तृतीय सर्ग : भाग 2
‘हे सखि! नलिनी पत्रवात क्या तुझे दे रही है आह्लाद?’
था प्रतिप्रश्न ‘कहो अयि सखियों! मुझ पर क्यों यह पवन प्रसाद?’
अभिनयपूर्ण भाव में सखियॉं अनुभव करती हुई विषाद
किया परस्पर अवलोकन तब सुनकर उसका यह प्रतिवाद,
नृप ने सोचा ‘यह शकुन्तला है परिलक्षित अति अस्वस्थ’
करते हुए विचार ‘हुआ है क्या यह आतपजनित अनर्थ?,
या, जो मेरे अन्तरमन में इसके आहत का यह अर्थ
अभिलाषा से उसे निरखकर ‘या सन्देह हमारा व्यर्थ,
जिसके शिथिल मृणाल वलय हैं, स्तन पर है लेप उशीर
पीड़ा सहित प्रिया का ऐसा लगता है कमनीय शरीर
यद्यपि मन्मथ और ग्रीष्म के हैं समान वेग सन्ताप
किन्तु युवतियों पर यह सुन्दर होता नहीं ग्रीष्म का पाप’
शकुन्तला से अलग हटाकर प्रियंवदा तब बोली यह
‘सखि अनुसूये! है प्रतीत जो इस आशंका पर तू कह,
देख रही हूँ मैं दिन प्रतिदिन सखि राजर्षि प्रसंग मधुर
प्रथम बार दर्शन से लेकर हुई शकुन्तला है आतुर,
तो क्या उसके ही कारण से है आतंक कला इसका?’
बोली अनुसूया ‘मुझको भी है ऐसी ही आशंका,
अच्छा तो आ, मैं पूँछूगी, क्यों है यह ऐसी अनमन,
उसके सम्मुख आकर बोली ‘हे सखि! तुमसे है कुछ प्रश्न,
हम सब हैं तेरे शुभचिन्तक तू हम सब के प्राण समान
है प्रतीत सन्ताप तुम्हारा निश्चय ही अतिशय बलवान’
काया के पूर्वार्ध अंग से उठकर अल्प शयन-पट से
शकुन्तला बोली ‘हे सखि! क्या कहना चाह रही मुझसे?’
अनुसूया बोली ‘शकुन्तले! प्रकृति हमारी है अति शान्त
मदन विषय वृत्तान्त ज्ञान से हम दोनों अज्ञान नितान्त,
पर, इतिहास, निबन्धों में सखि है ज्यों वर्णित मदन विकार
मैं तेरी भी मदन अवस्था देख रही हूँ उसी प्रकार,
अब तू कह कि किस कारण से हुआ तुझे है यह सन्ताप?
बिना विकार ज्ञान के कैसे शमन हो सकेगा सन्ताप’
नृप सोचे ‘अनुसूया ने भी समझ लिया है मेरा तर्क
नहीं मनोरथ से अभिप्रेरित था मेरा विवारगत तर्क’
शकुन्तला ने सोचा ‘निश्चय मेरा आग्रह है बलवान
हूँ सहसा मैं अभी निवेदप करने में असमर्थ महान’
अनुसूया के प्रति सहमति में प्रियंवदा ने कहा त्वरित
‘सखि शकुन्तले! यह अनुसूया बोल रही सर्वथा उचित,
है स्पष्ट व्यक्त दोनों को कि तुम हो अत्यन्त व्यथित,
आत्म कष्ट की गहन उपेक्षा क्यों करती हो आलिंगित,
दिनानुदिन अपने अंगों से हुई जा रही हो तुम क्षीण
बस लावण्यमयी छाया ही नहीं हो रही तुम पर जीर्ण’
प्रियंवदा के इन शब्दों में मिला अधिप को अपना स्वार्थ
हो अभिभूत अधिप ने सोचा ‘प्रियंवदा ने कहा यथार्थ,
क्योंकि क्षीण कपोलों वाला हुआ प्रिया का है आनन
और कठोरमुक्त हैं उर पर इसके दोनों की स्तन,
यह कटिभाग हो गया कृशतर कन्धे भी हैं अति अवनत
देह कान्ति भी क्षीण हुई सी श्वेतवर्ण में है परिणत,
पत्र शुष्ककारिणी मरुत से निहित माधवी लता समान
मन्मथ पीड़ित यह शकुन्तला- शोच्या भी, प्रियदर्शिनिमान’
शकुन्तला बोली ‘हे सखियॉं! किससे और कहूँगी मैं?
या, अतिरिक्त तुम्हीं दोनों के दूँगी कष्ट किसे अब मैं?’
दोनों बोली ‘इसीलिए ही आग्रह है यह, अयि कमनीय!
प्रेमीजन द्वारा विभक्त दुख पीड़ा होती है सहनीय’
नृप सोचे ‘सम दुख-सुख जन से प्रश्न की गई यह युवती
मन में स्थित व्यथा हेतु को यह भी नहीं, नहीं कहती,
इस शकुन्तला के द्वारा मैं बहुत बार मुख लौटाकर
प्रेम पिपासापूर्ण दृष्टि से यद्यपि की देखा जाकर
इन सखियों के जिज्ञासामय प्रश्नकाल के अवसर पर
इस क्षण इसके हेतु वचन को मैं हूँ सुनने को कातर’
मन में स्थित आत्म-व्यथा को करती हुई व्यक्त तत्क्षण
शकुन्तला बोली ‘हे सखियों! तुमसे कहती हूँ कारण-
जब से मैंने आश्रम रक्षक नृप को देखा है आगत
तब से उनकी अभिलाषा में इसी दशा में हूँ सन्तप्त’
राजन हर्षित होकर सोचे ‘सुनने योग्य सुना मैंने’
प्रफुलित मन से आत्मतुष्टि में भाव विभोर लगे कहने
‘विगत ग्रीष्म पर जीवलोक के अभ्रश्याम के दिवस समान
मुझको मन्मथ ताप हेतु था, वही कर रहा शान्ति प्रदान’
बोली शकुन ‘आप दोनों यदि हो जाओ सहमत मुझसे
तो, ऐसा कुछ करो बनूँ मैं उनकी कृपापात्र जिससे,
यदि यह संभव नहीं हुआ तो निश्चित है मेरा प्राणान्त
तत्पश्चात् तिलांजलि देना जिससे रहे आत्मा शान्त’
सुनकर उसके इस वाणी को नृप ने पाया दृढ़ स्नेह
मन में सोचा ‘इन वचनों ने दूर किया मेरा सन्देह’