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षष्ठ सर्ग : भाग 2

शयनकक्ष आस्तरण भाग पर करवट ही घूमते हुए
रात्रि बिता देते हैं राजन ऐसे ही जागते हुए,
अन्तःपुर जन को जब भी हैं देते उत्तर पूर्ण कुशल
तब नामों की त्रुटि-लज्जा से होते हैं चिरकाल विकल’
सुनकर सानुमती ने सोचा ‘यह प्रसंग है प्रिय मुझको’
कहकर यह, निष्कर्ष कंचुकी समझाया उन दोनों को
‘इन सब बातों के प्रभाव से यह ही निर्णय लिया गया
वैमनस्यता से उत्सव का है निषेध कर दिया गया’
दोनों चेटी समझ-बूझ कर कहा ‘ठीक है’ तदनन्तर
पड़ा सुनाई वहीं निकट से ‘आप इधर आयें’ का स्वर
कान लगाकर कुछ स्वर सुनकर बोल पड़े कंचुकी ‘अरे!
महाराज हैं इधर आ रहे, अपना अपना कार्य करें’
‘अच्छा’ कहकर चली गयीं वे तब नृप पश्चाताप सदृश-
धारण किए वेष, प्रतिहारी और विदूषक हुए प्रविश
नृप का अवलोकन कर, मन में कहे कंचुकी स्वर श्रवणीय
‘होती हैं विशेष आकृतियॉं सभी दशाओं में रमणीय,
ऐसे व्याकुल होने पर भी महाराज हैं दर्शनप्रिय
क्योंकि जिसने त्याग दिया है मण्डन विधि विशेष हृत्प्रिय,
किया एक ही कांचन कंकण धारण, जिसने वाम प्रकोष्ठ
स्वॉसों के कारण से जिनका मुरझाया सा है अधरोष्ठ,
जिनके कृश हो गये नयन हैं चिन्तित जागृति के कारण
ऐसे महाराज अपने ही तेज लक्षणों के कारण
शाण खरादा हुआ महामणि क्षीण नहीं लगता जैसे
क्षीण प्रतीत नहीं लगते हैं यद्यपि होने पर ऐसे’

सानुमती ‘यद्यपि शकुन्तला परित्याग से अपमानित
तो भी इसके लिए दुखी है, है भी यह आचरण उचित’
लगी सोचने इस प्रकार से राजन का अवलोकन कर
ध्यानमग्न हो सोच रहे थे राजन मन्द मन्द चलकर
‘पहले उस मृगनयनों वाली प्रिय शकुन्तला के द्वारा
प्रतिबोधित करने पर भी यह निद्रित दुष्ट हृदय मेरा
अब जागृत अनुभव करने पश्चातापयुक्त दुख का
सानुमती बोली ‘निश्चय था ऐसा भाग्य तपस्विनि का’
होकर विलग विदूषक बोला ‘शकुन्तला व्याधि व्यापार
ग्रसित कर लिया फिर से इनको, ना जाने क्या है उपचार?’
जाकर निकट कंचुकी बोला महाराज की जय जयकार
तत्पश्चात् देव से उसने किया निवेदन स्वर उच्चार
‘देव! प्रमदवन के स्थल अब परिवेक्षित हैं भली प्रकार
अब विनोद के स्थानों पर रुचि से बैठें, पालनहार!
तब राजन ने कहा ‘वेत्रवति! मेरा कथन करो धारण
आर्य पिशुन अमात्य से बोलो ‘‘अधिक जागने के कारण
नहीं बैठना संभावित है हमें आज धर्मासन पर
जो भी पौरकार्य देखा हो उसे पत्र में दें लिखकर’’
नृप की आज्ञा पर प्रतिहारी सादर करती हुई नमन
‘जैसी महाराज की आज्ञा’ कहकर तत्क्षण किया गमन
नृप बोले ‘वातायन! अपना पूरा करो कर्म तुम भी’
कहा कंचुकी ने ‘जो आज्ञा’ कहकर चला गया वह भी
तत्पश्चात् विदूषक नृप से किया कथन यह मित्र समान
‘निर्जन बना दिया है अब तो मित्र आपने यह स्थान,

शिशिरातप विहीन होने से है जो अति रमणीय बना
ऐसे इसी प्रमद वन में अब मन बहलाओगे अपना’
राजन बोले ‘अरे मित्रवर! यह जो कहा गया है कि
आते हैं अनर्थ अवसर पर कथन उचित ही है क्योंकि
कण्वसुता की प्रणय-स्मृति का करने वाला अवरोधन
इस तमसा की मूढ़ प्रवृति से मुक्त हुआ जब मेरा मन
तभी सखे, मुझ पर प्रहार की मनसिज ने इच्छा रखकर
आम्र-मंजरी का सुतीक्ष्ण शर चढ़ा दिया धनु के ऊपर’
कहा विदूषक ने ‘बैठो तो, इसका होगा सत्यानाश,
काष्ठ-दण्ड से कामव्याधि का कर दूँगा मैं अभी विनाश’
तदनन्तर अपने हाथों में कोई काष्ठ-दण्ड लेकर
चला तोड़ने आम्र-मंजरी वह नृप से ऐसा कहकर
सस्मित नृप यह व्यंग्य बोलकर उससे फिर मन्तव्य किया
‘मित्र! ठीक है, मैंने तेरे ब्रह्म तेज को देख लिया,
अरे सखे! अब कहॉं बैठकर प्रिय शकुन्तला की किंचित्
अनुकारिणी लताओं में मैं बहलाऊॅं ये दृष्टि व्यथित?’
कहा विदूषक ‘बतलाये थे आप चतुरिका दासी को
अभी माधवी मण्डप में यह अपना समय बिताने को
और वहॉं पर ले आने को चित्रफलक पर बने हुए
शकुन्तला की उस प्रतिकृति को जिसे आप ही रचे हुए’
राजन बोले ‘यदि ऐसा ही मनोविनोद का है स्थान
तब तो वही मार्ग बतलाओ, आओ करें शीघ्र प्रस्थान’
सुनकर ऐसा वचन विदूषक करने लगा मार्गदर्शन
सानुमती भी उन दोनो के पीछे पीछे किया गमन

मण्डप के सन्निकट पहुँचकर कहा विदूषक ने ‘छत्रप!
फटिक शिलापट्टक सनाथ यह लता माधवी का मण्डप,
उपहारों की सुन्दरता से निःशंसय ही ज्यों चित्रित
हम दोनों के स्वागत में ही जैसे रहा प्रतीक्षारत,
करके यहॉं प्रवेश इसलिए आसन ग्रहण करें राजन’
इस प्रकार कहकर प्रवेश कर दोनों ग्रहण किए आसन
मण्डप के समीप आ पहुँची सानुमती होकर अनुगत
लगी सोचने इस प्रकार यह वैसा ही होकर स्थित
‘इन्हीं लताओं के आश्रय से सखि का प्रतिकृति देखूँगी
तब उसको पति का अनेक विधि मैं अनुराग बताऊॅंगी’
कहने लगे विदूषक से नृप ‘धीरे धीरे सखे अभी
पूर्वघटित स्मरण हो रहा शकुन्तला वृत्तान्त सभी,
और आपसे भी मैनें यह है सब कुछ कह दिया परन्तु
परित्याग के समय आप तो मेरे पास नहीं थे, किन्तु
उस देवी का नाम आपने लिया न मुझसे पूर्व कभी
यह वृत्तान्त मेरे समान ही भूल गये हो क्या तुम भी?’
कहा विदूषक ने राजन से ‘मुझको यह विस्मरण नहीं
किन्तु आप परिहास इसे कह बोले थे कि सत्य नहीं,
मैंने भी मृतपिण्ड बुद्धि से समझ लिया कुछ वैसा ही
अथवा भवितव्यता निरन्तर निश्चय ही बलवती रही’
सानुमती अपने मन ही मन बोली ‘यह है इसी प्रकार’
तभी सोचकर राजन बोले ‘सखे! हमारी रक्षा कर’
कहा विदूषक ने ‘हे! यह क्या?, अन्तर्मन हो रहा व्यथित?
मित्र आपके बारे में तो यह है पूर्णतयः अनुचित,

सखे! सत्पुरुष लोग कभी भी शोकाविष्ट नहीं होते
निश्चय ही प्रवात में पर्वत विचलित कभी नहीं होते’
राजन बोले ‘मित्र! सत्य ही उसे त्यागने के कारण
व्यथित प्रिया की दशा सोचकर हूँ सम्प्रति बलवत् अशरण,
क्योंकि उस दिन मेरे द्वारा परित्यक्ता हो जाने पर
स्वजनों के पीछे चलने को हुई जिस समय वह तत्पर
उस क्षण पिता तुल्य स्वजनों के ‘‘रुक जा’’ ऐसा कहने पर
वह रुक गयी वहीं पर तत्क्षण सुनकर उनके ऊॅंचे स्वर,
फिर मुझ क्रूर व्यक्ति पर डाला रुदन कलुषमय नेत्रों को
यह सब विष-बाणों के जैसे दहन कर रहा है मुझको’
सानुमती बोली ‘स्वकार्य की होती ऐसी तत्परता
मैं इसके सन्ताप भाव से प्राप्त कर रही प्रसन्नता’
कहने लगा विदूषक नृप से ‘अहो, तर्क है यह मेरा
है ले जायी गयी मुनिसुता किसी गगनचारी द्वारा’
नृप बोले ‘पति देव सदृश है जिसका, ऐसी देवी को
साहस कैसे कर सकता है अन्य उसे छू सकने को?
अहो मित्र! मुझको पहले से है यह सुनने में आता
कि मेनका तुम्हारे उस सखि शकुन्तला की है माता,
हृदय हमारा कुछ विचारकर इस प्रकार है आशंकित
कि उसकी सखियों के द्वारा प्रिया शकुन्तला है अपहृत’
सानुमती ने ऐसा सुनकर सोच लिया अपनी अभिमति
‘निश्चय ही आश्चर्य योग्य है विस्मृति प्रत्युत ना स्मृति’
कहने लगा विदूषक नृप से ‘यदि है ऐसा तो निश्चय
हो जायेगा उस देवी से मिलन आपका किसी समय’

ऐसा ही प्रिय वचन श्रवणकर राजन बोले ‘यह कैसे?’
नृप की उत्कट उत्सुकता पर कहा विदूषक ने उनसे
‘माता और पिता दोनों ही, निश्चय ही हम कह सकते,
पति वियोग से दुखी सुता को सुख से देख नहीं सकते’
कहकर ‘मित्र!’ अधिप तदनन्तर इन भावों को सहलाया
‘प्रिया-मिलन के क्या सपने थे? वह सब कुछ क्या थी माया?
क्या मतिभ्रम था? क्या उतने ही फल वाला वह अल्प सुकृति?
जो प्रिय-मिलन अतीत बन गया कभी न संभव पुनरावृत्ति,
मनोकामनाएं ये मेरी पतनशील हैं सब ऐसे
टूट रहे हों तट प्रपात के जल धाराओं से जैसे’
कहा विदूषक ने राजन से ‘ऐसा नहीं, अॅंगूठी ही
है प्रमाण कि मिलन अचानक होता है निःशंसय ही’
पुनः अॅंगूठी को विलोककर हृदय व्यथित नृप बोले ‘अह!
अति दुर्लभ स्थान भ्रंश से निश्चय शोचनीय है यह,
अरी मुद्रिके! मेरे सम है तेरा पुण्य क्षीण निश्चित
तेरे प्राप्त किए फल से ही ऐसा है हो गया विदित,
जो कि तुम उस शकुन्तला के अरुण नखों वाले सुन्दर
अॅंगुलियों में शोभित होकर उससे बिछुड़ गयी गिरकर’
सानुमती ने कहा ‘सत्य ही अन्य किसी को यदि मिलती
तब तो निश्चय ही वृत्तान्त यह अतिशय शोचनीय होती’
तत्पश्चात् विदूषक पूछा ‘इस ‘इस नामांकित मुद्रा को
मित्र आपने किस प्रसंग से पहनाया था देवी को?’
उत्सुकता में सानुमती तब हुई एक क्षण हर्षचकित
‘मेरे कौतूहल के द्वारा किया गया है यह प्रेरित’

राजन बोले ‘सुनो, पूर्व मैं नगर हेतु था जब प्रस्थित
मुझसे पूछी थी शकुन्तला ऑंखों मे ऑंसुओं सहित
‘‘समाचार कब तक भेजेंगे? आर्यपुत्र! करिए संज्ञात’’
ेकहा विदूषक ने यह सुनकर ‘कहें क्या हुआ तत्पश्चात्?’
आगे कहा प्रसंग अधिप ने ‘तदनन्तर इस मुद्रा को
उसकी अॅंगुली में पहनाकर मैंने यह बोला उसको
‘‘अयि मम प्रिये! मुद्रिका यह जो नामांकित तुमने पहना
प्रतिदिन मेरे इसी नाम का एक एक अक्षर गिनना,
अहो प्रिये! तुम एक एक कर मेरे नामाक्षर के वर्ण
क्रमशः गिनते हुए अन्त तक कर पाओगी जब तक पूर्ण
तब तक, मेरे अन्तःपुर तक लेकर जाने वाला व्यक्ति
पास तुम्हारे आ जाएगा, मानों सत्य हमारी उक्ति,
और मित्र! अत्यन्त कष्टकर ज्यों विवेक हर लिया गया
निष्ठुर चित मैंने अज्ञानवष फिर तो क्या क्या नहीं किया’
मृदुचित सानुमती के मन में होने लगा विचार उदीय
‘विधिना द्वारा नष्ट अवधि यह निश्चय रही प्रचुर रमणीय’
पुनः विदूषक ने तब पूछा ‘धीवर ने वध किया जिसे
उस मछली के उदर भाग में यह मुद्रिका गई कैसे?’
नृप फिर बोले ‘शचीतीर्थ की स्तुति में संलग्न हुई-
तेरे सखि के कर से गिरकर यह गंगा में चली गई’
कहा विदूषक ने ‘मै समझा और उधर वह सानुमती
अपना यह निष्कर्ष निकाली इस प्रकार चिन्तन करती
‘इसीलिए तो धर्मभीरु इस राजन के अन्तशमन में
उपजा था सन्देह तपस्विनी शकुन्तला के परिणय में

अथवा, यह अनुराग भावना जो प्रत्यक्ष है परिलक्षित
अभिज्ञान की रखे अपेक्षा यह कहना है कहॉं उचित?’
बोले पुनः विदूषक से नृप लिए भावभंगिमा विचित्र
‘तो मैं इसी मुद्रिका को ही उपालंभ देता हूँ मित्र’
मन ही मन में कहा विदूषक सुनकर नृप का अवधारण
‘अच्छा तो है किया इन्होंने उन्मत्तों का मार्ग ग्रहण’
तदनन्तर राजर्षि क्षोभ में इस प्रकार सन्तप्त वचन
कहा मुद्रिका को विलोककर करके उसका सम्बोधन
‘अरी मुद्रिके! तू उन सुन्दर मृदु अॅंगुलियों से सम्पन्न
उत्तम कर का परित्याग कर कैसे जल में हुई निमग्न?
या, माना निर्जीव वस्तुएं देती नहीं गुणों पर ध्यान
किन्तु प्रिया का मेरे द्वारा किया गया है क्यों अपमान’
कहा विदूषक ने तदनन्तर मन ही मन में ‘क्या कहना,
लगता है कि अभी बुभुक्षा चाह रही मुझको खाना’
बोले नृप दुष्यन्त ‘अकारण परित्याग के अनुशय से
है सन्तप्त निरन्तर अतिशय जिसका हृदय, उसी ऐसे
इस जन पर अनुकंपा कर दें आप पुनः दर्शन देकर’
इसी समय पर वहॉं चतुरिका आयर चित्रफलक लेकर
आकर बोली ‘यह रानी का चित्रफलक लेकर आयी’
ऐसा कहकर चित्रफलक को उन दोनों को दिखलायी,
चित्रफलक का अवलोकन कर कहा विदूषक ने ‘हे मित्र!
कह सकता हूँ मैं विचारकर है अतीव सुन्दर यह चित्र
मनमोहक विन्यास प्रदर्शन चित्रलेख में है साकार
इसीलिए ही दर्शनीय है इनमें भावों का संचार,

अभिज्ञानशाकुन्तल

कालिदास
Chapters
प्रथम सर्ग : भाग 1 प्रथम सर्ग : भाग 2 प्रथम सर्ग : भाग 3 प्रथम सर्ग : भाग 4 प्रथम सर्ग : भाग 5 द्वितीय सर्ग : भाग 1 द्वितीय सर्ग : भाग 2 द्वितीय सर्ग : भाग 3 द्वितीय सर्ग : भाग 4 द्वितीय सर्ग : भाग 5 तृतीय सर्ग : भाग 1 तृतीय सर्ग : भाग 2 तृतीय सर्ग : भाग 3 तृतीय सर्ग : भाग 4 तृतीय सर्ग : भाग 5 चतुर्थ सर्ग : भाग 1 चतुर्थ सर्ग : भाग 2 चतुर्थ सर्ग : भाग 3 चतुर्थ सर्ग : भाग 4 चतुर्थ सर्ग : भाग 5 पंचम सर्ग : भाग 1 पंचम सर्ग : भाग 2 पंचम सर्ग : भाग 3 पंचम सर्ग : भाग 4 पंचम सर्ग : भाग 5 षष्ठ सर्ग : भाग 1 षष्ठ सर्ग : भाग 2 षष्ठ सर्ग : भाग 3 षष्ठ सर्ग : भाग 4 षष्ठ सर्ग : भाग 5 सप्तम सर्ग : भाग 1 सप्तम सर्ग : भाग 2 सप्तम सर्ग : भाग 3 सप्तम सर्ग : भाग 4 सप्तम सर्ग : भाग 5