द्वितीय सर्ग : भाग 4
कहा विदूषक ने ‘तब तो प्रिय! कृपया ग्रहण करें पाथेय,
देख रहा हूँ तपोभूमि को बना दिए उपवन, श्रद्धेय’
नृप बोले ‘हे मित्र! यहॉं मैं नहीं रहा हूँ अब अनजान,
कुछ तपस्वियों के द्वारा भी लिया गया हूँ मैं पहचान,
अब विचारकर युक्ति बताओ कि हम किस निमित्त, किस आस
एक बार भी किसी प्रयोजन इस आश्रम में करें निवास’
उसने कहा ‘अधिप को इससे अन्य युक्ति क्या श्रेयस्कर-
प्रिय! निवार के षष्ठ भाग का स्वत्व मॉंग करिए जाकर’
नृप बोले ‘रे मूर्ख! शान्त रह मत प्रलाप कर ऐसा राग,
इन तपस्वियों की रक्षा में होता प्राप्त अन्य ही भाग
जो कि- सहज प्राप्त हो यद्यपि अतुलित रत्न समूह सुभोग्य
तब भी इसका परित्याग कर, होता है अभिनन्दन योग्य,
देखो, है क्षयशील राजकर प्राप्त प्रजा से अधिपों का
किन्तु हमें देते वनवासी छठॉं अंश अक्षय तप का’
जब नृप और विदूषक दोनों इसी वार्ता में थे व्यस्त
तभी उन्हें कुछ शब्द निकट से पड़ा सुनाई होता व्यक्त
‘कुशल हुआ कि हम दोनों का यहॉं प्रयोजन हुआ सफल’
‘किसका स्वर?’ अनुमान लगाने नृप मन ही मन हए विकल
‘धीर, शान्त स्वर वाले ये जन’ कुछ आश्वस्त हुए भूपेश
‘होंगे तपसी’ नृप सोचे ज्यों, दौवारिक ने किया प्रवेश
दौवारिक ने दिया सूचना अधिपति का अभिवादन कर
‘ऋषिकुमार दो द्वार भूमि पर किए आगमन हैं नृपवर!’
ज्यों ही नृप ने दौवारिक से प्राप्त किया ऐसा संदेश
तत्क्षण बोले नृप ‘तो उनको शीघ्र कराओ यहॉं प्रवेश,
‘यह लाता हूँ’ चला गया कह नृप की आज्ञा के अनुसार
कुछ ही पल में पुनः आ गया साथ लिए दो ऋषीकुमार
नृप को देख प्रथम तपसी तब किया गान गुण राजन का
‘अहो! तेजमय होकर भी है विश्वसनीय देह इसका,
अथवा ऋषियों के समान ही सभी गुणों से है सम्पन्न
नृप के लिए उचित ही है कि है यह ऐसा गुण सम्पन्न
क्योंकि सर्वभोग्य आश्रम में करता है निवास यह भी
और प्रजा-रक्षण से करता यह प्रतिदिन तप संचय भी
इस विजितेन्द्रिय का भी केवल ‘‘राजपूर्व मुनि’’ शब्द पुनीत
बारम्बार स्वर्ग छूता है चारण दम्पतियों का गीत’
कहा अन्य तपसी ने ‘गौतम! यह है इन्द्र सखा दुष्यन्त’
गौतम बोला ‘अरे, और क्या?, कहा अन्य ने तो श्रीमन्त-
नगर परिघ सी दीर्घ भुजायें है जिसकी वह यह राजन
उदधि-श्यामयुत अखिल धरा की एकाकी करता पालन
यह आश्चर्य नहीं है क्योंकि दैत्य-शत्रु सुर युद्धों में
इसके धनु वा देव वज्र से रहें विजय की आशा में’
तत्पश्चात् उभय तपसीजन किए अधिप के निकट गमन
उनके ‘विजयी हो’ कहने पर किया अधिप ने अभिवादन
‘हो कल्याण आपका नृपवर’ कह वे कुछ फल भेंट किए
‘जो आज्ञा हो, दें’ कहकर नृप सप्रमाण फल ग्रहण किए
कहा तपस्वियों ने ‘हे अधिपति! आप यहीं पर हैं स्थित
यह इस आश्रम में जन जन को भलीभॉंति है हुआ विदित,
उन लोगों ने आशान्वित हो किया आपसे यह अनुनय’
नृप बोले ‘उनकी क्या आज्ञा?, कहें आप अनुरोध विषय’
दोनों बोले ‘पूज्य कण्व के अनुपस्थिति का करके ज्ञान
असुर हमारे यज्ञ कार्य में करते हैं बहुविध व्यवधान
अतः सारथी सहित दिवस कुछ करिए आश्रम संरक्षित’
उन दोनों के इस अनुनय पर नृप बोले ‘हूँ अनुगृहीत’
नृप समीप तिर्यक मुख करके कहा विदूषक ने उस पल
‘यह अनुकूल प्रार्थना तुमको प्राप्त हुआ ज्यों वांछित फल’
मंद विहॅंसकर बोले नृप यह ‘अरे रैवतक! जाओ आप,
मेरे वचन कहो सारथि से लेकर आयें रथ, शर, चाप’
‘महाराज की जैसी आज्ञा’ कह दौवारिक चला गया
और उपस्थित उभय तपस्वी यह हर्षित हो व्यक्त किया
‘पूर्वज अनुकारी नृप के प्रति यह वाणी सर्वथा उचित
पुरुवंशी आपत्तिग्रस्त के अभय यज्ञ में हैं दीक्षित’
नृप प्रणामकर बोले उनसे ‘आप लोग कीजिए गमन,
शीघ्र आ रहा हूँ मैं पीछे’ वे बोले ‘जय हो, राजन!’
चले गये दोनों जब नृप तब व्यक्त किए मन की भाषा
‘हे माढ़व्य! क्या शकुन्तला के दर्शन की है अभिलाषा?’
कहा विदूषक ने ‘पहले तो आकांक्षा भी उमड़ रही,
किन्तु असुर वृतान्त श्रवण से यह इच्छा अब शेष नहीं’
नृप बोले ‘मत डरो, रहोगे तुम मेरे समीप निश्चित’
कहा विदूषक ने ‘तब तो मैं राक्षसगण से हूँ रक्षित’
आज्ञा का पालन करने तब दौवारिक ने किया प्रवेश
सादर अभिनन्दन कर उसने दिया अधिप को यह संदेश
‘सज्जित रथ कर रहा प्रतीक्षा करने विजय हेतु प्रस्थान
किन्तु नगर का यह आज्ञापक करभक भी है आगतमान’