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प्रथम सर्ग : भाग 1

प्रथम सर्ग

वैभवपूर्ण हस्तिनापुर में एक हुए भूपति दुष्यन्त
प्रियदर्शी, उदार-हृदयी के जग में थी सुख शान्ति अनन्त
राजस-प्रवृति, धर्म-अनुरागी, मृगया के आसक्त नितान्त
एक बार आखेट खेलते आ पहुँचे सुदूर वन-प्रान्त
सरथ, सारथी, सशर चाप धर मृग का वे करते आखेट
बढ़े जा रहे तीव्र वेग में सहज कर्म में भाव समेट
बोले नृप दुष्यन्त ‘सारथे! यद्यपि यह सारंग अभी
खींच लिया है हम दोनों को बहुत दूर, यह फिर अब भी
ग्रीवा घुमा मनोहर पुनि पुनि पीछे रथ पर रखकर दृष्टि
शर के भय से पृष्ठ अंग को अग्र कराता हुआ प्रवृष्टि
अर्ध चबाये कुशाग्रास को श्रम के कारण खुले हुए
अपने मुख से मृगया पथ में कहीं कहीं छोड़ते हुए
देखो, यह मृग उछल कूदकर तीव्र वेग से चलने पर
रहता है अत्यधिक व्योम में, अल्प चल रहा धरिणी पर,
मेरा तीव्र वेग से इसका पीछा करने का प्रतिपल
यह प्रयत्न भी कैसा, जो यह होता जाता है ओझल’
कहने लगा सूत ‘आयुष्मन्! मैंने विषम धरा पाकर
रथ का वेग कर दिया धीमा अश्वरश्मि को संयम कर
इसीलिए हो गया हिरण से इतनी दूरी का अन्तर
सम्प्रति सममतल भूमि प्राप्त कर पाना इसे नहीं दुष्कर’

कहा सूत से तत्क्षण नृप ने जैसा उन्हें लगा उपयुक्त
‘तब तो तुम अब अश्वरश्मि को कर दो शिथिल, चलो उन्मुक्त’
ढ़ीली किया रश्मि को तत्क्षण नृप से ऐसा स्वर सुनकर
‘महाराज की जैसी आज्ञा’ ऐसा कहकर तदनन्तर
क्हने लगा अधिप से फिर से रथ का वेग निरूपित कर
‘आयुष्मन्! देखो अश्वों को रश्मि शिथिल हो जाने पर
निष्कंपित कर ग्रीव, शिखा को निश्चल कर्ण सचेत किए
हरिण वेग से लज्जित से ये खुरज धूति अतिक्रमण किए’
सूत तर्क पर राजन् बोले ‘सत्य लग रहा है यह कि-
इन अश्वों ने रवि अश्वों का किया अतिक्रमण है क्योंकि-
आलोकित होती, जो पहले मूल रूप में है लघुतर,
रथ के तीव्र वेग के कारण वह ही शीघ्र बड़ी होकर
वस्तु अर्धखण्डित है जो वह जुड़ी दिखाई पड़ती है
जो स्वभाव से वक्र, नेत्र को सीधी लगने लगती है
कोई भी तो वस्तु मुझे अब न ही दूर है न ही समीप’
ऐसा कहते हुए लक्ष्य के पहुँचे जब कुछ निकट महीप
कहकर उस क्षण ‘अहो सारथे! देखो यह मृग वेधितमान’
सहज रूप से उद्यत होकर किया लक्ष्य पर शर-संधान
भाव भंगिमा ठगता तत्क्षण कर्ण छू गया स्वर स्नेही
‘हे राजन्! यह आश्रम का मृग वध करने के योग्य नहीं’
सुनकर, अवलोकन कर सारथि बोला ‘हे नृप वीर यशी
कृष्णसार मृग बाण लक्ष्य के मध्य खड़े हैं कुछ तपसी’
स्थितिप्रज्ञ भ्रमित व्याकुल नृप उपकृत हो आदेश दिया
और सूत ने ‘जैसी आज्ञा’ कहकर रथ को रोंक लिया

देखा नृप ने उधर घूमकर मृग वध में आये बाधक
और नहीं कोई वे तपसी कण्व आश्रम के थे साधक
वैसानख सॅंग युगल तपस्वी उठा भुजा बोले ‘दुःसाध्य,
हे राजन! यह आश्रम का मृग दयापात्र है परम अबध्य
पुष्प सदृश कोमल मृग तन पर नहीं अग्निसम बाण प्रहार
अरे कहॉं चंचल मृग जीवन कहॉं वज्र शर से संहार
अतः चढ़ाकर रखे आप इस शर का कर दें प्रतिसंहार
शस्त्र करे दुखियों की रक्षा, निरपराध पर नहीं प्रहार’
नृप निशस्त्र कर दिया धनुष को स्थिति सब सामान्य हुई
ज्वलित अग्नि पर शीत लहर की जैसे कोई वृष्टि हुई
कहा तपस्वी वैसानख ने ‘हे पुरुवंश प्रदीप स्वरूप!
निश्चय, किया आपने अपने कुल मर्यादा के अनुरूप,
जिसका जन्म हुआ पुरु कुल में, ऐसे आप, किए उपयुक्त
चक्रवर्ती पुत्र प्राप्त करें नृप इसी प्रकार गुणों से युक्त’
भुजा उठाकर वे दो तपसी बोले यों शुभ वचन भरे
‘हो कल्याण सर्वथा, राजन् चक्रवर्ती सुत प्राप्त करे’
श्रवण किया राजन् ने ऐसा होकर अतिशय शान्त अनन्य
तदनन्तर अभिवादन करके उनसे बोले ‘मैं हूँ धन्य’
वैखानस बोले राजन् से सानुरोध निज परिचय में
‘हम समिधा के हेतु जा रहे इस अरण्य के अंचल में
है यह नद मालिनी तीर पर कुलपति कण्व ऋषि का आश्रम
ग्रहण करें आतिथ्य यहॉं, यदि, न हो अन्य कोई व्यतिक्रम,
तपस्वियों की रम्य क्रियायें विघ्नरहित होते सम्पन्न
अवलोकन कर, यह अवगतकर, होंगे अतिशय आप प्रसन्न-

कि प्रत्यंचा के घर्षण से घात विभूषित हुई भुजा
किस प्रकार रक्षा प्रदान कर शान्तिपूर्वक रखे प्रजा’
प्रश्न किया राजन ने उनसे, पूर्व करे प्रस्थान वहॉं,
‘आप बतायें कृपया कि क्या कुलपति हैं सन्निहित यहॉं?’
वैखानस ने कहा अधिप से इस पर करता हुआ विचार
‘इस क्षण तनया शकुन्तला को सौंप अतिथि सेवा का भार
करने उसके भागधेय के प्रतिकूलों का उचित शमन
सम्प्रति कुलपति कण्व किए हैं सोमतीर्थ के लिए गमन’
नृप ने कहा ठीक है, तो भी, मैं देखूँगा अभी उसे,
निश्चय मेरी भक्ति जानकर वह बोलेगी ऋषिवर से’
‘अब हम सब चलते हैं’ ऐसा नृप को करते हुए विदित
चला गया वैसानख तत्क्षण अपने दोनों शिष्य सहित
कहा सारथी से राजन ने ‘अश्वों को हॉंको अब मित्र,
पुण्य आश्रम का दर्शन करके अब अपने को करें पवित्र’
आज्ञा पाकर संयत करके रथ के अश्वरश्मि को डोर
सारथि लेकर चला वेग से रथ को उस आश्रम की ओर
आश्रम के सन्निकट पहुँचकर नृप ने कहा ‘सूत यह थल
आभाषित सा स्वयं हो रहा तपोभूमि का उपस्थल’
नृप के ऐसे ज्ञान वचन पर सारथि ने पूँछा ‘कैसे?’
नृप ने कहा स्वयं देखो तुम प्रकृति यहॉं है कुछ ऐसे-
शुक-शावक-मुख-विचलित-तण्डुल तरुओं के नीचे बिखरे
कहीं इंगुदी फल घिसने पर शिलाखंड भी हैं निखरे
और कहीं आश्वस्त भाव से घूम रहे हैं मृग निर्भय
मुनियों के वल्कल से अपसृत जल से पथ रेखांकितमय’

अभिज्ञानशाकुन्तल

कालिदास
Chapters
प्रथम सर्ग : भाग 1 प्रथम सर्ग : भाग 2 प्रथम सर्ग : भाग 3 प्रथम सर्ग : भाग 4 प्रथम सर्ग : भाग 5 द्वितीय सर्ग : भाग 1 द्वितीय सर्ग : भाग 2 द्वितीय सर्ग : भाग 3 द्वितीय सर्ग : भाग 4 द्वितीय सर्ग : भाग 5 तृतीय सर्ग : भाग 1 तृतीय सर्ग : भाग 2 तृतीय सर्ग : भाग 3 तृतीय सर्ग : भाग 4 तृतीय सर्ग : भाग 5 चतुर्थ सर्ग : भाग 1 चतुर्थ सर्ग : भाग 2 चतुर्थ सर्ग : भाग 3 चतुर्थ सर्ग : भाग 4 चतुर्थ सर्ग : भाग 5 पंचम सर्ग : भाग 1 पंचम सर्ग : भाग 2 पंचम सर्ग : भाग 3 पंचम सर्ग : भाग 4 पंचम सर्ग : भाग 5 षष्ठ सर्ग : भाग 1 षष्ठ सर्ग : भाग 2 षष्ठ सर्ग : भाग 3 षष्ठ सर्ग : भाग 4 षष्ठ सर्ग : भाग 5 सप्तम सर्ग : भाग 1 सप्तम सर्ग : भाग 2 सप्तम सर्ग : भाग 3 सप्तम सर्ग : भाग 4 सप्तम सर्ग : भाग 5