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अरण्यकाण्ड दोहा ११ से २०

दोहा

अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम ।

मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम ॥११॥

चौपाला

एवमस्तु करि रमानिवासा । हरषि चले कुभंज रिषि पासा ॥

बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ । भए मोहि एहिं आश्रम आएँ ॥

अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं । तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं ॥

देखि कृपानिधि मुनि चतुराई । लिए संग बिहसै द्वौ भाई ॥

पंथ कहत निज भगति अनूपा । मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा ॥

तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ । करि दंडवत कहत अस भयऊ ॥

नाथ कौसलाधीस कुमारा । आए मिलन जगत आधारा ॥

राम अनुज समेत बैदेही । निसि दिनु देव जपत हहु जेही ॥

सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए । हरि बिलोकि लोचन जल छाए ॥

मुनि पद कमल परे द्वौ भाई । रिषि अति प्रीति लिए उर लाई ॥

सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी । आसन बर बैठारे आनी ॥

पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा । मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा ॥

जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा । हरषे सब बिलोकि सुखकंदा ॥

दोहा

मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर ।

सरद इंदु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर ॥१२ ॥

चौपाला

तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं । तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही ॥

तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ । ताते तात न कहि समुझायउँ ॥

अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही । जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही ॥

मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी । पूछेहु नाथ मोहि का जानी ॥

तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी । जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥

ऊमरि तरु बिसाल तव माया । फल ब्रह्मांड अनेक निकाया ॥

जीव चराचर जंतु समाना । भीतर बसहि न जानहिं आना ॥

ते फल भच्छक कठिन कराला । तव भयँ डरत सदा सोउ काला ॥

ते तुम्ह सकल लोकपति साईं । पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं ॥

यह बर मागउँ कृपानिकेता । बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता ॥

अबिरल भगति बिरति सतसंगा । चरन सरोरुह प्रीति अभंगा ॥

जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता । अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता ॥

अस तव रूप बखानउँ जानउँ । फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ ॥

संतत दासन्ह देहु बड़ाई । तातें मोहि पूँछेहु रघुराई ॥

है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ । पावन पंचबटी तेहि नाऊँ ॥

दंडक बन पुनीत प्रभु करहू । उग्र साप मुनिबर कर हरहू ॥

बास करहु तहँ रघुकुल राया । कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया ॥

चले राम मुनि आयसु पाई । तुरतहिं पंचबटी निअराई ॥

दोहा

गीधराज सैं भैंट भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ ॥

गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ ॥१३॥

चौपाला

जब ते राम कीन्ह तहँ बासा । सुखी भए मुनि बीती त्रासा ॥

गिरि बन नदीं ताल छबि छाए । दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए ॥

खग मृग बृंद अनंदित रहहीं । मधुप मधुर गंजत छबि लहहीं ॥

सो बन बरनि न सक अहिराजा । जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा ॥

एक बार प्रभु सुख आसीना । लछिमन बचन कहे छलहीना ॥

सुर नर मुनि सचराचर साईं । मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई ॥

मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा । सब तजि करौं चरन रज सेवा ॥

कहहु ग्यान बिराग अरु माया । कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ॥

दोहा

ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ॥

जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ॥१४॥

चौपाला

थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई । सुनहु तात मति मन चित लाई ॥

मैं अरु मोर तोर तैं माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥

गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ॥

तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ । बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ॥

एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा । जा बस जीव परा भवकूपा ॥

एक रचइ जग गुन बस जाकें । प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ॥

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं । देख ब्रह्म समान सब माही ॥

कहिअ तात सो परम बिरागी । तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ॥

दोहा

माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव ।

बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ॥१५॥

चौपाला

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना । ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ॥

जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई । सो मम भगति भगत सुखदाई ॥

सो सुतंत्र अवलंब न आना । तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ॥

भगति तात अनुपम सुखमूला । मिलइ जो संत होइँ अनुकूला ॥

भगति कि साधन कहउँ बखानी । सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ॥

प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती । निज निज कर्म निरत श्रुति रीती ॥

एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा । तब मम धर्म उपज अनुरागा ॥

श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं । मम लीला रति अति मन माहीं ॥

संत चरन पंकज अति प्रेमा । मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ॥

गुरु पितु मातु बंधु पति देवा । सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा ॥

मम गुन गावत पुलक सरीरा । गदगद गिरा नयन बह नीरा ॥

काम आदि मद दंभ न जाकें । तात निरंतर बस मैं ताकें ॥

दोहा

बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम ॥

तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम ॥१६ ॥

चौपाला

भगति जोग सुनि अति सुख पावा । लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा ॥

एहि बिधि गए कछुक दिन बीती । कहत बिराग ग्यान गुन नीती ॥

सूपनखा रावन कै बहिनी । दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी ॥

पंचबटी सो गइ एक बारा । देखि बिकल भइ जुगल कुमारा ॥

भ्राता पिता पुत्र उरगारी । पुरुष मनोहर निरखत नारी ॥

होइ बिकल सक मनहि न रोकी । जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी ॥

रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई । बोली बचन बहुत मुसुकाई ॥

तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी । यह सँजोग बिधि रचा बिचारी ॥

मम अनुरूप पुरुष जग माहीं । देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं ॥

ताते अब लगि रहिउँ कुमारी । मनु माना कछु तुम्हहि निहारी ॥

सीतहि चितइ कही प्रभु बाता । अहइ कुआर मोर लघु भ्राता ॥

गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी । प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी ॥

सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा । पराधीन नहिं तोर सुपासा ॥

प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा । जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ॥

सेवक सुख चह मान भिखारी । ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ॥

लोभी जसु चह चार गुमानी । नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ॥

पुनि फिरि राम निकट सो आई । प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ॥

लछिमन कहा तोहि सो बरई । जो तृन तोरि लाज परिहरई ॥

तब खिसिआनि राम पहिं गई । रूप भयंकर प्रगटत भई ॥

सीतहि सभय देखि रघुराई । कहा अनुज सन सयन बुझाई ॥

दोहा

लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि ।

ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि ॥१७ ॥

चौपाला

नाक कान बिनु भइ बिकरारा । जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा ॥

खर दूषन पहिं गइ बिलपाता । धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता ॥

तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई । जातुधान सुनि सेन बनाई ॥

धाए निसिचर निकर बरूथा । जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा ॥

नाना बाहन नानाकारा । नानायुध धर घोर अपारा ॥

सुपनखा आगें करि लीनी । असुभ रूप श्रुति नासा हीनी ॥

असगुन अमित होहिं भयकारी । गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी ॥

गर्जहि तर्जहिं गगन उड़ाहीं । देखि कटकु भट अति हरषाहीं ॥

कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई । धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई ॥

धूरि पूरि नभ मंडल रहा । राम बोलाइ अनुज सन कहा ॥

लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर । आवा निसिचर कटकु भयंकर ॥

रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी । चले सहित श्री सर धनु पानी ॥

देखि राम रिपुदल चलि आवा । बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा ॥

छंद

कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों ।

मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों ॥

कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै ॥

चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै ॥

सोरठा

आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट ।

जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज ॥१८ ॥

चौपाला

प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी । थकित भई रजनीचर धारी ॥

सचिव बोलि बोले खर दूषन । यह कोउ नृपबालक नर भूषन ॥

नाग असुर सुर नर मुनि जेते । देखे जिते हते हम केते ॥

हम भरि जन्म सुनहु सब भाई । देखी नहिं असि सुंदरताई ॥

जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा । बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ॥

देहु तुरत निज नारि दुराई । जीअत भवन जाहु द्वौ भाई ॥

मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु । तासु बचन सुनि आतुर आवहु ॥

दूतन्ह कहा राम सन जाई । सुनत राम बोले मुसकाई ॥

हम छत्री मृगया बन करहीं । तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीं ॥

रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं । एक बार कालहु सन लरहीं ॥

जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक । मुनि पालक खल सालक बालक ॥

जौं न होइ बल घर फिरि जाहू । समर बिमुख मैं हतउँ न काहू ॥

रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई । रिपु पर कृपा परम कदराई ॥

दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ । सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ ॥

छं -उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा ।

सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा ॥

प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा ।

भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा ॥

दोहा

सावधान होइ धाए जानि सबल आराति ।

लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति ॥१९ -क ॥

तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर ।

तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर ॥१९ -ख ॥

छंद

तब चले जान बबान कराल । फुंकरत जनु बहु ब्याल ॥

कोपेउ समर श्रीराम । चले बिसिख निसित निकाम ॥

अवलोकि खरतर तीर । मुरि चले निसिचर बीर ॥

भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ । जो भागि रन ते जाइ ॥

तेहि बधब हम निज पानि । फिरे मरन मन महुँ ठानि ॥

आयुध अनेक प्रकार । सनमुख ते करहिं प्रहार ॥

रिपु परम कोपे जानि । प्रभु धनुष सर संधानि ॥

छाँड़े बिपुल नाराच । लगे कटन बिकट पिसाच ॥

उर सीस भुज कर चरन । जहँ तहँ लगे महि परन ॥

चिक्करत लागत बान । धर परत कुधर समान ॥

भट कटत तन सत खंड । पुनि उठत करि पाषंड ॥

नभ उड़त बहु भुज मुंड । बिनु मौलि धावत रुंड ॥

खग कंक काक सृगाल । कटकटहिं कठिन कराल ॥

छंद

कटकटहिं ज़ंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं ।

बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं ॥

रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा ।

जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा ॥

अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं ॥

संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं ॥

मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे ।

अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे ॥

सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं ।

करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं ॥

प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका ।

दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका ॥

महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी ।

सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी ॥

सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर् यो ।

देखहि परसपर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मर् यो ॥

दोहा

राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान ।

करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान ॥२० -क ॥

हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान ।

अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान ॥२० -ख ॥

चौपाला

जब रघुनाथ समर रिपु जीते । सुर नर मुनि सब के भय बीते ॥

तब लछिमन सीतहि लै आए । प्रभु पद परत हरषि उर लाए ।

सीता चितव स्याम मृदु गाता । परम प्रेम लोचन न अघाता ॥

पंचवटीं बसि श्रीरघुनायक । करत चरित सुर मुनि सुखदायक ॥

धुआँ देखि खरदूषन केरा । जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा ॥

बोलि बचन क्रोध करि भारी । देस कोस कै सुरति बिसारी ॥

करसि पान सोवसि दिनु राती । सुधि नहिं तव सिर पर आराती ॥

राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा । हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ॥

बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ । श्रम फल पढ़े किएँ अरु पाएँ ॥

संग ते जती कुमंत्र ते राजा । मान ते ग्यान पान तें लाजा ॥

प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी । नासहि बेगि नीति अस सुनी ॥

रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदास
Chapters
बालकाण्ड श्लोक बालकाण्ड दोहा १ से १० बालकाण्ड दोहा ११ से २० बालकाण्ड दोहा २१ से ३० बालकाण्ड दोहा ३१ से ४० बालकाण्ड दोहा ४१ से ५० बालकाण्ड दोहा ५१ से ६० बालकाण्ड दोहा ६१ से ७० बालकाण्ड दोहा ७१ से ८० बालकाण्ड दोहा ८१ से ९० बालकाण्ड दोहा ९१ से १०० बालकाण्ड दोहा १०१ से ११० बालकाण्ड दोहा १११ से १२० बालकाण्ड दोहा १२१ से १३० बालकाण्ड दोहा १३१ से १४० बालकाण्ड दोहा १४१ से १५० बालकाण्ड दोहा १५१ से १६० बालकाण्ड दोहा १६१ से १७० बालकाण्ड दोहा १७१ से १८० बालकाण्ड दोहा १८१ से १९० बालकाण्ड दोहा १९१ से २०० बालकाण्ड दोहा २०१ से २१० बालकाण्ड दोहा २११ से २२० बालकाण्ड दोहा २२१ से २३० बालकाण्ड दोहा २३१ से २४० बालकाण्ड दोहा २४१ से २५० बालकाण्ड दोहा २५१ से २६० बालकाण्ड दोहा २६१ से २७० बालकाण्ड दोहा २७१ से २८० बालकाण्ड दोहा २८१ से २९० बालकाण्ड दोहा २९१ से ३०० बालकाण्ड दोहा ३०१ से ३१० बालकाण्ड दोहा ३११ से ३२० बालकाण्ड दोहा ३२१ से ३३० बालकाण्ड दोहा ३३१ से ३४० बालकाण्ड दोहा ३४१ से ३५० बालकाण्ड दोहा ३५१ से ३६० अयोध्या काण्ड श्लोक अयोध्या काण्ड दोहा १ से १० अयोध्या काण्ड दोहा ११ से २० अयोध्या काण्ड दोहा २१ से ३० अयोध्या काण्ड दोहा ३१ से ४० अयोध्या काण्ड दोहा ४१ से ५० अयोध्या काण्ड दोहा ५१ से ६० अयोध्या काण्ड दोहा ६१ से ७० अयोध्या काण्ड दोहा ७१ से ८० अयोध्या काण्ड दोहा ८१ से ९० अयोध्या काण्ड दोहा ९१ से १०० अयोध्या काण्ड दोहा १०१ से ११० अयोध्या काण्ड दोहा १११ से १२० अयोध्या काण्ड दोहा १२१ से १३० अयोध्या काण्ड दोहा १३१ से १४० अयोध्या काण्ड दोहा १४१ से १५० अयोध्या काण्ड दोहा १५१ से १६० अयोध्या काण्ड दोहा १६१ से १७० अयोध्या काण्ड दोहा १७१ से १८० अयोध्या काण्ड दोहा १८१ से १९० अयोध्या काण्ड दोहा १९१ से २०० अयोध्या काण्ड दोहा २०१ से २१० अयोध्या काण्ड दोहा २११ से २२० अयोध्या काण्ड दोहा २२१ से २३० अयोध्या काण्ड दोहा २३१ से २४० अयोध्या काण्ड दोहा २४१ से २५० अयोध्या काण्ड दोहा २५१ से २६० अयोध्या काण्ड दोहा २६१ से २७० अयोध्या काण्ड दोहा २७१ से २८० अयोध्या काण्ड दोहा २८१ से २९० अयोध्या काण्ड दोहा २९१ से ३०० अयोध्या काण्ड दोहा ३०१ से ३१० अयोध्या काण्ड दोहा ३११ से ३२६ अरण्यकाण्ड श्लोक अरण्यकाण्ड दोहा १ से १० अरण्यकाण्ड दोहा ११ से २० अरण्यकाण्ड दोहा २१ से ३० अरण्यकाण्ड दोहा ३१ से ४० अरण्यकाण्ड दोहा ४१ से ४६ किष्किन्धाकाण्ड श्लोक किष्किन्धाकाण्ड दोहा १ से १० किष्किन्धाकाण्ड दोहा ११ से २० किष्किन्धाकाण्ड दोहा २१ से ३० सुन्दरकाण्ड श्लोक सुन्दरकाण्ड दोहा १ से १० सुन्दरकाण्ड दोहा ११ से २० सुन्दरकाण्ड दोहा २१ से ३० सुन्दरकाण्ड दोहा ३१ से ४० सुन्दरकाण्ड दोहा ४१ से ५० सुन्दरकाण्ड दोहा ५१ से ६० लंकाकाण्ड श्लोक लंकाकाण्ड दोहा १ से १० लंकाकाण्ड दोहा ११ से २० लंकाकाण्ड दोहा २१ से ३० लंकाकाण्ड दोहा ३१ से ४० लंकाकाण्ड दोहा ४१ से ५० लंकाकाण्ड दोहा ५१ से ६० लंकाकाण्ड दोहा ६१ से ७० लंकाकाण्ड दोहा ७१ से ८० लंकाकाण्ड दोहा ८१ से ९० लंकाकाण्ड दोहा ९१ से १०० लंकाकाण्ड दोहा १०१ से ११० लंकाकाण्ड दोहा १११ से १२१ उत्तरकाण्ड - श्लोक उत्तरकाण्ड - दोहा १ से १० उत्तरकाण्ड - दोहा ११ से २० उत्तरकाण्ड - दोहा २१ से ३० उत्तरकाण्ड - दोहा ३१ से ४० उत्तरकाण्ड - दोहा ४१ से ५० उत्तरकाण्ड - दोहा ५१ से ६० उत्तरकाण्ड - दोहा ६१ से ७० उत्तरकाण्ड - दोहा ७१ से ८० उत्तरकाण्ड - दोहा ८१ से ९० उत्तरकाण्ड - दोहा ९१ से १०० उत्तरकाण्ड - दोहा १०१ से ११० उत्तरकाण्ड - दोहा १११ से १२० उत्तरकाण्ड - दोहा १२१ से १३०