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सप्तम सर्ग : भाग 2

सर्प त्वचा से लिपटा जिसका वक्षस्थल है परिलक्षित
जीर्ण लता समूह से जिनका कण्ठ भाग है अति पीड़ित
व्याप्त पक्षियों के नीड़ों से एवं दोनों कन्धों पर
फैले हुए जटामण्डल को धारण किए हुए सिर पर
सूखे हुए वृक्ष के जैसे निश्चल होकर वे मुनिवर
खड़े हुए हैं जिस प्रदेश में रविमंडल अभिमुख होकर’
किया शीघ्र अभिवादन नृप ने ज्ञात हुआ जब आश्रम धाम
‘कठिन तपस्या करने वाले, हे महर्षि! है तुम्हें प्रणाम’
अभिवादन कर चुके अधिप जब मातलि उनसे तदनन्तर
यह बोले रथ के घोड़ों की वागडोर को संयत कर
‘नृपति! जहॉं मन्दार वृक्ष को किया अदिति ने परिवर्धित
काश्यप ऋषि के उस आश्रम में हैं प्रविष्ट, हो तुम्हें विदित’
नृप बोले ‘है देवलोक से बढ़कर सुख का यह स्थान
मानों किया डूबकर मैंने अमिय सरोवर में स्नान’
रथ को पकड़ कहा मातलि ने ‘यहॉं उतर लें आयुष्मान’
और उतरकर नृप ने पूछा ‘अभी करोगे क्या श्रीमान?’
मातलि बोले ‘राजन मैंने है कर लिया नियन्त्रित रथ
हम भी उतर गये हैं सॅंग सॅंग और यही है आश्रम पथ’
कुछ पग चलकर मातलि बोले करते हुए मार्गदर्शन
‘करिए माननीय ऋषियों की तपोवनस्थली का दर्शन’
तपोभूमि का अवलोकन कर कहा अधिप ने मातलि से
‘तपोधाम को निश्चय ही मैं देख रहा हूँ विस्मय से
जिसमें कल्पवृक्ष शोभित है ऐसे वन में ये ऋषिजन
वायु मात्र से ही करते हैं प्राण वृत्ति का परिपालन,

कांचन कमलों के पराग से कपिश वर्ण जल में ऋषिजन
धर्माचरण हेतु करते हैं स्नान क्रिया का सम्पादन,
रत्न शिला फलकों पर बैठे नित्य लगाते हैं ये ध्यान
रहकर निकट अप्सरा के भी रखते हैं संयम का ज्ञान,
अन्य तपस्वी तप के द्वारा जो आकांक्षा करते हैं
रहकर उनकी संगति में ये यहॉं तपस्या करते हैं’
वहीं प्रशंसा में ऋषियों के बोले मातलि वाक्य तदा
‘सत्य, महात्माओं की इच्छा होती उत्सर्पिणी सदा’
‘अहो वृद्ध शाकल्य!’ टहलकर किया दूर से सम्बोधित
‘प्रभु मारीच कर रहे हैं क्या, कृपया आप करें सूचित,
क्या कहते हो? पतिव्रता के धर्म तथा आचरणों पर
देवि अदिति के द्वारा उनसे सविनय पूछे जाने पर
भगवन काश्यप, देवि अदिति जो बैठी ऋषि-पत्नियों सहित
उनको है उपदेश दे रहे इस प्रसंग पर भाव निहित’
ऐसा सुनते ही मातलि को नृप ने तत्क्षण दिया सुझाव
‘हम अवसर की करें प्रतीक्षा, ऐसा ही है यह प्रस्ताव’
तदनन्तर मातलि राजन का अवलोकन करके बोले
‘बैठें आप यहीं पर तब तक इस अशोक के वृक्ष तले
जब तक कि मैं अभी आपके यहॉं आगमन का संदेश
इन्द्रपिता को दे सकने का खोजूँ अवसर उचित, नरेश!’
‘जैसा आप उचित समझें अब’ बैठ गये नृप यह कहकर
‘आयुष्मान्! जा रहा हूँ मैं’ चले गये मातलि कहकर
नृप के अन्तर और विजन में जब था शान्त भाव संचार
सूचित कर शुभ शकुन भाव का नृप ने मन में किया विचार

‘बाहु वृथा क्यों फड़क रही है?, है विचार पर शंका व्याप्त
पूर्व तिरस्कृत श्रेय वस्तु भी होती है दुःख को ही प्राप्त’
सहसा यह स्वर सुनकर नृप की भाव मुग्धता हुई समाप्त
‘चंचलता मत करो, किसलिए?, आत्मप्रकृति को है यह प्राप्त’
नृप ने सोचा ‘यह प्रदेश तो है अविनय के योग्य नहीं,
किसके लिए यहॉं पर इस क्षण यह निषिद्ध सुर गूंज रही’
शब्दों के अनुसार देखकर किया सविस्मय कथन स्वगत
‘कौन असाधारण बालक यह दो तपस्विनी से अनुगत?
आधा सा ही दूध पिया है जिसने मॉं के उरसिज के,
बिखर बिखर कर बिगड़ गये हैं बाल रगड़ने से जिसके-
उसी सिंह शिशु को, जो बालक देता हुआ तीव्र झकझोर
क्रीड़ा के निमित्त बलपूर्वक खींच रहा है अपनी ओर’
इसी कार्य में लगे हुए वे, देख रहे थे जिन्हें महीप
धीरे धीरे बढ़ते नृप के आ पहुँचे कुछ और समीप,
तभी बालहठ करके बालक बोला ‘सिंह! जम्भाई ले,
अरे गिनूँगा ही मैं अब तो तेरे दॉंतों को पहले’
प्रथम तपस्विनी ऐसा सुनकर बालक से बोली ‘रे दुष्ट!
क्यों तू पुत्रों के समान इन जीवों को देता है कष्ट?
दुःख है, बढ़ता रोष तुम्हारा हुआ जा रहा अनियन्त्रित
ऋषियों ने यह नाम तुम्हारा सर्वदमन है रखा उचित’
नृप ‘क्यों बालक पर निज सुत सा स्नेह कर रहा मेरा मन?
निश्चय ही संतानहीनता मुझमें लाया अपनापन’
सोच रहे थे उधर निरखकर चिन्ता में डूबे अपनी
उसी समय बालक से ऐसा बोली अन्या तपस्विनी

‘अभी आक्रमण कर केसरिणी आहत कर देगी तुमको
छोड़ोगे यदि नहीं अभी तुम यथाशीघ्र उसके शिशु को’
कहने लगा विहॅंसकर बालक ‘अरे लग रहा मुझको डर’
ऐसा कहकर चंचलता में लगा दिखाने अधराधर
उसके भाव कलाओं पर फिर लगे सोचने अधिनायक
‘निश्चय ही महान तेजस के बीज रूप में यह बालक,
चिनगारी के दशा भाव में दाहक सम अत्यन्त अशीत
ईंधन की आकांक्षा करता अग्नि सदृश हो रहा प्रतीत’
प्रथम तपस्विनी बोली ‘बेटे! बाल सिंह को मुन्चित कर,
तुझको दूँगी अन्य खिलौना’ उसके ऐसा कहने पर
बालक बोला ‘कहॉं रखा है? वह तो पहले दो मुझको’
ऐसा कहकर उधर देखकर फैलाया निज हाथों को
नृप बालक का हाथ देखकर किए धारणा शंकामुक्त
‘यह बालक तो चक्रवर्ती के शुभ्र लक्षणों से है युक्त,
क्योंकि इसका लोभ्य वस्तु को पाने की अभिलाषा में
जाल सदृश तनमृदुल सुलक्षित ग्रथिम अॅंगुलियॉं हैं जिनमें-
प्रेम प्रसारित हाथ, लग रहा वैसा ही अतिशय शोभित
जैसे कि विशेष लोहितयुत नव प्रभात द्वारा विकसित
जिसके पत्तों के अन्दर का अंग नहीं है परिलक्षित
ऐसा कोई श्रेष्ठ कमल ही मानों होता हो शोभित’
तभी दूसरी तपस्विनी ने कहा ‘सुव्रते! कुछ मत कह
केवल वाणी के द्वारा ही नहीं मान सकता है यह,
श्री मार्कण्डेय ऋषिकुमार का वर्ण चित्रित मृत्तिका मयूर
मेरी पर्णकुटी से लाकर इसको देकर कर दे दूर’

अभिज्ञानशाकुन्तल

कालिदास
Chapters
प्रथम सर्ग : भाग 1 प्रथम सर्ग : भाग 2 प्रथम सर्ग : भाग 3 प्रथम सर्ग : भाग 4 प्रथम सर्ग : भाग 5 द्वितीय सर्ग : भाग 1 द्वितीय सर्ग : भाग 2 द्वितीय सर्ग : भाग 3 द्वितीय सर्ग : भाग 4 द्वितीय सर्ग : भाग 5 तृतीय सर्ग : भाग 1 तृतीय सर्ग : भाग 2 तृतीय सर्ग : भाग 3 तृतीय सर्ग : भाग 4 तृतीय सर्ग : भाग 5 चतुर्थ सर्ग : भाग 1 चतुर्थ सर्ग : भाग 2 चतुर्थ सर्ग : भाग 3 चतुर्थ सर्ग : भाग 4 चतुर्थ सर्ग : भाग 5 पंचम सर्ग : भाग 1 पंचम सर्ग : भाग 2 पंचम सर्ग : भाग 3 पंचम सर्ग : भाग 4 पंचम सर्ग : भाग 5 षष्ठ सर्ग : भाग 1 षष्ठ सर्ग : भाग 2 षष्ठ सर्ग : भाग 3 षष्ठ सर्ग : भाग 4 षष्ठ सर्ग : भाग 5 सप्तम सर्ग : भाग 1 सप्तम सर्ग : भाग 2 सप्तम सर्ग : भाग 3 सप्तम सर्ग : भाग 4 सप्तम सर्ग : भाग 5