प्रथम सर्ग : भाग 4
क्रोध प्रदर्शित सा करती तब इस पर बोली शकुन्तला
‘तात उपस्थित ही होते यदि तो क्या होता बोल भला’
दोनों सखियॉं बोलीं ‘तो वे अतिथिभाव में हो निःस्वार्थ
जीवन के सर्वस्व सखी से करते अतिथि विशेष कृतार्थ’
शकुन्तला बोली सखियों से ‘दूर हटो, सब मुझको ज्ञात,
कुटिल हृदय से बोल रही हो, नहीं सुनूँगी तेरी बात’
प्रेमाकुल नृप उत्सुक होकर उन दोनों से यह बोले
‘हम भी तुम दोनों के सखि के परिचय से अवगत हो लें’
दोनों सखियॉं सहमत होकर आभारी ज्यों वचन कही
‘आर्य! आपका यह अनुनय तो हम पर है अति अनुग्रह ही’
सतोभाव से नृप यह बोले ‘भगवन् काश्यप रागरहित,
शास्वत ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित हैं, है सर्वविदित,
आपजनों की सखि शकुन्तला भगवन् काश्यप की दुहिता?,
किस प्रकार से यह संभव है? मुझको है संशय लगता’
‘आर्य सुनें’ बोली अनुसूया ‘कौशिक गोत्र नामधारी
अति प्रभावशाली राजर्षी हैं कोई धर्माचारी’
पूर्व ज्ञात वृत्तान्त श्रवणकर नृप बोले ‘हॉं, सुना गया’
कौतूहल के निराकरण को आगे बोली अनुसूया
मेरी प्रिय सखि शकुन्तला के जीव सृजन से वही पिता
त्यक्त सखी के तन पोषण से तात काश्यप हुए पिता’
बोले नृप ‘इस त्यक्त शब्द ने कौतूहल उत्पन्न किया
यह वृत्तान्त आमूल श्रवण की मेरी इच्छा है, कृपया’
नृप के इस विशेष आग्रह पर वह बोली होकर अति धीर
‘आर्य सुनें, प्राचीन काल में शुचि गौतमी नदी के तीर
थे कौशिक राजर्षि शान्तिमय उग्र तपस्या में स्थित
उनके तप से आशंकित हो हुए देवगण अति चिन्तित
किया, सशंकित देवगणों ने उनका तप करने खंडित,
विघ्नकारिणी नाम मेनका एक अप्सरा को प्रेषित’
नृप बोले ‘इन देवगणों को अन्य किसी का तप ज्यों व्याधि
भय पाते रहते ही हैं ये अन्य किसी की निरख समाधि’
अनुसूया ने सहज स्वतः ही और कहा आगे वृत्तान्त
‘उसी समय आगमन किया था धरिणी पर ऋतुराज वसन्त
तब वसन्त के रम्य काल में ऋषि विलोक उन्मादक कान्ति’
अर्ध वाक्य यह कह अनुसूया लज्जा से धारण की शान्ति
नृप बोले ‘स्पष्ट स्वतः है, यह शकुन्तला निःसन्देह
उसी अप्सरा की है जाया’ अनुसूया बोली ‘प्रतिग्रह’
नृप बोले ‘सच, कैसे संभव, मनुज वंश में ऐसा रूप?
वसुधातल से नहीं उपजती आभा चंचल ज्योति अनूप’
शकुन्तला थी खड़ी अधोमुख और वहीं नृप चिन्तनमान
‘मेरी उठती मनोकामना प्राप्त किया अवसर प्रियमान,
किन्तु सखी के पूर्व कथन में व्यक्त हुई वर आकांक्षा
सुनकर मेरा मन द्विविधा में जा पहुँचा अधीर कक्षा’
प्रियंवदा सस्मित हो सखि के, फिर नृप के प्रति अभिमुख हो
बोली नृप से ‘अतिथि आर्य! कुछ कहने को तत्पर सा हो’
शकुन्तला ने प्रियंवदा को, करती ज्यों भय से अभिचेत,
शान्ति हेतु आगाह किया तब अॅंगुलियों से कर संकेत
प्रियंवदा के उत्तर में नृप बोले ‘समझे आप उचित
सच्चरित्त के श्रवण लोभ से और प्रश्न हैं उर विकलित’
प्रियंवदा ने धृष्ट भाव में कहा ‘नहीं हों चिन्तित आर्य,
तपसीजन से विगत नियन्त्रण प्रश्न किए जा सकते, आर्य!’
नृप बोले ‘मैं इसी तुम्हारी सखि के सम्बन्धित कुछ बात
शंसय से है ओत-प्रोत जो, चाह रहा हूँ करना ज्ञात-
कि क्या यह ऋषि काश्यप दुहिता पाणिग्रहण के अवसर तक
जीवन के तपभाव सन्निहित मदन प्रवृति के अवरोधक
तप के ब्रह्मचर्य व्रत को ही किए रहेगी दृढ़ धारण
या सदैव मृगियों संग विचरण?, वैसे नेत्रों के कारण’
प्रियंवदा बोली ‘परवश है धर्म चरण में भी यह आर्य
पुनः योग्य वर को प्रदान का तात करेंगे ही शुभ कार्य’
सुनकर यह संकल्प तात का हुए सोचने को नृप बाध्य
बोले अपने मन में ‘तब तो यह अभिलाषा नहीं असाध्य,
क्योंकि यह राजर्षि सुता है जन्म-धर्म से क्षत्रिय वंश
कौशिक की जाया होने से इसमें भी है क्षत्रिय अंश,
अरे हृदय! हो पूर्ण मनोरथ, अब संदेह हुआ निर्णीत
यह स्पर्श योग्य है कन्या, अग्नि नहीं, यह रत्न पुनीत’
रोष सहित बोली शकुन्तला ‘मैं जाऊॅंगी अनुसूये!’
अनुसूया ने कारण पूँछा ‘किस निमित्त से सखि, कहिये’
शकुन्तला बोली ‘जाती हूँ अभी गौतमी मॉं के पास
उन्हें असंबद्ध प्रलापिनी प्रियंवदा का कहने त्रास’
अनुसूया बोली ‘शकुन्तले! बिना किए सत्कार उचित
आर्य अतिथि को छोड़ तुम्हारा ऐसा जाना है अनुचित,
सखि का यह स्वछन्द पलायन आर्य अतिथि का है अपमान’
पर, शकुन्तला कुछ ना बोली और किया तत्क्षण प्रस्थान
उसे रोकने की अभिलाषा त्याग अधिप ने स्वयं कहा
मनोवृत्ति कामी की होती चेष्टा के अनुसार, अहा!,
मुनि तनया के पीछे चलने तत्पर होकर भी रुककर
इस स्थल से बिना चले भी लौटा हूॅं जैसे जाकर’
प्रियंवदा ने सम्मुख आकर किया शकुन्तला को अवरुद्ध
बोली ‘सखि अयुक्त है तेरा ऐसा जाना होकर क्रुद्ध’
शकुन्तला भ्रू-भंग भाव से बोली ‘किस निमित्त’ इस पर
प्रियंवदा ने कहा शेष है वृक्षों का सिंचन तुझ पर,
तो, आ तो, तू तब जाएगी छुड़ा सके जब अपने को’
ऐसा कहकर ही बलपूर्वक लौटा ले आयी उसको
‘भद्रे!’ बोले अधिप ‘आपको यहॉं वृक्ष के सेंचन से
थकित देखता हूँ मैं क्योंकि इसकी- घड़े उठाने से
उभय बाहु नत कंधों वाली, तथा हथेली है लोहित
अभी प्रमाणाधिक स्वॉसें भी करते हैं उरोज कम्पित,
मुख पर कर्ण-सिरस के रोधी स्वेद बिन्दु हैं लुढ़क रहे,
एक हाथ में गुंथे केश भी बन्ध शिथिल हो बिखर रहे,
अतः इसे मैं ऋण विमुक्त अब करता हूँ’ ऐसा कहकर
एक मुद्रिका शकुन्तला को देने अधिप हुए तत्पर
सखियॉं उस मुद्रा में अंकित नाम अक्षरों को पढ़कर
एक दूसरे का अवलोकन किया अचम्भित सा होकर
नृप बोले ‘अब आप हमें कुछ और अन्यथा ना समझें
राजा की है भेंट, अतः अब राजपुरुष मुझको समझें’
प्रियंवदा बोली ‘अॅंगुली से यह मुद्रिका वियोग अयुक्त
आर्य अतिथि के मृदु वचनों से है सखि पूर्णरूप ऋणमुक्त’