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प्रथम सर्ग : भाग 2

जिज्ञासा से व्याकुल मन को ज्ञानवृष्टि से करके पुष्ट
युक्तियुक्त नृप के सुतर्क से सारथि हुए पूर्ण संतुष्ट
सोचा नृप ने कुछ पथ चलकर ‘तपोभूमि का यह अंचल,
शान्ति सतत हो यहॉं प्रवाहित, रहे यथावत् हर हलचल’
बोले तब ‘अवरोध न पायें तपोभूमि के वासीगण
अतः यही रोंको रथ, सारथि! जब तक कर लूँ अवरोहण’
विरथ हुए राजन, सारथि से बोले ‘आश्रम परम पुनीत,
मैं, प्रवेश करने से पहले, धारण कर लूँ वेष विनीत’
ऐसा कहकर सदाचारवश धनुष आभरण दिए उतार
बोले ‘सूत! रखो यह, कृत हो धर्म-उचित, आश्रम अनुसार
निरख रहा हूँ जब तक जाकर आश्रम का यह प्रिय परिवार
करो व्यवस्थित इन अश्वों को तब तक, दे समुचित आहार’
ऐसा कहकर नृप आ पहुँचे उस पुनीत आश्रम के द्वार
निज प्रवेश संसूचित करते उठा हृदय में यह उदगार
‘आश्रम प्रकृति शान्तमय स्थल है, दॉंयी बाहु किन्तु कम्पित
यहॉं प्राप्त होगा फल कैसे, या सर्वत्र सुलभ स्थित’
सहसा आश्रम के उपवन के दॉंयी ओर उठा आलाप
सुनकर यह, नृप आकर्षित हो, गये उधर, मन किए प्रलाप
‘अये! तपस्वी कन्यायें ये सेचन घट ले निज अनुरूप
इधर आ रहीं पौध सींचने, इनका दर्शन मृदुल अनूप
आश्रमवासीजन की ऐसी अतिसुन्दर कंचन काया,
अन्तःपुर में भी दुर्लभ है ऐसी मनभावन माया,
रूप, गंध परिपूर्ण सुकोमल अनुपमेय अतिशय प्रियमान
वन की लता कर रहीं तब तो कुंज लताओं का अपमान

आश्रम की मोहिनी प्रकृति के अवलोकन की इच्छा में
करता हूँ अब यहीं प्रतीक्षा इस छाया के आश्रय में’
वहॉं उपस्थित नृप ने देखा दो सखियों के संग मुदित
उपवन में आयी शकुन्तला पौधों को करती सिंचित
चंचल तरुणी कण्व सुता, ज्यों बाह्य जगत से हो अनजान
सखियों के सॅंग घूम घूमकर सींच रही थी वह उद्यान
कभी कभी सखियों के संग वह वार्तालाप किया करती
‘इधर, इधर’ सखियों को स्वर से लगी बताने वह सुकृती
अनुसूया बोली ‘शकुन्तले! ऐसा कुछ हो रहा प्रतीत
तात कण्व को तुमसे बढ़कर आश्रम के तरु से है प्रीत
नवमालिका पुष्पवत् कोमल सखि को भी पाकर उपयुक्त
इन पौधों के आलवाल को भरने को कर दिया नियुक्त’
बोली शकुन ‘नहीं सखि ऐसा, केवल तात नियोग नहीं
इनके प्रति मेरा ममत्व ज्यों हुए सहोदर प्रिय स्नेही’
जिज्ञासा में नृप ने सोचा उधर देख सुन्दर बाला
‘क्या यह ही है कण्व सुपुत्री नामधेय है शकुन्तला?,
यदि यह ऋषिकाश्यप की पुत्री तो ऋषि का यह कृत अनुचित
आश्रम के इस हेतु नियोजन नहीं लग रहा मुझे उचित
जो ऋषि, निश्छल और मनोहर इस ऐसे शरीर को भी
तप के योग्य बनाने की ही इच्छा रखते हैं, वह भी
निश्चय नील कमल पत्ते को धार मानकर ही उससे
शमी वृक्ष की लता काटना चाह रहे होंगे जैसे
पादप अन्तर्निहित यहीं छिप देखूँगा इसको विश्वस्त’
बैठ गये नृप यही सोचते इसी कार्य में हो अनुरक्त,

उधर शकुन सखि अनुसूया से किया आग्रह ‘देख इधर,
प्रियंवदा ने मेरा वल्कल बॉंध दिया है अति दृढ़तर
इसके परिपीडन से अनमन, लगता यह तन पर बोझिल
इसके दृढ़ बन्धन विमुक्त कर, कर दे तू पर्याप्त शिथिल’
अनुसूया आयी सुन आग्रह वल्कल को ढ़ीला करने
तब प्रियंवदा मचल विहॅसकर छेड़ी व्यंग्य, लगी कहने
‘उपालंभ दे तू अब अपने यौवन को जो है कुसुमित
जिस कारण उन्नत हो तेरे वक्ष पयोधर हैं विकसित’
हो अनुरक्त सोचते उपमा अनुभव उनका था संताप
राजन वहीं छिपे बैठे ही किए जा रहे आत्म-प्रलाप
‘यद्यपि वल्कल इस शरीर की आभा के हैं योग्य नहीं
फिर भी अलंकार को इसके नहीं बढ़ाता, बात नहीं,
क्योंकि बिंधा सिवारों से भी सरसिज होता आकर्षक
और मलिन कलंक चिह्न भी होता शशि का छविवर्धक,
यह तन्वंगी बाला युवती है वल्कल में भी सुन्दर
नहीं हुआ करता क्या भूषित मधुर स्वरूपों को पाकर?’
ऋषि तनया सम्मुख विलोककर बोली होकर आकर्षित
‘केसर का यह बाल वृक्ष, हो पवन झकोरों से कम्पित
पल्लवरूपी अंगुलियों से त्वरित कर रहा आमन्त्रित
इसकी ओर अभी चलती हूँ घूमी होकर अभिप्रेरित
मृदुल, मुदित चंचल वचनों औ समवयस्क की रीति गही
प्रियंवदा बोली ‘शकुन्तले! क्षण मुहूर्त भर बैठ यहीं,
तेरे निकट यहीं आरोपित छोटा सा यह तरु केसर
लतापत्र के नव अंकुरयुत है सनाथ सा, हो सस्वर’

अनुनय आग्रह हठ-मृदु मिश्रित शकुन सुनी जब वचन, तदा
बोली गुण अनुरूप नाम के, इसीलिए तू प्रियंवदा’
रुग्ण व्यक्ति के रुचि की वाणी वैद्य कहे, सुन ऐसा तथ्य
नृप बोले ‘इस प्रियंवदा का यह सटीक औ मृदुमय कथ्य,
क्योंकि किसलय राग अधर के कोमल बाहु विटप अनुसृत
पुष्प सदृश यौवन लुभावना अंग अंग में परिलक्षित’
अनुसूया तब स्मरण कराती बोली ‘हे सखि शकुन्तले!
अब आकर तू देख यहॉं पर आम्र वृक्ष के छत्र तले
आम्र-स्वयंवर-वधू, जिसे तुम वन ज्योत्स्ना नाम दिया
उसी चमेली से निष्ठुर हो इसको तुमने भुला दिया’
तभी निकट आ शकुन देख यह करती निज त्रुटि का उपहास
बोली ‘यह ज्यों आत्म विस्मरण, इसका मुझको है आभास
वनज्योत्स्ना लता आम्रतरु मिथुन वृंद का प्रेम निराल
मधुर प्रेम के सूत्रपात्र का यह अति रम्य सुअवसर काल
नव कुसुमों से हो आभूषित है तरुणी वन-ज्योत्स्ना
स्निग्ध पत्रयुत आम्र वृक्ष भी है उपभोग समर्थ बना’
प्रियंवदा बोली ‘अनुसूये! क्या तुझको है ज्ञात निमित्त
क्यों शकुन्तला देख रही है वन ज्योत्स्ना को चिरवृत्त’
पटु अनुसूया अनजानी हो बोली ‘मैं तो हूँ अनजान
तू ही मुझे बता दे सुन लूँ हो तेरा जो भी अनुमान’
प्रियंवदा बोली ‘पादप वर ज्योत्स्ना का हुआ अभीष्ट
इसी तरह अनुरूप स्वयं के प्राप्त करे सखि भी प्रिय इष्ट’
शकुन्तला दी प्रति-उलाहना ‘कौन कहे किसकी भाषा
तूने जो कुछ भी बोला यह तेरी अपनी अभिलाषा’

अभिज्ञानशाकुन्तल

कालिदास
Chapters
प्रथम सर्ग : भाग 1 प्रथम सर्ग : भाग 2 प्रथम सर्ग : भाग 3 प्रथम सर्ग : भाग 4 प्रथम सर्ग : भाग 5 द्वितीय सर्ग : भाग 1 द्वितीय सर्ग : भाग 2 द्वितीय सर्ग : भाग 3 द्वितीय सर्ग : भाग 4 द्वितीय सर्ग : भाग 5 तृतीय सर्ग : भाग 1 तृतीय सर्ग : भाग 2 तृतीय सर्ग : भाग 3 तृतीय सर्ग : भाग 4 तृतीय सर्ग : भाग 5 चतुर्थ सर्ग : भाग 1 चतुर्थ सर्ग : भाग 2 चतुर्थ सर्ग : भाग 3 चतुर्थ सर्ग : भाग 4 चतुर्थ सर्ग : भाग 5 पंचम सर्ग : भाग 1 पंचम सर्ग : भाग 2 पंचम सर्ग : भाग 3 पंचम सर्ग : भाग 4 पंचम सर्ग : भाग 5 षष्ठ सर्ग : भाग 1 षष्ठ सर्ग : भाग 2 षष्ठ सर्ग : भाग 3 षष्ठ सर्ग : भाग 4 षष्ठ सर्ग : भाग 5 सप्तम सर्ग : भाग 1 सप्तम सर्ग : भाग 2 सप्तम सर्ग : भाग 3 सप्तम सर्ग : भाग 4 सप्तम सर्ग : भाग 5