द्वितीय सर्ग : भाग 1
नृप के अनुयायीगण के सॅंग नृप का प्रेमपात्र सहचर
आया था माढ़व्य विदूषक उस पड़ाव में रंजकवर
खिन्नपूर्ण गंभीर स्वॉंस ले व्यथा कथा को व्यक्त किया
आत्म-प्रलाप भाव में बोला ‘अरे! बहुत कुछ देख लिया
इस, शिकार के व्यसनी, नृप की मैत्री से हूँ बहुत दुखी
इसके मैत्रीजन्य कष्ट से त्रस्त, नहीं हो रहा सुखी,
यह मृग, यह वराह, सिंह यह इस प्रकार करते करते
ग्रीष्मकाल के मध्याह्न में इधर उधर, जो हैं तपते
ग्रीष्मकाल होने से जिनकी छाया है अत्यन्त विरल
ऐसे विविध वनों से हम हैं बाध्य घूमने को चल चल,
तरु-पत्रों के मिल जाने से हुआ कषैला मैला जल
पीने को हम बाध्य सदा हैं गिरि-नदियों का ऐसा जल,
अनियत बेला पर ही मुझको भोजन करना पड़ता है
जिसमें बहुधा शूल भुना ही मॉंस आदि कुछ रहता है,
अश्वों के पीछे चलने से, शिथिल सन्धि होने पर भी,
मुझको शान्तिपूर्वक सोने मिलता नहीं रात्रि में भी,
इस पर बड़े भोर में ही इन दासी पुत्रों व्याधों ने
वन को घेर किया कोलाहल दिया नहीं मुझको सोने,
और बहुत है मेरी पीड़ा इतना ही वृत्तान्त नहीं
अब यह और हुआ दुखदायी फोड़े पर फुन्सी सा ही,
अब कल ही हम अनुचरगण के कहीं दूर रह जाने पर
मृग अनुगामी महाराज के आश्रम में आ जाने पर
मिला वहीं उनको, यह समझो जाग गया मेरा दुर्भाग्य
तापस कन्या शकुन्तला का अनुपम दर्शन का सौभाग्य,
अब तो नृप को नगर गमन की चिन्ता शेष नहीं मन में
आज उसी कन्या-चिन्तन में हुआ भोर उनके दृग में,
सोच रहा हूँ क्या उपाय है? तो चलकर उनसे मिल लें
दैनिक कृत्य निवृत्त हुए उन नृप का हम दर्शन कर लें’
नृप के दर्शन को उद्यत हो जैसे उधर चला माढ़व्य
हुआ शान्त सा वह विलोककर जो कुछ उसे हुआ दृष्टव्य
धनुष लिए औ वन पुष्पों की माला कर में धारण कर
यवन स्त्रियों से परिवृत हो मित्र चले आ रहे इधर,
‘चलो ठीक है विकल रहूँगा अंग भंग सा होकर मैं
संभव है विश्राम पा सकूँ इस चेष्टा में मैं रहकर’
यह विचारकर विकल भाव को दर्शाने को हो चिन्तित
काष्ठ दण्डिका का अवलम्बन लेकर रहा वहीं स्थित
यवन स्त्रियों से परिवृत हो चले आ रहे प्रेम अधीर
ज्यों मतिभ्रम चिन्तित अनमन सा सोचमग्न हो अति मतिधीर
‘यद्यपि इस प्रिय शकुन्तला को पा लेना है नहीं सरल
फिर भी मन उसके भावों के दर्शन को है अति चंचल
कामदेव के सभी रूप के अकृतार्थ होने पर भी
दोनों की वे अभिलाषाएं जगा रही आनन्द अभी’
हॅसकर सोचा ‘यही अपेक्षा दे जाती है कष्ट-विकार
कि प्रियजन की चित्तवृत्ति हो आत्म कामना के अनुसार
कहीं देखती हुई, स्नेह से देखा जो मेरे भी प्रति
कटि गुरुता से वह विलास से चलती थी जो मन्थर गति
जिसने कि ‘‘मत जाओ’’ ऐसा कहकर रोंकी जाने पर
अपनी सखि से ईर्ष्यापूर्वक बोली थी जैसे चिढ़कर
निश्चय ही वे सब चेष्टाएं होती थी मुझ पर लक्षित
अहो! कल्पना कामीजन की होती आत्मभाव आश्रित’
इसी कल्पना में खोये से आ पहुँचे नृप अब उस थल
जहॉं विदूषक विकल हुआ सा रहा प्रतीक्षारत निश्चल
नृप के वहॉं पहुँचने पर वह उसी भाव में स्थित रह
बैठा विकल विदूषक नृप से किया प्रार्थना ऐसा कह-
‘अरे मित्र! कर, पद निष्क्रिय हैं इनका संभव नहीं प्रसार
केवल वाणी उच्चारण से आज करूँगा मैं जयकार’
आर्तकला से द्रवित हुए नृप मन्द विहॅंसकर प्रश्न किया
‘किस कारण से अंग भंग यह, किस पीड़ा की प्रतिक्रिया?’
खिन्न विदूषक कहा ‘आप ही नयनों को करके आकुल
पूँछ रहे हो किस कारण से बहते हैं ऑंसू अविरल’
नृप बोले मैं सत्य कह रहा निश्चय यह मुझको अज्ञात
इसीलिए यह प्रश्न किया कि कारण को भी कर लूँ ज्ञात’
वह बोला ‘हे मित्र! वेंत का कुब्जेपन का प्राप्त स्वभाव-
उस पर किसका कारण बोलो, नदी वेग या आत्मप्रभाव?’
नृप बोले ‘निश्चय ही उस पर नदी वेग ही है कारण’
कहा विदूषक अवसर पाकर ‘इस पर आप हुए कारण’
नृप बोले ‘यह किस प्रकार से?, मुझे बताओ तो माढ़व्य,
अभिमत अवसर प्राप्त विदूषक बोला ‘मित्र! सुनो वक्तव्य,