्तरकाण्ड - दोहा १२१ से १३०