द्वितीय सर्ग : भाग 3
‘स्वामी की जैसी आज्ञा’ कह सेनापति ने किया गमन
कहा विदूषक उससे ‘तेरा हो विनष्ट उत्साह वचन’
आगत परिजन से बोले नृप ‘दें उतार मृगया के वेश’
और नियुक्त स्थल तक जाने का दिया रैवतक को आदेश
‘जैसा देव दे रहे आज्ञा’ कहकर वे सारे परिजन
चले गये निज निज मण्डप में करने को विश्राम, शयन,
एकल नृप को देख विदूषक और देखकर प्रान्तर शान्त
कहा ‘यहॉं पर मेरे प्रियवर! किया आपने अति एकान्त,
लता, वृक्ष की छाया में अब रम्य शिला पर हों आसीन
यहीं निकट हो जाऊॅं तब तक मैं भी सुखपूर्वक आसीन’
नृप ने कहा ‘चलो आगे’ फिर, वह बोला आयें राजन
इस प्रकार नृप और विदूषक दोनों ग्रहण किए आसन
नृप बोले ‘माढ़व्य! चक्षु फल तुम्हें अप्राप्त रहा अब तक
क्योंकि देख नहीं पाये तुम दर्शनीय कृति को अब तक’
कहने लगा विदूषक नृप से उन पर प्रेक्षण करके अक्ष
‘आप यहॉं साक्षात् उपस्थित, दृश्यमान हो मुझे समक्ष’
नृप ने कहा ‘वस्तु अपनी तो लगती है सब को सुन्दर
आश्रम शोभा शकुन्तला पर प्रेरित था मेरा यह स्वर’
तभी विदूषक ने सोचा कि इन्हें न दूँगा अब अवसर
बोला ‘तुमको तापस कन्या प्रार्थनीय सी है प्रियवर’
नृप बोले ‘माढ़व्य मित्रवर! मैं करता हूँ सत्य कथन
त्याज्य वस्तु पर पुरुवंशज का नहीं प्रवर्तित होता मन,
शिथिल मालिका पुष्प गिरा हो ज्यों मन्दार वृक्ष पर, त्यों
सुर-युवती-संभव शकुन्तला त्यक्त मेनका द्वारा यों,
प्राप्त की गई मुनि के द्वारा इस प्रकार यह निश्चय जान
अभिज्ञात होगी ही जग में ज्यों मुनि की अपनी सन्तान’
नृप का वह अभिप्राय समझकर सुनकर वह उपमान कथन
कहा विदूषक ने फिर हॅसकर नृप को ऐसा व्यंग्य वचन
‘ज्यों कोई खजूर से ऊबा इमली का अभिलाषी हो
वैसा स्त्री रत्न तुष्ट, यह आप कामना भाषी हो’
नृप बोले ‘यह अनुपयुक्त है मित्र आपका व्यक्त विचार
तुमने उसे नहीं देखा है अतः तुम्हारा यह उद्गार’
कहा विदूषक ने अधिपति से ‘तब वह निश्चय है रमणीय
जो कि आप में इस प्रकार से विस्मय को कर रही उदीय’
नृप उसकी मोहिनी कान्ति की करने लगा प्रशंसा ‘मित्र!
और अधिक क्या कहूँ आपसे, मानों अंकित करके चित्र
उसमें किया सृष्टिकर्ता ने प्राणयोग को परिकल्पित
अथवा किया उसे मन द्वारा रूप राशि से ही निर्मित
चिन्तन कर विधि के विभुत्व को और कामिनी की वपुयष्टि
लगती है वह विधि का अपरा स्त्री रूप रत्न की सृष्टि’
कहा विदूषक ने ‘ऐसा ही है यदि, जैसा किया विदित
तब तो निश्चय ही प्रिय उसने रूपसियों को किया विजित’
शकुन्तला सम्बद्ध भाव का किया निरूपण नृप ने कह
‘और मित्र! मेरा विचार भी सुन लो जो मन में है यह,
उस शकुन्तला का अनिंद्य औ अति लावण्य शुभ्रमय रूप
वह सौन्दर्य सदृश है जैसे अनाघ्रात अति कोमल पुष्प,
नख छिद्रण से वंचित किसलय, अनाविद्ध सा मणि कोई,
अनास्वादित नव मधु रस औ सुकृत पुण्य फल वह कोई,
ऐसे उस कमनीय कान्ति पर ब्रह्मा किसका हित लिखता
ज्ञात नहीं कि कौन सृष्टि में होगा उसका उपभोक्ता?’
देख मित्र की यह उत्कंठा उसके प्रति यह आकांक्षा
कहा विदूषक ने ‘तब तो प्रिय! इसकी शीघ्र करें रक्षा,
कहीं इंगुदी तैल लगाये चिकने मुण्डे सिर वाला
किसी तपस्वी के हाथों में चली न जाये यह बाला’
द्विविधा और असहाय भाव में बोले नृप यह बात कहॉं?
वह तो पराधीन है, अन्यपि, तात उपस्थित नहीं यहॉं’
किया प्रश्न माढ़व्य जानने शकुन्तला की भी सहमति
‘सम्प्रति दृष्टि-राग कैसा है उसका मित्र आपके प्रति?’
नृप उसके अनुराग भाव को किया प्रकट कहकर तपश्लील
‘तपसी कन्याजन स्वभावतः होते ही हैं लज्जाशील,
फिर भी नेत्र घुमा लेती थी मेरे अभिमुख होने पर,
प्रेम प्रदर्शित भी करती थी अन्य कारणों से हॅंसकर,
अति विनम्रता के कारण जो किया गया था मदन निरुद्ध
उसके हाव भाव को उसने किया न प्रकट न ही अवरुद्ध’
सुनकर उत्साही वचनों को मध्य कटाक्ष किया माढ़व्य
‘बैठ गई ना अंक आपके ज्यों ही उसे हुए दृष्टव्य’
नृप बोले ‘जब मित्र परस्पर हम प्रस्थान लगे करने
प्रकट किया शाालीन ढ़ंग से काम भाव फिर से उसने
क्योंकि वह कुछ ही पग चलकर यह कह ठहर गई कुछ पल
‘‘कुश के अंकुर चुभने से सखि हुए हमारे पग घायल’’
यद्यपि वृक्षों का शाखा से था असक्त वल्कल का छोर
फिर भी उस निमित्त मुड़ मुड़कर देख रही थी मेरी ओर’