चतुर्थ सर्ग : भाग 5
कहा गौतमी ने ‘वधु हित में दिया गया उपदेश प्रचुर,
पुत्री! इसको अन्तर्मन से अक्षरशः तू धारण कर’
काश्यप बोले शकुन्तला से उसी ओर कुछ पग चलकर
‘पुत्री! मेरा, इन सखियों का आ करके आलिंगन कर’
शकुन्तला ने तत्क्षण पूछा ‘तात! बतायें यह मुझको
प्रियंवदा, अनुसूया क्या अब लौट रही हैं आश्रम को?’
काश्यप ने सांत्वना बॅंधाया इस प्रकार कहकर उसको
‘पुत्री! यह भी दी जायेंगी किन्तु ज्ञात हो यह तुमको
इनका गमन हस्तिनापुर को नही युक्तिसंगत किंचित्
तेरे साथ गौतमी को मैं भेज रहा हूँ यथा उचित’
तब शकुन्तला काश्यप ऋषि से यह बोली आलिंगन कर
‘किस प्रकार इस समय, तात की गोद पली, विछोह लेकर
मलयानिल द्वारा उन्मूलित चन्दन लता समान विपन्न
जाकर धारण कर पाऊॅंगी देशान्तर में मैं जीवन?’
यह सुनकर अति व्यथित देखकर बोले ऋषि काश्यप उससे
‘वत्से! क्यों होती हो व्याकुल?, नहीं सोचते हैं ऐसे
पुत्री! तुम अभिजात्य वंश के पति के श्लाघनीय, हितकर
विहित धर्मगृहणी के पद पर मंगलमय शोभित होकर
पति के वैभवशाली एवं उत्सव, दान, यज्ञ, शुचिकर
सब महान कृत्यों में प्रतिक्षण तुम अनवरत व्यस्त रहकर
सूर्यप्रसूता प्राची दिशि सम शीघ्र पवित्र जन्म देकर
नहीं करोगी कभी स्मरण मेरा विरही दुःख दुष्कर’
शकुन्तला चरणों में गिरकर लिए पिता के पद-रज चूर्ण
काश्यप उसे उठाकर बोले ‘मेरी इच्छाएं हों पूर्ण’
व्यथित हृदय बोली शकुन्तला सखियों के समीप जाकर
‘करो हमारा आलिंगन सखि एक साथ दोनों मिलकर’
उस प्रकार आलिंगन करके उसके मुख की ओर निरखि
प्रियंवदा, अनुसूया दोनों शकुन्तला से बोली ‘सखि!
तुझे जानने में राजन यदि देर करें, तब यह करना
तुम उनको उनके नामांकित निज मुद्रिका दिख देना’
शकुन्तला उससे यह सुनकर बोली होकर अति चिन्तित
‘इस सन्देह भाव के भय से सखी हो रही हूँ कम्पित’
दोनों सखियॉं बोली उससे ‘नहीं सखी, मत हो भयभीत
स्नेह अमंगल आशंका से होते हैं सम्मिलित प्रतीत’
शारंगरव ने तभी मध्य ही बोला समय बोध को ढूँढ़
‘देवी! करें शीघ्रता, क्योंकि हुआ युगान्तर रवि आरूढ़’
आश्रम के प्रति अभिमुख होकर शकुन्तला बोली ‘हे तात!
पुनः तपोवन दर्शन का कब होगा हमें सुअवसर प्राप्त?’
इस पर काश्यप बोले ‘सुनिए, दीर्घ काल बहु सम्वतसर
चारों ओर उदधि तक विस्तृत भू की सह पत्नी होकर
अप्रतिरथ दुष्यन्त तनय को यथाधर्म करके अभिषिक्त
उसे कुटुम्ब भार अर्पित कर पति के साथ धर्म सेवित
जीवन का परमार्थ जानने करने को अध्यात्म विकास
इसी शान्त आश्रम में आकर पुनः करोगी यहॉं निवास’
तभी गौतमी बोली ‘पुत्री! और वार्ता रहने दो
बीत रही जाने की वेला पूज्य पिता को लौटा दो
अथवा बहुत समय तक पुनि पुनि कहा करोगी ऐसे स्वर’
काश्यप के प्रति अभिमुख होकर ‘आप लौट जायें ऋषिवर’
काश्यप कहे ‘हो गया मेरे तप का अनुष्ठान अवरुद्ध’
पुनः पिता का आलिंगन कर बोली ऐसा कण्ठ निरुद्ध
‘तप के कारण तात आपका है शरीर अतिशय पीड़ित
मेरे लिए अतः अब इतना आप नहीं हों उत्कंठित’
सनिःश्वास काश्यप बोले अतिशय दुःख से भरे हुए
‘वत्से! तेरे द्वारा पहले उटज द्वार पर रचे हुए-
उगे हुए नीवार धान्य को बार बार अवलोकन कर
किस प्रकार मेरा विषाद अब पा सकता है शान्ति इधर,
जा, तेरा पथ मंगलमय हो’ दिए स्वस्ति का यह वरदान
अनुयायी एवं शकुन्तला सभी किए पथ पर प्रस्थान
शकुन्तला की ओर देखकर सखियों ने दुख प्रकट किया
‘हाय! हाय! इस वनप्रदेश ने शकुन्तला को छिपा लिया’
दुःख से बोझिल श्वॉंस छोड़कर काश्यप बोले ‘अनुसूया!
तुम सब की सहधर्मचारिणी शकुन्तला ने विदा लिया,
सब विषाद का निग्रह करके अब मेरा अनुसरण करें
चलो, चलें अब आश्रम के प्रति सभी लोग अब धैर्य धरें’
इस आग्रह पर दोनों बोलीं ‘तात! शकुन्तला से विरहित
शून्य तपोवन में हम कैसे करें प्रवेश दुःखी, विचलित’
काश्यप ने उनको समझाया कहकर ऐसी पवन विनीत
‘स्नेह प्रवृति के कारण ऐसा होता है सर्वदा प्रतीत’
इस प्रकार कहकर तदनन्तर रहे काश्यप कुछ पल शान्त
कुछ विचारते हुए घूमकर दुःख से बोले शब्द सुखान्त
‘पति के घर उसको प्रेषित कर शान्त हुआ अब मेरा मन
क्योंकि निश्चय ही कन्यायें किसी और का ही हैं धन,
पति के पास भेजकर उसको अन्तरात्मा मेरी आज
है निश्चिन्त अतीव यथा यह किया न्यास प्रत्यर्पण काज’
इस प्रकार से कहते सुनते सब इस दुख से आविल मन
एक साथ मिल आश्रम स्थित पर्णकुटी को किए गमन