कविता ९
कोई आग है सीने में जो बुझती नहीं,
समझाओ कितना भी पर सुनती नहीं,
कब तक रोंके इस सैलाब को सीने में 'साहिल',
जो फर्क अपने और गैरों के घर का समझती नहीं ||
समझाओ कितना भी पर सुनती नहीं,
कब तक रोंके इस सैलाब को सीने में 'साहिल',
जो फर्क अपने और गैरों के घर का समझती नहीं ||