कविता १८
ग़मों से खाली दामन कभी रहा तो न था,
थी थोड़ी सी नज़र ए करम की आस कुछ और कहा तो न था |
हम भी कर जाते इंसानों से बढ़कर 'साहिल' कुछ,
मेरी राहों को भी मंज़िलों को पाने का थोड़ा जज़्बा तो दिया होता |
थी थोड़ी सी नज़र ए करम की आस कुछ और कहा तो न था |
हम भी कर जाते इंसानों से बढ़कर 'साहिल' कुछ,
मेरी राहों को भी मंज़िलों को पाने का थोड़ा जज़्बा तो दिया होता |
उनकी आँखों की वो गहराई, होठों की वो लाली,
हम कैसे कहें मोहब्बत नहीं है
उनकी याद में ही जब आँख भर आयी |
वजह जान के अब क्या करेंगे " साहिल "
उनका छोड देना ही काफ़ी है मेरे न रहने के लिए !!