सप्तम सर्ग : भाग 1
सप्तम् सर्ग
तदनन्तर आकाश मार्ग से नृप मातलि रथ पर आरूढ़
चले आ रहे थे जब, तब नृप किए मुखर यह शब्द सगूढ़
‘मातलि! मघवत की आज्ञा का पालन कर लेने पर भी
यह विशेष सत्कार मिला जो, हूँ अयोग्य सा इसके भी’
किसा विहॅंसकर मातलि ने तब अपने भाव कथन को पुष्ट
आयुष्मन्! मैं समझ रहा हूँ कि दोनों ही नहीं हो तुष्ट,
राजन आप देव शतक्रतु के गौरव को करके स्वीकार
अपने द्वारा किए कार्य का अल्प मानते हैं अपकार,
और इन्द्र भी आयुष्मन के अतुल पराक्रम से विस्मित
किए गये सत्कार गुणों को नहीं समझते हैं समुचित’
यह सुनकर नृप उससे बोले ‘मातलि! ऐसा नहीं, नहीं,
विदा समय पर मेरी सेवा है विचार का विषय नहीं,
क्योंकि वहॉं उपस्थित उन सब देवगणों के सम्मुख ही
अर्धासन पर उपवेशित इस अपने परम सुहृद को ही
अति समीप में खड़े हुए उस मन में अभिलाषी, प्रियवर
सुत जयन्त का अवलोकन कर एवं मन्द मन्द हॅंसकर
देव इन्द्र वक्षस्थल स्थित हरिचन्दन लेपन अंकित
शुभ मन्दार पुष्प की माला किया कण्ठ में आभूषित’
तब मातलि नृप से पुनि बोले ‘कौन वस्तु वह है जो कि
नहीं प्राप्त की जा सकती है शतक्रतु से, देखो क्योंकि
हे राजन! इस समय ग्रन्थि पर झुके आप के बाणों ने
और पूर्व में मुड़े ग्रन्थि से भगवन नरसिंह के नख ने
दोनों ही ने इन्द्र देव के अतिशय सुख सम्पन्न निहित
स्वर्गलोक को दानवरूपी कॉंटों से कर दिया रहित’
यह सुनकर विनम्रतावश नृप बोले होकर अति कृतकृत्य
‘हे मातलि! है इस प्रसंग में शतक्रतु की महिमा स्तुत्य,
होते हैं महान कर्मों में जो भी सेवक लोग सफल
समझें उसे स्वामियों के ही परम पराक्रम का प्रतिफल,
अथवा क्या वह अरुण तिमिर का कभी विनाशक हो सकता
सूर्यदेव यदि अग्र भाग में उसे नियुक्त नहीं करता’
मातलि सुनकर पराक्रमी का यह उद्गार विनम्र अनूप
कहा अधिप से ‘सत्य, वचन यह है आयुष्मन के अनुरूप’
तदनन्तर कुछ पथ व्यतीत कर मातलि बोले ‘आयुष्मान्!
उधर देखिए, स्वर्ग प्रतिष्ठित यह अपने यश का गुणगान,
यहॉं स्वर्ग से मान्य देवगण रुचिर रागमय गीतों के
भावावलियों के प्रबन्ध का सहजरूप चिन्तन करके
सुर सुन्दरियों के विच्छित्ति से शेष वर्ण को अपनाकर
हैं लिख रहे चरित्र आपका कल्पलता के अंशुक पर’
नृप बोले ‘मातले! करो अब इस जिज्ञासा का भेदन-
असुरगणों से रण करने की उत्सुकतावश पहले दिन
मैंने स्वर्ग मार्ग का विधिवत् नहीं किया था अवलोकन
वायु प्रान्त के किस पथ में हैं हम दोनों कर रहे गमन?’
मातलि बोले ‘जो नभ स्थित सुरसरि को करता धारण
और चलाता नक्षत्रों को किरणों का करके प्रसरण,
वामनरूप विष्णु भगवन के अन्य चरण से पापरहित
ऐसा ही यह परिवह नामक मारुत का पथ है वर्णित’
नृप बोले ‘मातले! इसी से निश्चय मेरा अन्तर्मन
सभी इन्द्रियों सहित इस समय है अतिशय हो रहा प्रसन्न’
तदनन्तर रथ चक्र देखकर नृप बोले ‘मातले! सुनो,
संभवत मेघों के पथ पर अतर गये हैं हम दोनों’
यह सुनकर मातलि ने पूछा ‘कैसे हुए आप अवगत?’
मातलि से तब इस प्रकार से व्यक्त किए नृप अपना मत
‘मातलि! चक्रप्रान्त है जिसका जल की बूँदों से लथपथ
ऐसा यह परिलक्षित मुझको निश्चय अभी आपका रथ,
अरविवरों से उड़ते चातक और तड़ित आभा रंजित
अश्वों के द्वारा मेघों पर चलना करता है सूचित’
इसी मध्य मातलि राजन को किया स्वयं सन्देश प्रदान
‘पहुँचेंगे अधिकार भूमि पर कुछ ही क्षण में आयुष्मान’
तदनन्तर मातलि से राजन बोले ऐसा अधोविलोक
‘वेग अवतरण के कारण है अद्भुत लक्षित मानवलोक,
क्योंकि होती हुई प्रकट क्षिति है प्रतीत होती ऐसे
मानों नीचे उतर रही है यह शैलों की चोटी से,
पादप भी अब मूल धड़ों के दिखलायी पड़ जाने से
अपना पत्तों के अन्दर से छिपना छोड़ रहे जैसे,
हुआ अलक्षित था जिनका जल अधिक क्षीणता के कारण
प्रकट हो रही हैं वे नदियॉं विस्तृत होने के कारण,
देखो यथा किसी के द्वारा उर्ध्व उछाले जाने पर
मेरे पास भुवन नीचे से चला आ रहा है ऊपर’
‘साधु दृष्टि है’ कहकर बोले मातलि अति सम्मान सहित
‘अह! कैसी विशाल रमणीया यह पृथिवी है अवलोकित’
धरणि देखते हुए अधिप ने ऐसा प्रश्न वाक्य बोला
‘अहो मातले! पूरब एवं पश्चिम सागर तक फैला
कंचन रस बरसाने वाला, सांध्य मेघ अर्गला समान
कौन पहाड़ दृष्टिगत है यह?’ मातलि बोले ‘आयुष्मान्!
निश्चय हेमकूट नामक है यही, किन्नरों का पर्वत
जो कि तप संसिद्धि क्षेत्र है, और कर रहा हूँ अवगत-
स्वायम्भुव के सुत मरीचि से हुए प्रजापति जो उत्पन्न
देव-असुर गुरु वही सपत्नी यहॉं तपस्या में हैं मग्न’
नृप बोले ‘तो मंगलप्रद का उचित नहीं है अतिक्रमण
काश्यप की प्रदक्षिणा कर लें तभी अन्य पथ बढ़े चरण’
मातलि बोले ‘उत्तम मति है’ उतर गये नभ से भू पर
दिव्य अनुभवों को राजन ने कहा सविस्मय तदनन्तर
‘भू स्पर्श नहीं होने से न रथांग से ध्वनि आयी
और धूल भी उड़ती जैसी नहीं पड़ रही दिखलायी,
नहीं रोंकने के कारण यह भगवन का रथ दिव्य पुनीत
भूतल पर अवतीर्ण हुआ भी नहीं हो रहा मुझे प्रतीत’
मातलि ने नृप के विस्मय को किया शान्त ऐसा कहकर
‘शतक्रतु और आपके रथ में है इतना विशेष अन्तर’
राजन ने मातलि से पूछा मुनि के दर्शन का उपक्रम
‘कहो, कहॉं है इस प्रदेश में पूज्यनीय मारीच आश्रम?’
कर से दर्शाकर मातलि अब बतलाने में थे संलग्न
‘उस बामी के अग्र भाग में जिनका अर्ध शरीर निमग्न,