कविता १३
खोया है चाँद भी बादलों में अब तो, खोयी है रात भी अँधेरे की बाहों में,
फिर भी नींद है जो जैसे मुह फेरे बैठी है मुझसे, रूठी है शायद,
रूठी है किसी बात से..नहीं जानता पर शायद जनता भी हूँ. |
फिर भी नींद है जो जैसे मुह फेरे बैठी है मुझसे, रूठी है शायद,
रूठी है किसी बात से..नहीं जानता पर शायद जनता भी हूँ. |